अभिरंजन कुमार
इस चुनाव से राजनीति साफ़ हुई न हुई, मीडिया और गंदा हो गया. जिस मीडिया की अस्मिता और अस्मत कहीं और लुट-बिक चुकी है, उसे ही “वर्जिन मीडिया” समझ रहे हम
(डिस्क्लेमर- यह लेख देश की जनता और मीडिया के हित में है, किसी राजनीतिक दल, मीडिया हाउस या पत्रकार विशेष के ख़िलाफ़ नहीं।)
2014 के लोकसभा चुनाव में मीडिया की निष्पक्षता पर मुझे भारी संदेह है। ज़्यादातर संस्थान किसी न किसी राजनीतिक दल के पक्ष में खुलकर बैटिंग कर रहे हैं। कांग्रेस के ख़ैरख्वाह न के बराबर हैं, लेकिन बीजेपी और आम आदमी पार्टी में मीडिया डिवाइड हो गया है। पत्रकारों को चुनावी टिकट का सपना दिखाकर और चुनाव बाद उनमें से कुछ को राज्यसभा में भेजने का वादा कर आम आदमी पार्टी ने इस मामले में बीजेपी को भी मात देने में काफी हद तक कामयाबी हासिल की।
अंदरूनी सूत्रों से जो जानकारी मिल रही है, उसके मुताबिक आम आदमी पार्टी ने पहली बार मीडिया हाउसेज़ में हर स्तर पर पेनेट्रेट किया है। उसने संपादकों, एंकरों और रिपोर्टरों से लेकर डेस्क पर काम करने वाले कई पत्रकारों को भी किसी न किसी तरह से अपने पक्ष में करने की कोशिश की है। आम तौर पर दूसरी राजनीतिक पार्टियां डेस्क पत्रकारों को तवज्जो नहीं देती थीं, जिसकी वजह से ख़बरों और विश्लेषणों में काफी हद तक निष्पक्षता की गुंजाइश बनी रहती थी। ये डेस्क पत्रकार ख़बरों और विश्लेषणों को संपादित और संतुलित करके जनता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाते थे, लेकिन आम आदमी पार्टी ने उन्हें भी साधकर मीडिया-मैनेजमेंट पर भारी-भरकम ख़र्च करने वाले परंपरागत राजनीतिक दलों को सबक सिखा दिया है। आज सभी राजनीतिक दलों के लिए मीडिया न सिर्फ़ लोगों में अपनी पैठ बढ़ाने का, बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा चंदा बटोरने, सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण बढ़ाने, असली मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने, झूठ को फैलाने और सच को छिपाने का औजार बन गया है। इसीलिए किसी भी तरह मीडिया की सुर्खियों में बने रहने के लिए तमाम राजनीतिक दल तमाम उल्टे-सीधे हथकंडे अपना रहे हैं।
जैसे-जैसे राजनीतिक दलों और नेताओं का जनता से डिस्कनेक्ट बढ़ता गया है, वैसे-वैसे मीडिया पर उनकी निर्भरता बढ़ती चली गई है। हर नेता मीडिया की सुर्खियों में बने रहकर जनता को जीतना चाह रहा है। जनता के बीच रहने वाले नेता आज नदारद हैं। ऐसे में जनता भी उन्हीं को नेता मान बैठी है, जो मीडिया में ज़्यादा से ज़्यादा छाए रहते हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि मीडिया के बिल्कुल निचले स्तरों से लेकर सबसे ऊपर के स्तरों तक प्रलोभन ही प्रलोभन हैं। शहर का टुटपुंजिया नेता भी आज अपने इलाके के अलग-अलग रिपोर्टरों/स्ट्रिंगरों पर नियमित तौर पर ठीक-ठाक रकम ख़र्च करने लगा है। न जाने कितने सारे अख़बार और टीवी चैनल हैं, जो अपने स्ट्रिंगरों को महीनों-सालों पैसा नहीं देते। ऐसे में स्थानीय नेताओं और कारोबारियों के लिए उन्हें ख़रीद लेना काफी आसान हो गया है। इसीलिए मुझे लगता है कि इस बार के चुनाव से राजनीति कितनी साफ़ हो रही है, इसका तो पता नहीं, लेकिन मीडिया पहले की तुलना में और गंदा होकर सामने आया है। अब एक-एक सर्वे, एक-एक इंटरव्यू, एक-एक कार्यक्रम, एक-एक ख़बर, एक-एक विश्लेषण, एक-एक चीखना, एक-एक चिल्लाना, एक-एक बोल, एक-एक शब्द सब बिक चुका है। हम बिके हुए मीडिया को ख़रीद रहे हैं। जिस मीडिया की अस्मिता और अस्मत कहीं और लुट-बिक चुकी है, उसे ही हम आम लोग, आम पाठक, आम दर्शक “वर्जिन मीडिया” (Virgin Media) समझ रहे हैं। आजकल देश में हर तरफ़ नारों में भले आम आदमी का शोर है, लेकिन राजनीति तो छोड़िए, मीडिया-कवरेज में भी आम आदमी की जगह धीरे-धीरे कम होती जा रही है। किसी चैनल पर आम आदमी का एजेंडा नहीं चलता। देश के बड़े-बड़े मुद्दे स्क्रीन से नदारद हैं। चैनलों की स्क्रीन पर देश का विस्तार भी नहीं दिखाई देता। लगता ही नहीं कि भारत कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर अरुणाचल, नागालैंड, मणिपुर और मिजोरम तक फैला हुआ है। दूर-दराज की रिपोर्ट्स ग़ायब हैं।
घटनाओं की रिपोर्टिंग तो हो रही है, लेकिन उन परिस्थितियों की रिपोर्टिंग न के बराबर हो रही है, जिनकी वजह से घटनाएं होती हैं और समस्याएं पैदा होती हैं। उदाहरण के लिए नक्सली/माओवादी हमला तो ख़बर बन जाता है, लेकिन नक्सलवाद/माओवाद प्रभावित इलाकों से वे ज़मीनी रिपोर्टें ग़ायब हैं, जिनकी वजह से यह समस्या बढ़ती ही जा रही है।
मीडिया का ऐसा माहौल बेहद निराशाजनक लगता है मुझे। पूरा कॉन्सेप्ट बिगड़ चुका है। आज का हमारा मीडिया अलग-अलग राजनीतिक दलों को तो अलग-अलग “पक्ष” मानता है, और इसी आधार पर ख़ुद के “निष्पक्ष” होने का दावा भी ठोंकता रहता है, लेकिन वह जनता को कोई “पक्ष” ही नहीं मानता। जनता उसके लिए एक “पक्ष” नहीं, बल्कि “उपभोक्ता” है। उसी तरह से “उपभोक्ता”, जैसे कॉन्डोम और कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स बेचने वाले के लिए भी वह “उपभोक्ता” है। जैसे समाज में बदचलनी और बेहयाई बढ़ाकर भी अगर कंपनियों के कॉन्डोम्स और कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स बिकते हैं, तो उसकी बल्ले-बल्ले है, उसी तरह से लोगों का हित हो या अहित, समाज पर अच्छा असर पड़े या बुरा, अखबारों का मकसद बस इतना है कि आप उसे पढ़ते रहें और चैनलों का मकसद बस इतना है कि आप उसे देखते रहें। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। इस देश में इंसान किसी के लिए तो “इंसान” रहे, अगर वह सबके लिए “उपभोक्ता” बन जाएगा, तो एक दिन सब मिलकर उसका ख़ुद का उपभोग कर लेंगे।
मुझे लगता है कि राजनीति की सफाई जितनी ज़रूरी है, उससे कम ज़रूरी आज मीडिया की सफाई नहीं है। जैसे आज देश की राजनीति धंधेबाज़ों की गिरफ्त में है, वैसे ही देश का मीडिया भी आज धंधेबाज़ों की गिरफ़्त में है। मीडिया में बड़े पदों पर आसीन होने का पहला और सबसे बड़ा पैमाना अब यही बन गया है कि आप अपने संस्थान के लिए कितना धंधा ला सकते हैं, उसे कितना मुनाफा दिला सकते हैं। ख़ाली योग्यता और सरोकार लेकर घूमने वाले लोग बेहिचक खूंटियों पर टांग दिए जा रहे हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की सफ़ाई के लिए तो आंदोलन हो रहे हैं, संगठन खड़े हो रहे हैं, कानून बन रहे हैं, लेकिन मीडिया की सफाई और उसे अधिक ज़िम्मेदार बनाने के लिए क्या हो रहा है?
हालांकि मैं यह देख रहा हूं कि आजकल मीडिया के ख़िलाफ़ बोलना भी फैशन बन गया है, लेकिन मीडिया के ख़िलाफ़ वे लोग बोल रहे हैं, जिनका स्वार्थ या तो मीडिया से पूरा नहीं हो रहा या जिन्हें लगता है कि मीडिया पर दबाव बनाए रखने से उन्हें फ़ायदा होगा। मीडिया किसी का चप्पू बन जाए तो अच्छा, न बन सके तो बुरा- इस भावना से मीडिया की आलोचना की जा रही है। चूंकि मीडिया पर उंगलियां उठाने वाले अधिकतर लोगों और समूहों की प्रतिबद्धता भी संदिग्ध है, इसलिए इन आलोचनाओं से सुधार की बजाय बिगाड़ की ही पृष्ठभूमि बनती जा रही है। क्या इस देश का मीडिया किसी दिन 125 करोड़ लोगों के हित में खड़ा हो सकेगा? या वह अलग-अलग गुटों चाहे वे पूंजीपतियों के गुट हों या राजनेताओं के गुट हों- उन्हीं के हितसाधन का औजार बना रहेगा? अपने बेटे-बेटियों को बचाओ… उन्हें सद्बुद्धि और ताकत दो… हे सरस्वती! कलम के सिपाही अगर बिक गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे।
(लेखक पत्रकार हैं)