देश के शहर दर शहर घूम लीजिये। बाजारों में चकाचौंध है। दुनिया भर के ब्रांडेड उत्पाद से भरी दुकान\मॉल हैं। देखते देखते बीते 20 बरस में भारत का बाजार इतना ब़डा हो गया कि दुनिया के बाजार में भारत के बाजार की चकाचौंध की धूम तले हिन्दुस्तान का वह अंधेरा ही छुप गया जो बाजार में बदलते भारत से कई गुना ज्यादा बड़ा था। लेकिन सच यही है हिन्दुस्तान के अंधेरे की तस्वीर कभी संसद को डरा नहीं सकी। नेताओं के ऐश में खलल डाल नहीं सकी। अंधेरे में समाया हिन्दुस्तान अपनी मौत लगातार मरता रहा। और इनकम और कैलोरी की लकीर पर खड़ा होकर गरीबी की रेखा को पार करने के लिये ही छटपटाता रहा। तो हिन्दुस्तान की इस दो तस्वीरों को पाटने के लिये ही क्या नोटबंदी का जुआ प्रधानमंत्री मोदी ने चला है। या फिर उस राजनीति को साधने के लिये यह जुआ खेला, जिसमें वोटबैक जाति-धर्म की लकीर को छोड़ दें। यानी एक तरफ 45 करोड उपभोक्ता। जो दुनिया के किसी भी विकसित देश से कहीं ज्यादा। दूसरी तरफ 80 करोड भूख से बिलबिलाते नागरिक। जो दुनिया के कई देशो को खुद में समा लें। तो पहली बार खरीदारों या कन्ज्यूमर के हाथ बंध गये हैं। चकाचौंध बाजार की रईसी थम गई है। खरीद कम हो गई है ।
तो हर जहन में सवाल है कि क्या बाजार अर्थव्यस्था के दिन पूरे हो गये। यानी फिक्की और पीड्ल्यूसी की सितहबंर की रिपोर्ट जो भारत के बाजार को 2020 तक 3.6 ट्रिलियन डॉलर यानी 240 खरब रुपये की देख रहे थे । वह अब ढहढहाकर गिर जायेगी। क्योंकि भारत के उपभोक्ताओ की ताकत को दुनिया के बाजार में कंजमशन की हिस्सेदारी 5.8 फीसदी तक देखी जा रही थी । तो क्या वाकई भारत 80 करोड की गरीबी को ढोने के लिये बाजार अर्थव्यस्था की कमाई को उठाये हुआ था। या फिर भारत को बाजार में बदलने की जो सोच 1991 से चल रही थी, उसे बदलना पलटना इसलिये जरुरी था क्योंकि भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत पश्चिमी इकनॉमी को अपनाने की इजाजत देती नहीं है। इसीलिये संसद के सरोकार तक देश से मेल नहीं खाते है। कानूनी व्यवस्था तक में 80 करोड नागरिकों के लिये कोई जगह नहीं है। शिक्षा-स्वास्थ्य। बिजली -पानी। तक कन्जूयमर के लिये है लेकिन 80 करोड़ नागरिकों के लिये कुछ भी नहीं है। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी का कदम सफल हो या असफल देश हमेशा के लिये एक ऐसे चक्र में जा खड़ा हुआ है, जहां से आगे का रास्ता अब मौजूदा हिन्दुस्तान में व्यापक बदलाव लायेगा ही। तो आइए देखते हैं अगर हिन्दुस्तान बदलेगा तो आने वाला हिन्दुस्तान होगा कैसा। लोकतंत्र का मंदिर ही माना जाता है संसद को। लेकिन ये भी अजीब बिडंबना है कि देश की ये एकमात्र इमारत है जो वोट लेने के लिये समूचे देश की नुमाइन्दगी करती है लेकिन उसके अपने सरोकार हिन्दुस्तान के नागरिकों से ही मैच नहीं करते। इतनी ही नहीं लोकतंत्र के इस मंदिर में बैठे सांसदों की आय किसी भी कारपोरेट या किसी भी जनहित वाली इमारत से कहीं ज्यादा महंगी है।
तो दो सवाल आपके जहन में आयेंगे। पहला, कैसे जनता के दर्द को ये बांट सकते है और अगर जनता के दर्द को ये आजादी के बाद से ही बांट नहीं पाये तो फिर दूसरा सवाल-क्या वक्त आ गया है कि उनकी जरुरतों की सीमायें बांध दी जाये। यानी नोटबंदी के बाद अगर उपभोक्ताओं की राशनिंग हो गई। तो नेताओं और सांसदो की राशनिंग क्यों नहीं होनी चाहिये । सांसदों को भी देशहित में सेवक की तर्ज पर क्यों नहीं रहना चाहिये । यानी लुटियन्स की दिल्ली जो सबसे महंगी है वहां रहने वाले मंत्री या संवैधानिक संस्थानों के प्रमुखों के लिये देश का इतना पैसा क्यो व्यर्थ हो। मसलन -पीएम का घर यानी 7 रेसकोर्स ही छह घरो को मिलकर बनाया गया है। बंगला नं 1,3,5,7, 9 और 11 को मिलकर बनाये गये पीएम निवास करीब सौ एकड़ में फैला हुआ है । जबकि घर की इमारत सिर्फ 12 एकड़ में है । वहीं राष्ट्र्पति का निवास 4 हजार एकड़ में फैला हुआ है । जबकि तीन सौ कमरे का राष्ट्रपति के घर का फ्लोर एरिया 2 लाख स्कॉयर फीट है । इसी तर्ज पर दुनिया का सबसे महंगा इलाका लुटियन्स की दिल्ली में मंत्रियों और संवैधानिक सस्थानों के प्रमुखों के घर भी औसतम 12 एकड़ में फैले हुये हैं। जाहिर है रहने के तौर तरीके अंग्रेजों के दौर के ही हैं। तो फिर आजादी के बाद जब भ्रष्टाचार का कच्चा चिट्टा खोलने का जिक्र हो रहा है और देश में गरीबों का जिक्र हो रहा है तो फिर ये क्यों ना मान लिया जाये कि सत्ता और राजनेताओं की रईसी भी अब खत्म होगी। जो कि जनता और देश के पैसे की खुली लूट है। और इस दायरे को अगर बड़ा करें तो फिर करोड़पति सांसद और करोड़पति विधायकों की जो लंबी फौज है, क्या वह राजनीति में आने से पहले भी करोड़पति थे। एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि 72 फिसदी नेता का करोड़पति होना सत्ता में आने के बाद हो पाता है। 44 फिसदी लोग नेतागिरी शुरु करने के बाद करोड़पति हो जाते हैं। देश के 34 फिसदी नेताओं के अपने धंधे होते हैं। तो क्या नोटबंदी का मंथन अब देश में बराबरी ककहरा सुना पायेगा। क्योकि देश बदलेगा तो फिर करोडों स्वाहा कर होने वाले चुनाव के तौर तरीके भी बदल जायेंगे। क्योंकि याद कीजिये 2014 के लोकसभा चुनाव को। चुनाव आयोग ने 38 अरब 70 करोड खर्च किये तो राजनीतिक दलों ने पैंतिस अरब रुपये। इसके अलावा करोडों- अरबों रुपया कालाधन कैसे चुनाव के वक्त फूंका जाता है ये 1993 में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में खुले तौर पर कह दिया गया था कि कैसे ब्लैक मनी . करप्शन का पैसा और अपराधियो का मनी पावर भी चुनाव में जुड जाता है । तो क्या 2019 तक आते आते चुनाव के तौर तरीके बदल जायेंगे। यानी जब बाजार अर्थव्यवस्था ही ढह जायेगी तो फिर कारपोरेट और उद्योगपति राजनीतिक दल को चंदा क्यों देंगे। और जब कैशलैस समाज बनाने की दिशा में मोदी सरकार बढ़ चुकी है । तो फिर चुनाव के लिये एवीएम मशीन की जरुरत क्यों होगी। एप के जरीये या अलग अलग तरह के कार्ड के जरीये लोग घरों में बैठकर ही वोट क्यों नहीं पायेंगे। यानी चुनाव आयोग को चुनाव ने 2014 के चुनाव में जिस तरह 3870 करोड रुपये खर्च किये और उसके अलावा सुरक्षा बंदोबस्त, रेलवे का खर्चा, राज्यों में सुरक्षा का बाकि खर्चा । ये सभी खत्म हो जायेगा। क्योंकि चुनावी खर्च भी बढ़ रहा है और चुनाव लड़ने में जितना खर्चा उम्मीदवार करते है उससे लगता यही है कि अगर आप करोड़पति नहीं है तो चुनाव लड ही नहीं सकते है । क्योकि हर चुनाव इतना महंगा हो चला है कि अगर वह कालाधन ना हो या क्रोनी कैपटलिज्म का हिस्सा ना हो तो भारत अमेरिका से ज्यादा रईस लगेगा । लेकिन सच तो यही है कि चुनाव ही वह तंत्र है जब कालाधन बाहर निकलता है । अपराधी, कारपोरेट सभी अपने भ्रष्टाचार का बंदरबांट राजनीतिक दलों के साथ करते हैं। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 2006 से 2016 के दौरान 8163 उम्मीदवारों की औसत संपत्ति एक करोड़ 57 लाख रुपये थी। चुने गये 596 सासंद विधायकों की औसत संपत्ति 5 करोड 45 लाख रुपये थी । यहीं से सवाल पैदा होता है कि क्या कैशलैस समाज की कोशिशों का एक सिरा वर्चुअल इलेक्शन से भी जुड़ता है। क्योंकि-इंटरनेट और मोबाइल एप्लीकेशन के आसरे मोदी जिस तरह कैशलैस समाज बनाने की कोशिश कर रहे हैं, और प्रधानमंत्री कार्यालय के कर्मचारियों तक को तकनीक की ट्रेनिंग देकर बताने की कोशिश की जा रही है कि भविष्य मोबाइल एप्लीकेशंस का ही है तो क्या मोदी का नया मंत्र वर्चुअल इलेक्शन भी होगा।
वर्चुअल इलेक्शन यानी न लंबी कतारों का झंझट, न फर्जी वोटों का खतरा, न ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप, न पोलिंग स्टेशनों पर धमकाए जाने की खबरें और वोटरों को प्रभावित करने के लिए लाखों का पेट्रोल फूंकती उम्मीदवारों की गाड़ियां। क्योंकि-वर्चुअल इलेक्शन होंगे तो चुनाव इंटरनेट और मोबाइल एप्लीकेशंस के जरिए ही होंगे। यानी आप अपने रजिस्टर्ड मोबाइल नंबर या ईमेल या ऐसी ही किसी व्यवस्था से सीधे घर बैठे वोट कीजिए । अब सवाल ये कि क्या 2019 के चुनाव में वर्चुअल इलेक्शन का हाईटेक प्रयोग किया जा सकता है ? दरअसल,इंटरनेट से वोटिंग का सवाल कोई नया नहीं है। सवाल है बुनियादी ढांचे का। और जिस तरह कैशलैस सोसाइटी बनाने की कवायद की जा रही है-उसमें मोदी इवोल्यूशन के बजाय रिवोल्यूशन का रास्ता तो अपना ही चुके हैं। और रिवोल्यूशन का मतलब ही है बड़े बदलाव। और इस बड़े बदलाव में यह भी संभव है कि झटके में चुनावी प्रचार पर पाबंदी लगाकर उसे इंटरनेट एप्लीकेशंस से ही जोड़ दिया जाए। यानी -चुनावी पार्टियों से कहा जाए कि वो सिर्फ अपने चुनावी विज्ञापन अपनी वेबसाइट या सोशल साइट्स पर दिखा सकते हैं । देश में अभी 100 करोड़ से ज्यादा मोबाइल फोन हैं, और करीब 46 करोड़ से ज्यादा इंटरनेट यूजर्स और ये संख्या तेजी से बढ़ रही है। अगर ये सब बदल रहा है तो फिर गांव भी बदलने चाहिये और राजनीति को गांव की जिम्मेदारी से मुक्त कर देना चाहिये। क्योंकि जिस आदर्श ग्राम परियोजना के आसरे पीएम गांवो का हाल सुधारना चाहते थे-उसका दूसरा सच यह है कि 795 में से जिन 87 सांसदों ने दूसरा गांव गोद भी लिया उनके जरीये पहला गांव भी जर्जर ही है। तो फिर सांसदों को सांसद निधि का पैसा दिया ही क्यों जाये। यानी सांसद कोई जिम्मेदारी पूरी करते नहीं और गांवों के हालात को ठीक करना है तो सालाना 39 अरब 50 करोड रुपये जो प्रति सांसद को पांच करोड़ रुपये के हिसाब से बांटा जाता है उसे बंद कर दिया जाये। और किसी कंपनी या कारपोरेट को हर बरस 39 अरब रुपये देकर जर्जर गांवों को ठीक करने का जिम्मा सौप दिया जाये तो कही ज्यादा बेहतर होगा। क्योंकि राजनेताओं का सच तो ये हो चला है कि उनके भीतर के समाजसेवी और बिजनैसमैन का फर्क अब मिट चुका है। आलम ये है कि लोकसभा में 128 सांसद बिजनेस मैन भी है। राजयसभा में 125 सांसद बिजनेस मैन है । देश भर के 4228 विधायको में 1258 विधायक ऐसे है, जिनका अपना अलग धंधा भी है । तो कल्पना किजिये नोटबंदी के बाद किस धंधे या किस बिजनेस मैन पर कितना असर पड रहा होगा । और देश के चुने हुये नुमाइन्दों को क्या वाकई जनता से कुछ लेना देना भी है । और सांसदों या विधायको के बिजनेस मैन की कैटगरी में कारपोरेट इंडस्ट्रिस्ट से लेकर बिल्डर और कालेज स्कूल अस्पताल चलाने से लेकर होटल चलाने वाले राजनेता भी है। तो आने वाले वक्त में क्या धंधेबाजों की नेतागिरी बंद हो जायेगी। या पार्टियां उन्हें ही टिकट देगी जो वाकई समाजसेवी होगा । क्योंकि बिजनैसमैन समाजसेवी तो नहीं ही हो सकता है। तो क्या मोदी जी का समाजवाद वाकई कोई गुल खिलायेगा या उडन-छू हो जायेगा।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)