अनिल चमड़िया
संसद की एक स्थायी समिति ने पेड न्यूज के मामले में जांच के बाद विस्तृत रिपोर्ट पेश की है। उसने पेड न्यूज के संदर्भ में मीडिया की मौजूदा स्थिति को लेकर चिंता जाहिर की है। लेकिन जनप्रतिनिधियों के विज्ञापनदाता के रूप में विकास और उसकी पूरी प्रक्रिया को समझने की उसने जहमत नहीं उठाई है।
समिति के अनुसार मीडिया लोकतंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि धारणा बनी हुई है कि यह न केवल लोगों की समस्याओं को आवाज देता, बल्कि देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य की सही तस्वीर प्रस्तुत करता है। इसलिए जरूरी है कि विभिन्न संचार माध्यमों- अखबार, रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट, मोबाइल फोन- पर प्रकाशित-प्रसारित किए जाने वाले समाचार और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम तथ्यात्मक, निष्पक्ष, तटस्थ और विषयनिष्ठ हों। पर मीडिया के कुछ हिस्सों में व्यक्तियों, संगठनों, निगमों आदि के पक्ष में सामग्री प्रकाशित-प्रसारित करने की एवज में धनराशि या अन्य लाभ प्राप्त करना शुरू हो गया है, जिसे आमतौर पर ‘पेड न्यूज’ कहा जाता है। इस प्रवृत्ति का दुष्प्रभाव वित्तीय, प्रतिभूति, जमीन-जायदाद कारोबार, स्वास्थ्य क्षेत्र, उद्योगों आदि पर पड़ रहा है। निर्वाचन प्रक्रिया में जनमत भी प्रभावित हो रहा है।
यह तथ्य व्याकुल करता है कि ‘पेड न्यूज’ कुछ पत्रकारों के भ्रष्टाचार तक सीमित नहीं है, इसमें मीडिया कंपनियों के प्रबंधक, स्वामी, निगमें, जनसंपर्क कंपनियां, विज्ञापन एजेंसियां और कुछ राजनेता भी शामिल हैं। मीडिया का इस हद तक समझौतावादी होना चिंताजनक है। इस समस्या से पार पाने के लिए तत्काल व्यावहारिक उपाय करने की आवश्यकता है।
इस पृष्ठभूमि के साथ अपनी जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करने वाली संसदीय समिति ने सांसदों, विधायकों की बदलती भूमिका और पेड न्यूज के नए रूप के साथ रिश्ते बनाने की प्रक्रिया पर ध्यान नहीं दिया है। बुनियादी तौर पर यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि भूमंडलीकरण की आर्थिक नीतियों ने लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं को बेपर्दा किया है। लेकिन सभी संस्थाएं बेशर्मी छिपाने या लोकलाज के कारण अपनी बला दूसरे के सिर डाल देती हैं। भारतीय प्रेस परिषद की उप-समिति की रिपोर्ट कहती है कि पेड न्यूज ‘खबर’ के वेश में भ्रष्टाचार का संस्थागत और संगठित रूप है। पर किसी भी समिति का काम केवल बीमारी की पहचान करना नहीं, बल्कि उसके मूल कारणों की तलाश करना होना चाहिए।
अगर अकादमिक अध्ययन के आधार पर पेड न्यूज की समस्या को समझने की कोशिश करें तो उसमें एक संदर्भ प्रथम प्रेस आयोग का आता है। उसकी रिपोर्ट बताती है कि दूसरे विज्ञापनदाताओं की तरह सरकार भी कैसे विज्ञापनों के जरिए प्रेस पर दबाव बनाती है। अगर 2008 के विधानसभा चुनाव से पहले विज्ञापनों पर सरकारी खर्चे के संबंध में लोकायुक्त के फैसले पर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की प्रतिक्रिया देखें तो एक नया पहलू उभरता है। उन्होंने कहा कि सरकार का हर तरह से हक बनता है कि वह अपनी उपलब्धियां विज्ञापित करे। यानी सरकार का विज्ञापन के रूप में प्रचार का हक और चुनाव के दौरान मालदार उम्मीदवारों द्वारा खबर के रूप में विज्ञापन के जरिए प्रचार को लेकर एक नई बहस खड़ी हो जाती है। जबकि हमें यह तलाशना है कि चुनावों में विज्ञापन की भूमिका क्यों बढ़ी है। क्यों कोई मीडिया कंपनी किसी राजनेता के पक्ष में मतदाताओं को भ्रमित करने की कोशिश करती है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात है कि राजनेताओं की मतदाताओं को ठगने की प्रवृत्ति इस हद तक कैसे विकसित हुई।
दरअसल, राजनीतिक पार्टियां और उनके उम्मीदवार विज्ञापनदाता भी हैं और विज्ञापन की जरूरत भूमंडलीकरण की आर्थिक नीतियों और उससे बने वातावरण की देन है। पेड न्यूज एक राजनीतिक प्रश्न है। सब जानते हैं कि भूमंडलीकरण के कार्यक्रमों को लागू करने के साथ ही संसद और
उसके सदस्यों की संवैधानिक जिम्मेदारियों को बदल दिया गया। 1991 के बाद जन प्रतिनिधियों में होड़-सी लग गई कि वे ज्यादा से ज्यादा अपने नामों की पट््िटयां लगवाएं और दीवारें खड़ी करने, सड़कें बनाने जैसे कार्यों में अव्वल दिखें। एक तरह से जन प्रतिनिधियों को पूंजीवादी विज्ञापनदाता के रूप में खड़ा करने की सफल कोशिश की गई। ताजा उदाहरण उत्तराखंड में हुई त्रासदी के बाद का है। 27 जून, 2013 को दो सांसद वाहवाही लूटने के लिए समाचार चैनलों में लड़ते-झगड़ते दिखाई दिए। इस विज्ञापनदाता की तुलना परंपरागत अर्थों वाले विज्ञापनदाताओं से करें तो संसदीय राजनीति के साथ कुछ गहरे संकट के चिह्न दिखाई देते हैं।
विज्ञापन की प्रथा पूंजीवाद की सैद्धांतिक देन है। वह महज औद्योगिक उत्पादों की बिक्री के लिए प्रचार-प्रसार का एक तरीका नहीं है। संसदीय राजनीति में लोकसेवक के लिए जनसंपर्क की जगह पूंजीवादी मीडिया में विज्ञापन की जरूरत पैदा करना भी एक सैद्धांतिक देन है। यह भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से जुड़ती है। दूसरा, हमें इस पहलू पर विचार करना होगा कि पेड न्यूज की कीमत किस तरह आंकी जाती है। पेड न्यूज के बारे में अगर खबर के वेश में विज्ञापन है तो यह उसका बेहद सरलीकरण है। दरअसल, भाषा भूमंडलीकरण के आर्थिक कार्यक्रमों को लागू करने का एक दूसरा बड़ा औजार है। मीडिया के जरिए मतदाताओं को धोखे में रखने की प्रक्रिया को पेड न्यूज कह कर व्यक्त नहीं किया जा सकता।
मीडिया के बारे में कहा जाता है कि वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है और उस पर लोगों का भरोसा रहा है। हालांकि पूरी दुनिया की तरह भारत में भी मीडिया का चरित्र शहरी और मध्यवर्गीय रहा है। भारतीय समाज का भरोसा लिखित और प्रकाशित सामग्री पर रहा है। यहां मीडिया में विज्ञापन और खबरों का फर्क करना भी असहज रहा है। विज्ञापनों के जरिए ठगी और बेईमानी आम है। उत्पाद के खरीदार को होने वाला आर्थिक नुकसान बहुत हद तक व्यक्तिगत हो सकता है, पर मतदाताओं के साथ धोखाधड़ी लोकतंत्र के विरुद्ध अपराध की श्रेणी में आता है।
मीडिया में खबरों का पेश किया जाना और उस पर लोगों का भरोसा कायम होना एक लंबे राजनीतिक, सामाजिक विकास की प्रक्रिया की देन है। लेकिन बाजारवाद का वास्तविक अर्थ यही है कि सारा कुछ बाजार में खड़ा किया जाता है। खबरों के ढांचे, खबरों की भाषा, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मीडिया की मान्यता और आखिरकार देश को चलाने वाली संसद के लिए ठगी के तरीकों से चुनाव संपन्न होना लोकतंत्र के खत्म होने के कगार पर खड़े होने का एलान जैसा है।
संसद की स्थायी समिति लिखती है कि हालांकि सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारतीय प्रेस परिषद, भारतीय निर्वाचन आयोग, न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन, एडिटर्स गिल्ड आॅफ इंडिया, प्रसार भारती जैसे सभी संगठनों, प्राधिकरणों और विभिन्न गणमान्य व्यक्तियों ने पेड न्यूज की समस्या को स्वीकार किया है और इसे रोकने के उपाय जुटाने पर बल दिया है। फिर भी यह जानकर आश्चर्य होता है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग इस कदाचार पर पूरी तरह मौन है। लेकिन समिति को यह भी दर्ज करना चाहिए कि किस तरह बड़े पैमाने पर करोड़पति और अरबपति उम्मीदवार मीडिया के जरिए मतदाताओं को ठगने की कोशिश करते हैं और खुद को जन-प्रतिनिधि होने का दावा भी कर लेते हैं। राजनीति पर पैसे का दबदबा कायम हुआ है। पेड न्यूज के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है और इसका राजनीतिक हल ही हो सकता है।
(जनसत्ता से साभार)