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अखबार के खिलाफ जदयू नेता के आंदोलन का सच

मनोज सिन्हा

‘मुंगेर में प्रभात खबर की कॉपियां फूंकी जा रही है’ शीर्षक से श्रीकृष्ण प्रसाद की रिपोर्ट को कई बेव पत्रिकाओं में देखने का अवसर मिला और इसके पीछे के सच को तलाशने की कोशिश एक पत्रकार की निगाह से मैंने की. रिपोर्ट में जिस छाया चित्र का इस्तेमाल किया गया है वे स्वयं इस बात का गवाह है कि इसमें दल के लोग शामिल नहीं हैं. बल्कि यह स्वयं उसका अभियान है और इसे वही पत्रकार तूल दे रहे हैं जिसे काफी पहले चुनाव के दौरान सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के तत्कालीन के उपनिदेषक सुरेश पांडेय ने दूसरे के प्रेस प्राधिकार पत्र पर घूमते हुए पाया था. मामला 420 ही का था. पुलिस के हवाले करने की बात हो रही थी. लेकिन लिखित माफीनामा के पश्चात उन्हें छोड़ा गया.

यह सच है कि नरेंद्र कुशवाहा के मामले में तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और वर्तमान मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के साथ-साथ जदयू के कई नेताओं ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी. कारण सिर्फ एक था कि आपराधिक किरदार के कार्यकर्ता को मदद करने से शासन और प्रशासन के बीच गलत संदेश जाता. इसी कारण जदयू ने नरेंद्र कुशवाहा को पार्टी के जिला सचिव पद से बर्खास्त कर दिया.

मुंगेर के पुलिस अधीक्षक वरूण कुमार सिन्हा ने पूरे प्रकरण की जांच मुंगेर रेंज के आरक्षी महानिरीक्षक के निर्देश पर अपर पुलिस अधीक्षक संजय कुमार सिंह से करवायी और उसकी रिपोर्ट 26 जून को ही समर्पित की जा चुकी है. लेकिन 21 अक्तूबर के पोस्ट में संघर्षशील पत्रकार कृष्णा प्रसाद ने सारे तत्वों को दर किनार कर न सिर्फ बेव पत्रिकाओं को दिग्भ्रमित किया बल्कि इससे दिलचस्पी रखने वाले तमाम लोगों को गुमराह भी किया. एएसपी के पत्रांक 1892 दिनांक 24 जून 2014 के माध्यम से जांच के दौरान नरेंद्र कुशवाहा को इस कांड में दोषी माना और पुलिस ने 30 जून को आरोप पत्र संख्या 109/13 के माध्यम से अभियुक्त नरेंद्र के विरूद्ध शस्त्र अधिनियम की धारा 25 (1 बी) ए/26 की धारा के तहत न्यायालय में चार्ज शीट दाखिल किया गया है. अब यह मामला न्यायालय में है. जबकि श्रीकृष्ण प्रसाद की रिपोर्ट में कहा जा रहा है कि डीआईजी द्वारा जिन सात बिंदुओं पर एसपी को जांच का आदेश दिया गया था उसे पुरा कर कारवाई की जाय. जब जांच कर एसपी ने नरेंद्र कुशवाहा को आर्म एक्ट में दोषी करार कर दिया और उसके विरुद्ध आरोप पत्र भी कोर्ट में दाखिल कर दिया गया तो इस परिस्थिति में एक पत्रकार द्वारा आरोपी को प्रोत्साहित कर अखबार जलवाने की घटना कहां तक सही है.

यूपी में 09 माह में 524 आईपीएस के तबादले

भारत सरकार ने 28 जनवरी 2014 को आईपीएस कैडर संशोधन नियम 2014 पारित कर आईपीएस अफसरों की न्यूनतम तैनाती 2 वर्ष तय कर दी लेकिन यूपी में इस नियम का रोजाना उल्लंघन हो रहा है.

आरटीआई कार्यकर्ता डॉ नूतन ठाकुर द्वारा प्राप्त सूचना के अनुसार इस नियम के बनने के बाद 30 जनवरी के अमिताभ ठाकुर के तबादले आदेश से ले कर अब तक लगभग 9 महीने में 86 तबादले आदेश जारी किये जा चुके हैं. इन आदेशों के जरिये कुल 524 आईपीएस अफसरों का तबादला हुआ है. 07 जून के एक आदेश से 52 अफसरों का एक साथ तबादला किया गया था. इन आदेशों में तबादले का कारण नहीं बताया गया है जबकि नियम से यह अपेक्षित है.

यूपी में कुल 405 आईपीएस अफसर हैं और इस प्रकार पिछले मात्र 9 माह में आईपीएस अफसरों का औसतन 1.2 बार तबादला किया जा चुका है जबकि न्यूनतम तैनाती 2 साल निर्धारित की गयी है.

इस दौरान 84 अफसरों को डीजीपी कार्यालय से सम्बद्ध किया गया और 17 अफसरों के आदेश निरस्त किये गए. डॉ ठाकुर के अनुसार यह तबादलों की आपाधापी को पूरी तरह दर्शाता है.

आरटीआई सूचना के अनुसार इस दौरान 120 अफसरों का एक से अधिक बार तबादला हुआ. कृपा शंकर सिंह, मोहित गुप्ता, लव कुमार, विजय कुमार गर्ग, शरद सचान, श्रीपर्णा गांगुली, विक्रमादित्य सचान, उमेश कुमार श्रीवास्तव, अनीस अहमद, राजेश कृष्ण, अलंकृता सिंह, दिनेश चन्द्र दुबे, जीतेन्द्र शुक्ला और हैप्पी गुप्तन के 9 महीने में 5 बार तबादले हो चुके हैं.

यहाँ तक कि एएसपी के भी बीच सेशन तबादले हुए हैं. स्वप्निल ममगोई 11 फ़रवरी को गाज़ियाबाद तैनात हुए और उन्हें 29 सितम्बर को झाँसी भेज दिया गया.

नीतिश जी जनता के दर्द पर घड़ियाली आँसू बहाने वालों को पहचानने में ज्यादा देर नहीं होती

नीतिश कुमार के लिए जनता के मिजाज को समझने का वक्त अब निकल चुका है
नीतिश कुमार के लिए जनता के मिजाज को समझने का वक्त अब निकल चुका है

आलोक कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

”मरता क्या नहीं करता “…..

नीतिश कुमार के लिए जनता के मिजाज को समझने का वक्त अब निकल चुका है
नीतिश कुमार के लिए जनता के मिजाज को समझने का वक्त अब निकल चुका है

मुख्यमंत्री रहते हुए भी नीतीश जी ऐसी ही दो और यात्राएं ” अधिकार यात्रा व संकल्प यात्रा ” आयोजित कर चुके हैं … इन यात्राओं का क्या फल-प्रतिफल जनता या खुद नीतीश जी को हासिल हुआ ये भी हम सब देख चुके हैं …. अपनी पिछली दोनों यात्राओं के दौरान नीतीश जी को जनता के भारी विरोध व उग्र -प्रदर्शनों का सामना भी करना पड़ा था ,नौबत तो यहाँ तक आ पहुँची थी कि अपनी अधिकार यात्रा के दौरान नीतीश जी ने अपनी जान जाने की आशंका तक जाहिर कर दी थी (भले ही वो उनकी राजनीतिक चोंचलेबाजी थी ) …..

पिछले दो – ढाई वर्षों के दरम्यान नीतिश जहाँ भी गए हैं उन्हें जनता के आक्रोश का सामना करना पड़ा है …. हद तो तब ही हो गयी थी , जब उन्हें अपने ही गृह-जिले (नालंदा) एवं अपने ही गाँव कल्याणबिगहा (आशा कार्यकर्ताओं ने नीतीश जी को चप्पल दिखाया था ) में विरोध का सामना करना पड़ा था …. नीतीश जी ने इन्हीं विरोध -प्रदर्शनों के कारण एक लम्बे अर्से के लिए जनता के बीच जाना ही छोड़ दिया था , लेकिन अब जब चुनाव नजदीक है और पूरा राजनीतिक – कैरियर ही दाँव पर लगा हो तो ऐसी दुरह परिस्थितियों में जनता के बीच जाने से बचा भी नहीं जा सकता…. ना ही इन विरोध -प्रदर्शनों को सदैव ” विपक्षी साजिश ” करार दिया जा सकता है …. वो एक कहावत है ना …”मरता क्या नहीं करता “…..

राजनेता जब जनता से विमुख होकर फैसले लेता है और जनता को केवल बरगलाने की फिराक में रहता है तो उसकी परिणति विरोध में ही होती है और ऐसे में जनाक्रोश स्वाभाविक व तर्कसंगत ही है ….. इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि जनहित के मुद्दों पर अतिशय व् कुत्सित राजनीति की परिणति जनाक्रोश ही है ……

वैसे भी ऐसी यात्राओं से जनता को कुछ भी हासिल नहीं होता और इस सच को आज जनता भली-भाँति समझ चुकी है …. ऐसी यात्राएं वस्तुतः राजनीतिक यात्राएं होती है जिनका मूल उद्देश्य होता है अपनी सिमटती या खोई राजनीतिक जमीन की तलाश …. वैसे भी आज की तारीख में नीतीश जी के पास ‘खाली समय’ की कमी नहीं है और उनके ‘अपने’भी आँखें तरेर रहे हैं ऐसे में किसी बहाने ‘तफरीह’ जायज भी है …!!

एक साक्षात्कार के दौरान एक अल्पसंख्यक गामीण बिहारी की कही हुई बात सदैव मेरे जेहन में कौंधती है “जनहित की कब्र पर दिखावे की इमारत खड़ी नहीं की जा सकती और जनता के दर्द पर घड़ियाली आँसू बहाने वालों को पहचानने में ज्यादा देर नहीं होती ”

मेरे विचार में नीतिश जी के लिए जनता के मिजाज को समझने का वक्त शायद अब निकल चुका है !!

आलोक कुमार ,

(वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक ),

पटना

लेखक एवं स्तंभकार तनवीर जाफरी को पंजाब में मिलेगा ‘समाज सौहार्द्र सम्मान’

तनवीर जाफरी,लेखक एवं स्तंभकार
तनवीर जाफरी,लेखक एवं स्तंभकार
अंबाला. प्रख्यात लेखक एवं स्तंभकार तनवीर जाफरी को पंजाब कला साहित्य अकादमी की ओर से समाज सौहार्द्र सम्मान से नवाज़ा जाएगा। पंकस अकादमी द्वारा 9 नवंबर 2014 को जालंधर में आयोजित अकादमी के 18वें वार्षिक अवार्ड वितरण समारोह में यह समाज सौहार्द्र सम्मान हरियाणा के लेखक जाफरी को दिया जाएगा।

गौरतलब है कि पंजाब कला साहित्य अकादमी लेखन के माध्यम से साहित्य की सेवा करने वाले राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर के लेखकों को प्रत्येक वर्ष सम्मानित करती है। इस वर्ष यह आयोजन 9 नवंबर (रविवार) को प्रात: दस बजे लायंस क्लब भवन,लाजपत नगर, जालंधर में आयोजित होगा। इसमें तनवीर जाफरी के अतिरिक्त और भी कई लेखकों,साहित्यकारों तथा वरिष्ठ पत्रकारों को सम्मानित किया जाएगा तथा उनका नागरिक अभिनंदन किया जाएगा।

तनवीर जाफरी,विश्व शांति,सर्वधर्म संभाव,सांप्रदायिक सौहार्द्र तथा राष्ट्रीय एकता के पक्ष में तथा धार्मिक आतंकवाद व कट्टरपंथी विचारधारा के विरुद्ध पूरे समर्पण के साथ गत् 30 वर्षों से देश-विदेश के सैकड़ों समाचार पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब पोर्टल में लिखते आ रहे हैं। इन विषयों पर जाफरी के अब तक अनेक लेख तमाम समाचार पत्रों में प्रकाशित हो चुके हैं। वे हरियाणा साहित्य अकादमी की शासी परिषद के लगातार 2 सत्र तक सदस्य भी रहे हैं। जाफरी को पहले भी हरियाणा सरकार सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है।

कांग्रेस ने उदारीकरण का जो सपना दिखाया उसने आम आदमी को आखिर दिया क्या ?

उदारीकरण ने आखिर दिया / किया क्या ?

आलोक कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

उदारीकरण ने आखिर दिया / किया  क्या ?
उदारीकरण ने आखिर दिया / किया क्या ?
विकास के लिए देश में विदेशी पूंजी निवेश की चाह लिए आज से तेईस (२३) साल पहले जिस उदारीकरण का सपना देश की जनता को तत्कालीन नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार ने दिखाया था उसने आम आदमी को आखिर दिया क्या ? आज जबकि उदारीकरण को २३ साल से ऊपर हो चुके हैं तो सबसे बड़ा सवाल यही है.

उदारीकरण को लेकर न जाने कितने ही तर्क और कुतर्क दिए जाते हैं लेकिन वास्तविकता क्या है ? यदि इस उदारीकरण को आम आदमी के नजरिए से देखा जाए जिसके लिए सारी योजनाएं बनती हैं और नीतियों का निर्धारण किया जाता है भले ही उसकी हकीकत कुछ भी हो तो यह सिर्फ़ एक धोखे के अलावा कुछ भी नहीं लगता . सच तो यह है कि उदारीकरण ने सीधे-सीधे पूंजीपतियों को लाभ पहुँचाया आम आदमी की आर्थिक स्थिति तो पहले भी खराब थी और जो धीरे-धीरे बिगड़ती ही चली गयी.अमीर और गरीब के बीच जो खाई दरअसल आज इस देश में है उसकी जड़ में भी उदारीकरण ही है. मुनाफे पर आधारित विकास की परंपरा की नींव पर अगर विकास का मकान खड़ा किया जाए तो वह किसके हित में होगा ? यह सहज ही समझा जा सकता है.

२३ साल पहले बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने जो बातें देश के सामने रखी थीं और उस समय देश के जो हालात थे वैसे में उन परिस्थितियों से निपटने का रास्ता तत्कालीन वित्तमंत्री ने उदारीकरण के रूप में सुझाया था, जिस कारण तत्कालीन वित्तमंत्री ने खूब वाहवाही भी लूटी थी , लेकिन इसके दुष्परिणामों से आने वाले समय में क्या प्रभाव देखने को मिलेगा इसकी चिन्ता किसी को नहीं थी.

उससे पहले की कांग्रेस – संयुक्त मोर्चा और जनता दल सरकारों की गलत नीतियों के कारण हमें विश्व पटल पर अपनी गलत नीतियों के कारण शर्मसार होना पड़ा था.बैंक ऑफ इंग्लैंड से लोन लेने के लिए ४७ टन सोना गिरवी रखना पड़ा था . इसके बावजूद महंगाई का सवाल तब भी था और आज भी वही सवाल जस का तस खड़ा है , तो फिर आर्थिक उदारीकरण के उस ‘लॉली-पॉप’ का फायदा आखिर सरकारों ने और उनकी नीतियों ने किसे दिया ?

२४ जुलाई १९९१ के दिन को हमारे देश के बड़े पूंजीपति घरानों ने ऐतिहासिक दिन बताया था क्योंकि इसी दिन देश में उदारीकरण और निजीकरण के नाम से पूंजी के वैश्विकरण ने देश के दरवाजे से अपने आप को बिना रोक-टोक अंदर दाखिल होने का प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया था . ऐसे में स्वाभाविक है कि पूंजीपति उदारीकरण और निजीकरण के कार्यक्रम को अत्याधिक सफल मानते हैं क्योंकि इसके जरिए उन्हें बहुत मुनाफा हुआ है. लेकिन हिन्दुस्तान अभी भी एक ऐसा देश है जहाँगरीबों की संख्या सबसे ज्यादा है.अपने देश में विभिन्न बीमारियों से सबसे अधिक संख्या में लोग मरते हैं. देश के अधिकांश इलाकों में बहुत ज्यादा संख्या में नवजात बच्चों और माताओं की मौत होती है.करोड़ों लोगों को साफ पेयजल तक उपलब्ध नहीं है.एक बाल्टी पानी लाने के लिए लोगों को घंटों लाईन में खड़े होकर बिताना पड़ता है.

ऊपर से योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने तीन साल एक बहुत ही बेतुका दावा किया था कि एक काम करने वाला व्यक्ति ३२रु. प्रति दिन में गुजारा कर सकता है . यह साफ तौर पर दिखाता था कि पूंजीपति और उनके प्रवक्ताओं को मेहनतकश लोगों की असली परिस्थिति उनकी जरूरतों और उनकी अभिलाषाओं का कोई अंदाजा नहीं . वे गरीबी रेखा को बहुत ही नीचे तक ले जाकर यह दिखाने की कोशिश में लगे हैं कि देश में गरीबी पर काबू पाया जा रहा है.यहाँ एक प्रश्न सहज ही ऊभर कर आता है कि क्या देश में गरीबी रेखा को इसलिए जानबूझ कर न्यूनतम स्तर पर तय किया जाता रहा है ताकि गरीब उससे ऊपर उठते दिख सकें और सरकार यह दावा कर सके कि नव-उदारवादी नीतियां गरीबी घटाने में सहायक हैं ?

आईए रोजगार के उन आंकड़ों पर एक नजर डाली जाए जो शायद आपके समक्ष उदारीकरण के फायदे की स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत कर देंगे : १९९१ मे कुल बेरोजगारी ९.०२ मिलियन थी २००४-०५ में १०.५१ मिलियन जबकि अभी १६.०० मिलियन है.अगर हम बैंकिंग व्यापार प्रशासन और रक्षा से जुड़ी चीजों की कृत्रिम मूल्य वृद्धि को अलग कर दें तो अन्य क्षेत्रों में लोगों को उतना फायदा नहीं मिल पाया है या यूं कहें की विकास की दर इनमें इतनी नहीं है जितना हमारे शासक दावा करते हैं.मतलब साफ और स्पष्ट है कि उदारीकरण और निजीकरण का सीधा सा मतलब देश में श्रम का अत्यधिक शोषण और प्राकृतिक संसाधनों की लूट करना था और इसकी अनुमति देश के इज्जतदार पूंजीपतियों को देने का यह सीधा सा रास्ता था .यानि यह एक मज़दूर-विरोधी किसान-विरोधी और समाज-विरोधी एक शब्द में कहें तो आम-जन विरोधी साम्राज्यवादी एवं पूंजीवादी कार्यक्रम की शुरुआत थी.

ऐसे में इस कार्यक्रम की शुरुआत तो हो गई लेकिन इसके तेईस साल पूरे होने के बाद भी चंद सवाल हैं जिनके जबाव अभी तक नहीं मिल पाए जैसे- आखिर उदारीकरण ने किया क्या है? क्या उदारीकरण ने अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को निरन्तर बढ़ाने का काम नहीं किया है? क्या उदारीकरण ने बेरोजगारी भूखमरी बेकारी आदि न जाने कितनी ही भयंकर समस्याएं इस दुनिया को नहीं दी हैं? क्या उदारीकरण ने अमीरों को और भी अमीर और गरीबों को और भी गरीब नहीं बनाकर रख दिया है? क्या उदारीकरण ने श्रमिकों कामगारों दस्तकारों आदि के हाथ जड़ से नहीं उखाड़ लिए हैं? यदि इस तरह के प्रश्नों के जबाव और उनके रूप दोनों पर व्यापक विचार-विमर्श किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि उदारीकरण विनाश का कारण ही बना रहा है.

आइये अब ये जान लें कि आखिर ये उदारीकरण किस पेड़ में फलने वाली बला है तो जवाब यह है कि वैश्वीकरण के कोख से पैदा होनेवाली चिड़िया है . इतना ही नहीं .वैश्वीकरण. उस विश्वव्यापी प्रवृत्ति का नाम है जिसने पिछले कुछ वर्षों से पूरी दुनिया के जन-जीवन को प्रभावित किया है और एक खास दिशा में उसको विस्थापित किया है . भूमंडलीकरण , जगतीकरण ,उदारीकरण , आर्थिक सुधार नई आर्थिक नीति आदि इसके ही कई नाम हैं . वैश्वीकरण का मूल मंत्र है मुक्त बाजार.यदि बाजार की शक्तियों को खुलकर काम करने दिया जाए उसमें सरकार का दखल और नियंत्रण न हो तो अर्थव्यवस्था का विकास होगा और अंत तक सबको उस विकास का लाभ मिलेगा .यह इस व्यवस्था का बीजमंत्र है .ऐसे में इस मुक्त बाजार व्यवस्था के जो सबसे बड़े शिकार बने हैं वो हैं देश के गरीब और कमजोर किसान.नौबत तो यहां तक आ गई है कि किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो गए हैं.किसानों की आत्महत्याओं के पीछे दरअसल खेती का अभूतपूर्व संकट है .वैसे तो किसान और गाँव हमेशा से शोषण और उपेक्षा के शिकार रहे हैं .किंतु देश की आजादी के बाद पहली बार शायद ऐसा मौका आया है कि हजारों की संख्या में किसान खुदकुशी कर रहे हैं .आत्महत्या एक व्यक्ति के जीवन का वह कदम है जो वह तब उठाता है जब उसे जीवन में उम्मीद की कोई किरण दिखाई नहीं देती .यदि हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं इसका मतलब है कि लाखों -करोड़ों किसान इस संकट में गले तक फंसे होंगे .ऐसे में आखिर क्या फायदा मिला है देश को इस उदारीकरण से जबकि परिस्थितियां पहले से ज्यादा विषम होती जा रही हैं.

खुले बाजार का प्रबल समर्थक अमेरिका आज स्वयं संरक्षणवाद अपना रहा है.अमेरिका के कई राज्यों ने सरकारी कामकाज के ठेकों में आउटसोर्सिंग पर प्रतिबंध लगा दिया है.राष्ट्रपति ओबामा ने भी आउटसोर्सिंग के माध्यम से रोजगारों के निर्यात पर चिंता जताई है .यानि अब बेरोजगारों की एक और पलटन अपनी रोजगार छिनने के बाद जल्द हीं देश की जमीं पर लौटने वाली है.वैश्वीकरण के इस दौर में बाजारवाद ने हर देश में ठोक कर क़दम रखा है और जिन देशों में भ्रष्टाचार ज्यादा है वहां इस बाजारवाद ने खूब मज़े किए हैं इस में भारत का नाम सब से ऊपर आता है. बाजारवाद ने और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत को एक कूड़ेदान की तरह इस्तेमाल किया है.इसका मुख्य कारण है भ्रष्टाचार किसी भी क्षेत्र में देख लीजिए चाहे बोफोर्स तोप सौदा हो या पुराने युद्धक विमान का सौदा या फिर कॉमनवेल्थ के लिए किया गया सौदा हो या या 2 G स्पेक्ट्रम का मामला हो या कोयला घोटाला हो या फिर इस तरह का कोई और सौदा . सामने से बाजार खुलता है सामान सामने के रास्ते से देश में और भ्रष्टाचार पीछे के रास्ते से व्यापार में घर कर जाता है.ऐसे में इस सुनहरे भारत के भविष्य का सपना कितना सुनहरा और चमकीला होगा आप इसका अंदाजा अपने आप ही लगा सकते है.

जिस बाजारवाद ने हमें पश्चिमी सभ्यता सीखने को मजबूर कर दिया उसी बाजारबाद को पैदा करने वाले देश अब भारतीय संस्कृति का प्रचार -प्रसार अपने देश में चाहते हैं और हम बाजारवाद की दौड़ में अंधे उन से अलग न जाने किन ख्यालों में खोए हैं कि हमें तो इस बाजारवाद और उस संस्कृति के बिना देश की सुनहरी तस्वीर और देश की तकदीर दोनों ही धुंधली दिखती है. देश या देश के लोग आज भी उस व्यवस्था के विरोधी नहीं है बल्कि विरोधी हैं तो उस व्यवस्था की खामियों के जिस वजह से देश की हालत आज ऐसी हो गई है .शहरों और महानगरों में सड़कों और बड़ी-बड़ी इमारतों की लंबी कतार खड़ी कर देना सड़कों पर तेज भागती गाड़ियों की श्रृंखला देख खुश होना भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए विकास का सूचक नहीं है न ही देश की अर्थव्यवस्था में और देश के नागरिकों के जीवन स्तर में इससे कुछ बदलाव आना है .ऐसे में हमें एक मजबूत और तटस्थ अर्थव्यवस्था की स्थापना की जरूरत है और साथ ही आधुनिक समाज में भी पूरानी विचारधाराओं और चीजों की समान सहभागिता हो इस पर जोर देने की जरूरत है . तभी उदारीकरण के साथ देखा गया सुनहरे व श्रेष्ठ भारत निर्माण का यह सपना पूरा हो सकेगा.

आलोक कुमार ,

(वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक ),

पटना .

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