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अर्णब की पत्रकारिता रेडियो रवांडा का उदाहरण है – रवीश कुमार

arnab ravish anchor

मैं आज क्यों लिख रहा हूं, अर्णब की गिरफ्तारी के तुरंत बाद क्यों नहीं लिखा?

आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला संगीन है लेकिन सिर्फ नाम भर आ जाना काफी नहीं होता है। नाम आया है तो उसकी जांच होनी चाहिए और तय प्रक्रिया के अनुसार होनी चाहिए। एक पुराने केस में इस तरह से गिरफ्तारी संदेह पैदा करती है। महाराष्ट्र पुलिस को कोर्ट में या पब्लिक में स्पष्ट करना चाहिए कि क्या प्रमाण होने के बाद भी इस केस को बंद किया गया था? क्या राजनीतिक दबाव था? तब हम जान सकेंगे कि इस बार राजनीतिक दबाव में ही सही, किसी के साथ इंसाफ़ हो रहा है। अदालतों के कई आदेश हैं। आत्महत्या के लिए उकसाने के ऐसे मामलों में इस तरह से गिरफ्तारी नहीं होती है। कानून के जानकारों ने भी यह बात कही है। इसलिए महाराष्ट्र पुलिस पर संदेह के कई ठोस कारण बनते हैं। जिस कारण से पुलिस की कार्रवाई को महज़ न्याय दिलाने की कार्रवाई नहीं मानी जा सकती।

भारत की पुलिस पर आंख बंद कर भरोसा करना अपने गले में फांसी का फंदा डालने जैसा है। झूठे मामले में फंसाने से लेकर लॉक अप में किसी को मार मार कर मार देने, किसी ग़रीब दुकानदार से हफ्ता वसूल लेने और किसी को भी बर्बाद कर देने का इसका गौरवशाली इतिहास रहा है। पेशेवर जांच और काम में इसका नाम कम ही आता है। इसलिए किसी भी राज्य की पुलिस हो उसकी हर करतूत को संंदेह के साथ देखा जाना चाहिए। ताकि भारत की पुलिस ऐसे दुर्गुणों से मुक्त हो सके और वह राजनीतिक दबाव या अन्य लालच के दबाव में किसी निर्दोष को आतंकवाद से लेकर दंगों के आरोप में न फंसाए।

अर्णब गोस्वामी के केस में कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र की पुलिस बदले की भावना से कार्रवाई कर रही है। ग़लत नहीं कहा जा रहा है। क्या दिल्ली पलिस और यूपी की पुलिस बदले की भावना से कार्रवाई नहीं करती है? अर्णब गोस्वामी ने कभी अपने जीवन में हमारी तरह ऐसा पोज़िशन नहीं लिया है। मुझे कुछ होगा तो अर्णब गोस्वामी एक लाइन नहीं बोलेंगे। अगर पुलिस किसी को दंगों के झूठे आरोप में फंसा दे तो अर्णब गोस्वामी पहले पत्रकार होंगे जो कहेंगे कि बिल्कुल ठीक है। पुलिस पर संदेह करने वाले ही ग़लत हैं। फिर भी एक नागरिक के तौर आप भी अर्णब के केस में पुलिस के बर्ताव का सख़्त परीक्षण कीजिए ताकि सिस्टम दबाव और दोष मुक्त बन सके। इसी में सबका भला है।

डॉ कफ़ील ख़ान पर अवैध रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगा कर छह महीने बंद रखा गया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा था कि अवैध रूप से रासुका लगाई गई है। उक्त अधिकारी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई है। अर्णब गोस्वामी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह से लेकर तमाम मंत्री और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक ने इस नाइंसाफी पर कुछ नहीं कहा। भारत में किनके राज में प्रेस की स्वतंत्रता अभी खत्म होकर मिट्टी में मिल चुकी है यह बताने की ज़रूरत नहीं है। आपको एक लाख बार बता चुका हूं। प्रेस की स्वतंत्रता की बात करने वाले मंत्रियों के प्रधानमंत्री ने आज तक एक प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है।

बिल्कुल अन्वय नाइक और कुमुद नाइक की आत्महत्या के मामले में इंसाफ मिलना चाहिए। अन्वय नाइक की बेटी की कहानी बेहद मार्मिक है। इस बात की जांच आराम से हो सकती है कि अर्णब गोस्वामी ने अन्वय नाइक से स्टुडियो बनाकर पैसे क्यों नहीं दिए? 80 लाख से ऊपर का काम है तो कुछ न कुछ रसीदी सबूत भी होंगे। अन्वय नाइक की बेटी का कहना सही है कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं होना चाहिए लेकिन कानून को भी मर्यादा से ऊपर नहीं होना चाहिए। जांच की निष्पक्षता की मर्यादा अहम है। तभी लगेगा कि पारदर्शिता के साथ न्याय हो रहा है। राजनीतिक दबाव में केस का खुलना और केस का बंद होना ठीक नहीं है।

जब एनडीटीवी पर छापे पड़ रहे थे और एक चैनल को डराया जा रहा था तब अर्णब का कैमरा बाहर लगा था और लिंचमैन की तरह कवर किया जा रहा था। उनके कवरेज में एक लाइन प्रेस की स्वतंत्रता पर नहीं थी। एन डी टी वी की सोनिया वर्मा सिंह ने ट्विट कर अर्णब की गिरफ्तारी की निंदा की है। एनडीटीवी के अन्य सहयोगियों ने अर्णब की गिरफ्तारी की निंदा की है। ये फर्क है। जब 2016 में एन डी टी वी इंडिया को बैन किया जा रहा था तब प्रेस क्लब में पत्रकार जुटे थे। आप पूछ सकते हैं कि अर्णब और उनके बचाव में उतरे मंत्री लोग क्या कर रहे थे। जब विपक्ष के नेताओं पर छापे की आड़ में हमले होते हैं अर्णब हमेशा जांच एजेंसियों की साइड लेते हैं।

अर्णब ने मोदी सरकार पर क्या सवाल उठाए हैं,बेरोज़गारी से लेकर किसानों के मुद्दे कितने दिखाए गए हैं यह सब दर्शकों को पता है। उल्टा अर्णब गोस्वामी सरकार पर उठाने वालों को नक्सल से लेकर राष्ट्रविरोधी कहते हैं। भीड़ को उकसाते हैं। झूठी और अनर्गल बाते करते हैं। वे कहीं से पत्रकार नहीं हैं। उनका बचाव पत्रकारिता के संदर्भ में करना उनकी तमाम हिंसक और भ्रष्ट हरकतों को सही ठहराना हो जाएगा।

अर्णब की पत्रकारिता रेडियो रवांडा का उदाहरण है जिसके उद्घोषक ने भीड़ को उकसा दिया और लाखों लोग मारे गए थे। अर्णब ने कभी भीड़ की हिंसा में मारे गए लोगों का पक्ष नहीं लिया। पिछले चार महीने से अपने न्यूज़ चैनल में जो वो कर रहे हैं उस पर अदालतों की कई टिप्पणियां आ चुकी हैं। तब किसी मंत्री ने क्यों नहीं कहा कि कोर्ट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला कर रहा है? जबकि मोदी राज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं को जिनती बार उभारा गया है उतना किसी सरकार के कार्यकाल में नहीं हुआ। हर बात में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा बताई और दिखाई जाती है।

एक बार अर्णब हाथरस केस में योगी की पुलिस को ललकार कर देख लेते, मुख्यमंत्री योगी को ललकार कर देख लेते जिस तरह से वे मुख्यमंत्री उद्धव को ललकारते हैं तो आपको अंतर पता चल जाता कि कौन सी सरकार संविधान का पालन कर रही है। उद्धव ठाकरे ने प्रचुर संयम का परिचय दिया है और उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओ ने भी जिनकी एक छवि मारपीट की भी रही है। कई हफ्तों से अर्णब बेलगाम पत्रकारिता की हत्या करते हुए हर संवैधानिक मर्यादा की धज्जियां उड़ा रहे थे। पत्रकार रोहिणी सिंह ने ट्विट किया है कि यूपी में पत्रकारों के खिलाफ 50 से अधिक मामले दर्ज हुए हैं। क्या अर्णब में साहस है कि वे अब भी योगी सरकार को ललकार दें इस मसले पर। जो आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं वो सीमा की बात करने लगेंगे और अर्णब पर रासुका लगा दी जाएगा डॉ कफील ख़ान की तरह। गौरी लंकेश की हत्या के मामले को अर्णब ने कैसे कवर किया था? या नहीं किया था?

द वायर के संस्थापक हैं सिद्धार्थ वरदराजन। अर्णब गोस्वामी सिद्धार्थ वरदराजन के बारे में क्या क्या कहते रहे हैं आप रिकार्ड निकाल कर देख सकते हैं मगर सिद्धार्थ वरदराजन ने उनकी गिरफ्तारी में पुलिस की भूमिका को लेकर सवाल उठाए हैं। निंदा की है। उसी तरह से कई ऐसे लोगों ने की है। अर्णब के पक्ष में उतरे बीजेपी की मंत्रियों और समर्थकों की लाचारी देखिए। वे सुना रहे हैं कि कहां गए संविधान की बात करने वाले। पत्रकार रोहिणी सिंह ने एक जवाब दिया है राकेश सिन्हा को। संविधान की बात करने वालों को आपने जेल भेज दिया है। कुछ को दंगों के आरोप में फंसा दिया है। इनकी समस्या ये है कि जिन्हें नक्सल कहते हैं, देशद्रोही कहते हैं उन्हीं को ऐसे वक्त में खोजते हैं। इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि कई लोगों ने एक नागरिक के तौर पर अर्णब की गिरफ्तारी की प्रक्रिया को लेकर सवाल उठाए हैं। उन्होंने यह फर्क साफ रखा है कि अर्णब पत्रकार नहीं है और न ही यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला है।

न्यूज़ ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन ने भी निंदा की है जबकि अर्णब इसके सदस्य तक नहीं है। अर्णब ने हमेशा इस संस्था का मज़ाक उड़ाया है। क्या न्यूज़ ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन किसी ऐसे छोटे चैनल के पत्रकार की गिरफ्तारी पर बोलेगा जो उसका सदस्य नहीं है? ज़ाहिर है केंद्र सरकार अर्णब के साथ खड़ी है। अर्णब केंद्र सरकार के हिस्सा हो चुके हैं। अर्णब पत्रकार नहीं हैं। इसे लेकर किसी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए। पत्रकारिता के हर पैमाने को ध्वस्त किया है। जिस तरह से पुलिस कमिश्नर को ललकार रहे थे वो पत्रकारिता नहीं थी।

मैंने कल इस मामले पर कुछ नहीं लिखा क्योंकि प्राइम टाइम के अलावा कई काम करने पड़ते हैं। मैं लंबा लिखता हूं इसलिए भी टाइम चाहिए होता है। जब गिरफ्तारी की ख़बर आई तो मैं व्हाट्स एप पर था। फिर तुरंत कपड़े धोने चला गया। नील डालने के बाद भी बनियान में सफेदी नहीं आ रही थी। उससे जूझ रहा था तभी किसी का फोन आया कि चैनल खोलिए अर्णब गिरफ्तार हुए हैं। मैंने कहा कि उन्हीं जैसौं के कारण तो मेरे घर में न्यूज़ चैनल नहीं खुलता है। ख़ैर जब बनियान धोने के बाद पंखे की सफाई के लिए ड्राईंग रूम में आया तो चैनल खोल दिया। पंखे पर जमी धूल आंखों में गिर रही थी और मीडिया पर जमी धूल चैनल पर दिखने लगी। वैेसे कुछ दिन पहले फेसबुक पर रिपब्लिक चैनल के मामले में एडिटर्स गिल्ड की प्रतिक्रिया पोस्ट की थी कि किसी एक पर आरोप है तो आप पूरे गांव पर मुकदमा नहीं कर सकते।

लेकिन मैं अर्णब का घर देखकर हैरान रह गया। रोज़ 6000 शब्द टाइप करके मैं गाज़ियाबाद के उस फ्लैट में रहता हूं जिसमें कुर्सी लगाने भर के लिए बालकनी नहीं है। अर्णब का घर कितना शानदार है। ईर्ष्या से नहीं कह रहा। मुझे किसी का भी अच्छा घर अच्छा लगता है। एक रोज़ किसी अमीर प्रशंसक ने घर आने की ज़िद कर दी और आते ही बच्चों के सामने कह दिया कि बस यही घर है आपका। हम तो सोचे कि आलीशान फ्लैट होगा। एक मोहतरमा तो रोने लगीं कि मेरा घर ले लीजिए। कोरोना के कारण जब घर से एंकरिंग करने लगा तो मेरे घर में झांकने लगे। उन्हें लगा कि रवीश कुमार शाहरूख़ ख़ान है। जल्दी उन्हें मेरे घर की दीवारों से निरशा हो गई। मुझे अपना घर बहुत अच्छा लगता है। मेरी तेरह साल पुरानी कार को देखकर कई बार लोगों को लगा कि किसे बुला लिया अपनी महफिल में। वैसे ईश्वर ने सब कुछ दिया है। लोगों ने इतना प्यार दे दिया कि सौ फ्लैट कम पड़ जाएं उसे रखने के लिए। मैं अर्णब के शानदार घर के विजुअल के सामने असंगठित क्षेत्र के एक मज़दूर की तरह सहमा खड़ा रह गया। मैं क्या बोलता, मेरे बोले का कोई मोल है भी या नहीं। एक अदना सा पत्रकार एक चैनल के मालिक के लिए बोले, यह मालिकों का अपमान है।

मैं तो बस अर्णब के घर की ख़ूबसूरती में समा गया। कल्पनाओं में खो गया। ड्राईंग रूम की लंबी चौड़ी शीशे की खिड़की के पार नीला समंदर बेहद सुंदर दिख रहा था। अरब सागर की हवाएं खिड़की को कितना थपथपाती होंगी। यहां तो क़ैदी भी कवि हो जाए। मुझे इस बात की खुशी हुई कि अर्णब के दिलो दिमाग़ में जितना भी ज़हर भरा हो घर कैसा हो, कहां हो, कैसे रहा जाए इसका टेस्ट काफी अच्छा है। उसमें सौंदर्य बोध है। बिल्कुल किसी नफ़ीस रईस की तरह जो अपने टी-पॉट की टिकोजी भी मिर्ज़ापुर के कारीगरों से बनवाता हो। मैं यकीन से कह सकता हूं कि अर्णब के अंदर सुंदरता की संभवानाएं बची हुई हैं। लेकिन सोचिए रोज़ समंदर के विशाल ह्रदय का दर्शन करने वाले एंकर का ह्रदय कितना संकुचित और नफ़रतों से भरा है।

अर्णब गोस्वामी जब भी जेल से आएं, अव्वल तो पुलिस उन्हें तुरंत रिहा करे, मैं यही कहूंगा कि कुछ दिनों की छुट्टी लेकर अपने इस सुंदर घर को निहारा करें। इस सुंदर घर का लुत्फ उठाएं। सातों दिन कई कई घंटे एंकरिंग करना श्रम की हर अवधारणा का अश्लील उदाहरण है। अगर इस घर का लुत्फ नहीं उठा सकते तो मुझे मेहमान के रूप में आमंत्रित करें। मैं कुछ दिन वहां रहूंगा। सुबह उनके घर की कॉफी पीऊंगा। वैसे अपने घर में चाय पीता हूं लेकिन जब आप अमीर के घर जाएं तो अपना टेस्ट बदल लें। कुछ दिन कॉफी पर शिफ्ट हो जाएं। और हां एक चीज़ और करना चाहता हूं। उनकी बालकनी में बैठकर अरब सागर से आती हवाओं को सलाम भेजना चाहता हूं और बॉर्डर फिल्म का गाना फुल वॉल्यूम में सुनना चाहता हूं। ऐ जाते हुए लम्हों, ज़रा ठहरो, ज़रा ठहरो….मैं भी चलता हूं… ज़रा उनसे मिलता हूं… जो इक बात दिल में है उनसे कहूं तो चलूं तो चलूं…. और हां पुलिस की हर नाइंसाफी के खिलाफ हूं। चाहें लिखू या न लिखूं।

( लेखक के फेसबुक वॉल से साभार )

टीआरपी गाइडलाइंस की समीक्षा के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की कमेटी

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टीआरपी प्रणाली हमेशा से विवादों के घेरे में रही है। लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से टीआरपी घोटाले का मामला सामने आया, उसे देखते हुए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने देश में पारदर्शी टीआरपी व्यवस्था के लिए गाइडलाइंस की समीक्षा करने का निर्णय लिया है।

इसके लिए मंत्रालय ने चार सदस्यीय कमेटी गठित की है। यह कवायद टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) की सिफारिशों और भरोसेमंद टीआरपी व्यवस्था बनाने के मद्देनजर की गई है।

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ओर से गठित होने वाली कमेटी मौजूदा टीआरपी प्रणाली का मूल्यांकन करेगी और समय-समय पर अधिसूचित ट्राई की सिफारिशों की समीक्षा करेगी। इसके अलावा टीआरपी सिस्टम से जुड़े सभी हितधारकों की जरूरतों के बारे में भी जानेगी। कमेटी एक मजबूत, पारदर्शी तथा जवाबदेह व्यवस्था के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से सिफारिशें करेगी।

प्रसार भारती के सीईओ शशि एस वेंपति की अध्यक्षता में गठित होने वाली इस कमेटी में आईआईटी कानपुर के स्टैटिक्स के प्रोफेसर डॉ. शलभ, सी-डॉट के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर राजकुमार उपाध्याय और डिसीजन साइसेंस सेंटर फार पब्लिक पॉलिसी के प्रोफेसर पुलक घोष सदस्य के तौर पर शामिल हैं।

यह कमेटी पूर्व की व्यवस्था का अध्ययन करने के साथ ट्राई की सिफारिशों को भी देखेगी। यह कमेटी किसी को एक्सपर्ट के तौर पर भी विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर अपने साथ जोड़ सकती है। यह कमेटी दो महीने में सूचना एवं प्रसारण मंत्री को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। (एजेंसी)

अर्णब दाऊद इब्राहिम या हाफिज़ सईद तो नहीं, जिसके लिए एनकाउंटर स्पेशलिस्ट भेजे गए

arnab goswami arrested by maharashtra police

हरेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

बदले की भावना से काम करने वालों को सदैव याद रखना चाहिए कि वक्त का पहिया घूमता भी है।

दक्षिण भारत में एआईडीएमके पार्टी के प्रमुख जयललिता के साथ सत्तारूढ़ द्रमुक के करुणानिधि ने व्यक्तिगत दुर्भावना से कार्रवाई की थी और अगली बार जयललिता ने सत्ता में आते ही बदला भांज दिया।

अर्णब गोस्वामी किसी इंटीरियर डिजाइनर की आत्महत्या के लिए दोषी हैं तो उसके लिए कानून का सहारा लीजिए।

यह केस 2018में बंद हो गया था और तब देवेंद्र फडणवीस की सरकार में शिवसेना भी सहयोगी थी।

अगर, फडणवीस ने कुछ गलत किया तो कोर्ट को उनपर एक्शन लेना था। अर्णब कोई दाऊद इब्राहिम या हाफिज़ सईद या कोई और आतंंकी तो नहीं, जिसके लिए एनकाउंटर स्पेशलिस्ट के नेतृत्व में 50 पुलिसकर्मियों की टीम सुबह-सुबह भेज दिया। पुलिस की यह कार्रवाई साफ और स्पष्ट बता रही है कि वह बदले की भावना से ग्रसित है।

पालघर में महाराष्ट्र पुलिस के हथियार बंद पुलिसकर्मियों के सामने पीट-पीटकर दो निर्दोष साधु और उनके ड्राइवर की हत्या कर दी गई। महाराष्ट्र सरकार और पुलिस ने कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस तक न की।
दिशासालियान की हत्या को सुसाइड में डदलकर केस बंद कर दिया। इनका हौसला इतना बढ़ गया कि सुशांत सिंह की भी हत्या कर दी। अपराधी खुलेआम घूमते रहे। घटनास्थल को सील न किया गया। सबूत मिटाने के लिए सुशांत के घर का रंगोरोगन कर दिया।

सुशांत सिंह के 74साल के पिताजी द्वारा पटना के राजीव नगर में एफआईआर दर्ज कराने के बाद बिहार पुलिस की टीम ने सप्ताह भर के अंदर यह बता दिया कि दिशासालियान ने कोई आत्महत्या नहीं की थी। इतना ही नहीं दिशासालियान की हत्या करने वालों ने ही सुशांत सिंह की हत्या की है।

मुंबई पुलिस ने जिस तरह से बिहार पुलिस के साथ व्यवहार किया उसकी जितनी निंदा की जाए कम है। दिशासालियान केस की डायरी यह कहकर न दिया कि केस डायरी सिस्टम से डिलीट हो गई है।

पटना सिटी एसपी विनय तिवारी को क्वारंटाइन करनै वाली मुंबई पुलिस और बृहन्मुंबई महानगरपालिका ने आमिर खान के तुर्की से आने पर किसी तरह के क्वारंटाइन की जरूरत नहीं समझी।

इसी मुंबई पुलिस के डीजीपी परमवीर सिंह ने बिहार के तत्कालीन डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय का फोन तक रिसीव न किया था।

यही बृहन्मुंबई महानगरपालिका है जिसने कंगना रनोट का ऑफिस चौबीस घंटे में तोड़ दिया। वहीं, पर दूसरे कलाकारों द्वारा निर्मित ऑफिस जहां वास्थव में अतिक्रमण था, कोई कार्रवाई न हुई। कंगना रनोट और उनकी बहन रंगोली चंदेल पर मुंबई पुलिस ने कोर्ट की सहायता से एक साथ कई केस दर्ज किया है, ताकि उसे सबक सिखाया जाए। यहां लोकल कोर्ट और हाईकोर्ट भी महाराष्ट्र सरकार के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही है।

इन सबको देखकर पाकिस्तान में नवाज शरीफ के साथ वहां की सेना द्वारा पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई कार्रवाई याद आ गई। पाकिस्तान की सेना ने नवाज शरीफ को राजनीति में भाग लेने से रोककर अपने नये प्यादे इमरान खान को सत्तरूढ़ करने के लिए यह सब किया था। तब भारत के वामपंथियों ने पाकिस्तानी कोर्ट का खूब समर्थन किया था।

भारत में सत्तरूढ़ दल कांग्रेस और उसकी सहयोगी रही वामपंथी पार्टियों ने इस तरह की परिपाटी स्थापित कर दी है कि सत्ता का खुलेआम दुरुपयोग करने को यहां सही मान लिया जाता है। इस कारण से हत्या, बलात्कार, अपहरण, तस्करी जैसे जघन्यतम अपराधों में शामिल अपराधी भी स्थानीय पुलिस और कोर्ट से मिलीभगत कर सबूतों को या तो मिटाने या छेड़छाड़ करने में कामयाबी हासिल कर लेती रही है,जिसका फायदा ऐसे आपराधिक और भ्रष्टाचारी लोग उठाते रहे हैं। ऐसे अपराधियों कोर्ट से सबूतों के अभाव या छेड़छाड़ का फायदा मिलता रहा है।

हमारा तो साफ तौर पर मानना है कि कोई भी अपराधी हो, उसे न छोड़ें,लेकिन सत्ता का दुरुपयोग कर किसी का मुंह बंद करने के लिए तो न करें।

अर्णब ने महाराष्ट्र सरकार की हां में भां मिलाई होती तो क्या तब भी यह पुलिस और सरकार इस तरह का व्यवहार करती। इसका उत्तर-हमेशा न है।

अर्णब ने महाराष्ट्र सरकार से पालघर में संतों की भीड़ द्वारा हत्या, दिशासालियान और सुशांत सिंह की हत्या पर सवाल न पूछा भोता तो आज जो लोग महाराष्ट्र सरकार के साथ खड़े होकर अर्णब की गिरफ्तारी पर तालियां बजा रहे, वे भी शांत होते।
इंटीरियर डिजाइनर के साथ कुछ गलत हुआ है तो कानून की मदद से उसे न्याय दिलाने के लिए आगे आना सहघ बात है,लेकिन यहां तो साफ-साफ दिशासालियान और सुशांत के हत्यारे को बचाने के लिए किसी की आवाज़ को दबाने के लिए महाराष्ट्र सरकार पूरी ताकत से सत्ता का दुरुपयोग कर रही है। यह साफ-साफ बता रहा है कि दिशासालियान और सुशांत सिंह की हत्या करनेवाला अपराधी महाराष्ट्र सरकार का अपना और बहुत करीबी है। नहीं तो कोई दूसरा कारण नहीं कि दिशासालियान और सुशांत सिंह की हत्या के तुरंत बाद शिवसेना के मुखपत्र सामना में इसे सुसाइड घोषित करने के लिए संजय राउत सुशांत को बायपोलर डिस ऑर्डर नाम की मानसिक बीमारी से पीड़ित, उनके पिता की दूसरी शादी। फिल्म न मिलना, सहित तमाम बातें लिखते। इसके लिए संजय राउत को शिवसेना ने इनाम देकर राष्ट्रीय प्रवक्ता का पद दे दिया।

यह दाल में किला नहीं पूरी दाल ही काली है।

चिनॉय सेठ याद रखना, जिसके घर शीशे के बने भोते हैं वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते।

(लेखक के सोशल मीडिया वॉल से साभार)

अर्नब के मामले में जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध

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कुणाल देव

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध…

मुंबई पुलिस वाकई जांबाज है। जिस तरह से पुलिस के बांकुरे अफसर पत्रकार अर्णब गोस्वामी को घर से घसीटकर साथ ले गए, उससे उनकी जांबाजी साफ झलकती है।

हालांकि, ऐसी जांबाजी पर लानत है। आपराधियों को ढूंढने में नाकाम रहने वाली मुंबई पुलिस ने अपने सफेदपोश आकाओं के निर्देश पर इस कायराना हरकत को अंजाम दिया है।

लेकिन, पुलिस से शिकायत फिर भी कम है। सबसे ज्यादा शिकायत तो मीडिया विरादरी से है, जो इस आपद स्थिति में भी विभक्त है।

सिद्धांत अलग हो सकते हैं, व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा भी , लेकिन यह सवाल तो अस्तित्व का है।

अर्णब की गिरफ्तारी ने चौथे स्तंभ को चुनौती दी है।

आप आज सुरकित हो सकते हैं, लेकिन क्या आप यह गारंटी ले सकते हैं कि कल आपके खिलाफ कोई साजिश नहीं होगी।

मैं अर्णब से कभी नहीं मिला। कई मुद्दों पर अर्णब से सहमत भी नहीं हूं।

लेकिन, बात पत्रकार की है, चौथे स्तंभ के अस्तित्व की है।

अर्णब ऐसा कौन सा काम कर रहे थे, जिसके लिए उनके साथ अपराधी जैसा व्यवहार किया जाना जरूरी था।

जरा-जरा सी बात पर सोशल मीडिया पर आक्रोश और विरोध दर्ज कराने वाले सक्रिय पत्रकारों की चुप्पी भी बहुत खलती है।

वे शायद अर्णब से नाराज होंगे।

लेकिन, यह वक्त किसी व्यक्ति विशेष से नाराजगी रखने का नहीं है, बल्कि चौथे स्तंभ पर हुए हमले के खिलाफ एकजुट होने का है।

हम आपसी लड़ाई और मतभेद को फिर सुलझा लेंगे। आज आपकी चुप्पी राष्ट्रकवि रामधारी दिनकर की याद दिलाती है…

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध

(लेखक के सोशल मीडिया वॉल से साभार)

अर्णब गोस्वामी के साथ जो हो रहा है वह कांग्रेस की हिंसक और बर्बर सोच का ही उदाहरण है

arnab goswami arrested

संजय तिवारी

भारत में सबसे हिंसक और बर्बर राजनीतिक दल है तो उसका नाम है कांग्रेस। जिन्होंने नब्बे का दशक नहीं देखा है वो अंदाज ही नहीं लगा सकते कि सत्ताधारी होने पर कांग्रेस कितनी हिंसक और बर्बर हो जाती है।

पलक झपकते कांग्रेस बीजेपी सरकारों के खिलाफ धारा 356 का इस्तेमाल करती थी। बीजेपी को रोकने के लिए कोई ऐसा कुकर्म नहीं था जिसे कांग्रेस ने न किया हो।

लेकिन बीजेपी को कुएं में धकेलने के चक्कर में कांग्रेस स्वयं खाई में गिर गई। और ऐसी गिरी कि छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू पार्टी होकर रह गयी है।

महाराष्ट्र में अर्णव गोस्वामी के साथ जो हो रहा है वह कांग्रेस की हिंसक और बर्बर सोच का ही उदाहरण है।

जाहिर है इसके बचाव में कम्युनिस्ट और इस्लामिस्ट हमेशा की तरह मैदान में उतरेंगे ही क्योंकि कांग्रेस के भीतर की हिंसा, असहिष्णुता और बर्बरता इन्हीं की तो देन है।

शिवसेना और एनसीपी भी कांग्रेस इकोसिस्टम के हिस्से हैं। इसलिए लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही हत्या में ये भी कांग्रेस का ही साथ देंगे।

लेकिन इस देश का लोकमानस बहुत प्रबल है। कुछ प्रतिशत इस्लामिस्टों और कम्युनिस्ट कांग्रेसियों को छोड़ दें बाकी भारत अभी भी गलत को गलत और सही को सही के रूप में ही देखता है।

वह लोकमानस कभी किसी के साथ अन्याय बर्दाश्त नहीं करता। इससे मतलब नहीं कि अन्याय करनेवाला कौन है और सहनेवाला कौन।

लोकमानस सदैव सहनेवाले के साथ सहानुभूति रखता है। बीजेपी के साथ रखा। अब अर्णव के साथ रखेगा।

बाकी कांग्रेस और शवसेना अपनी वैचारिक चिताओं के लिए लकड़ियां इकट्ठी कर रहे हैं, इससे अधिक उनके इस दमन, बर्बरता और पाशविकता का कोई महत्व नहीं है।

(पत्रकार संजय तिवारी के एफबी वॉल से साभार)

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