इस साल की दो सबसे एक्सप्लोसिव खबरों में एक बिहार के टॉपर्स की शैक्षणिक स्थित बताने वाला वीडियो था तो दूसरा दाना मांझी वाला वीडियो जिसमें वह अपनी पत्नी की लाश कंधे पर उठाये चल रहा था। इन दोनों खबरों ने हफ़्तों नेशनल मीडिया का अटेंशन हासिल किया। खूब बहसें हुईं, एक से बढ़कर एक फॉलोअप हुए। मगर क्या आप आज बिना गूगल किये बता सकते हैं कि इन्हें ब्रेक करने वाले पत्रकार का नाम क्या है?
चलिये, पिछले साल। क्या आपको मालूम है अख़लाक़ की हत्या वाली खबर किसने ब्रेक की, जिस खबर पर साहित्यकारों ने थोक के भाव में पुरस्कार वापस किये थे। मगर आपको शायद ही याद हो इस खबर को ब्रेक करने वाले पत्रकार का नाम। अच्छा आपको उस फोटोग्राफर का नाम याद है जिसने बिहार में मैट्रिक परीक्षा के दौरान बिल्डिंग पर चढ़ कर चिट पहुंचा रहे लोगों की तस्वीर ली थी। जो तस्वीर पूरी दुनिया में प्रकाशित हुई। नहीं न।
अब जरा सोचिये कि इन पत्रकारों के नाम हमें क्यों नहीं मालूम? इन्हें रामनाथ गोयनका पुरस्कार क्यों नहीं मिला? मुझे तो लगता है इतनी बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ देने के बावजूद शायद ही इन पत्रकारों की हैसियत में कोई बदलाव आया हो। मेरा दावा है कि इनमें से ज्यादातर पत्रकारों की सैलरी 10 हजार रूपये महीना भी नहीं होगी।
हम तमाम राजधानी वाले पत्रकारों की नौकरी और मोटी सैलरी इन जमीनी पत्रकारों की वजह से चल रही है। असली खबर यही पैदा करते हैं। हमलोग एडिटिंग, वैल्यू एडिशन, फॉलोअप वगैरह करते हैं। पैकेजिंग करते हैं। माल यही बनाते हैं। इसलिये पत्रकारिता के नायक की घोषणा करने से पहले इन लोगों को भी याद कर लीजिये। उस राजदेव रंजन को भी याद कर लीजिये जो महज एक तस्वीर सामने लाने की कोशिश में मारा गया। उसका नाम भी हम इसलिए जानते हैं, क्योंकि उसकी जान चली गयी।
और हाँ, इमरजेंसी का नारा बुलन्द करने से पहले दिल्ली के नायकों को यह भी सोचना चाहिये कि हाजीपुर और मालकानगिरि और बिसहाड़ा में बैठे इन महानायकों के जीवन की इमरजेंसी कब खत्म होगी।