Home Blog Page 320

लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आने वाला व्यक्ति भी तानाशाह हो सकता हैःनामवर सिंह

आलोचना पत्रिका के अंक 53-54 के प्रकाशन के उपलक्ष्य में साहित्य अकादेमी सभागार में राजकमल प्रकाशन ने आयोजित की परिचर्चा
आलोचना पत्रिका के अंक 53-54 के प्रकाशन के उपलक्ष्य में साहित्य अकादेमी सभागार में राजकमल प्रकाशन ने आयोजित की परिचर्चा

नई दिल्ली/ आलोचना (त्रैमासिक) पत्रिका के अंक 53-54 के प्रकाशन के उपलक्ष्य में ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ विषय पर साहित्य अकादमी-सभागार में आयोजित परिचर्चा में युवाओं की भागीदारी जबरदस्त रही। दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय सहित अन्य अकादमिक संस्थानों के छात्रों ने जमकर हिस्सा लिया। उपस्थिति का आलम यह था कि सभागार में पैर रखने की भी जगह नहीं थी। जिसे जहां जगह मिली, वह वहीं पर बैठ गया। इस बीच युवाओं ने जनतंत्र से जुड़े सवालों की झड़ी लगा दी। एक युवा ने सवाल खड़ा किया कि आखिर क्यों ‘आलोचना’ पहले जैसी नहीं होती! जिसकी आलोचना होती है वह और मजबूत क्यों हो जाता है!

राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा आयोजित इस परिचर्चा में बोलते हुए वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि ‘साहित्य को फॉर्म और कंटेंट की कसौटी पर देखने की परंपरा है। फॉर्म एक हो सकता है, लेकिन कंटेंट क्या है-यह देखना जरूरी है। लोकतंत्र एक फॉर्म है, लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आने वाला व्यंक्ति भी तानाशाह हो सकता है। हिटलर और स्टालिन भी चुनाव जीतकर आए थे। मोदी के आने के तरीके और उनकी बातों के तीखेपन को हम इसी आईने में देखते हैं।’ नामवर जी ने किसी भी समय में बुद्धिजीवियों की भूमिका को स्पष्ट करते हुए चाणक्य की एक पंक्ति उद्धृत की : ब्राह्मण (बुद्धिजीवी) न किसी के अन्न पर पलता है, न किसी के राज्य में रहता है, वह स्वराज्य में विचरण करता है।

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अनुपमा रॉय ने कहा कि ‘जनतंत्र और जनतांत्रिक राज्यों के बीच विरोधाभास स्पष्ट है। जन और तंत्र में तंत्र शासकीय प्रवृत्ति है जो शक्ति और सत्ता को एकीकृत करता है।’ अनुपमा ने सवाल किया कि क्या चुनाव ही एक माध्यम है, जिसमें जनतांत्रिकता साफ हो सकती है? जन आंदोलन जनतांत्रिक नागरिकता को जगह, जमीन देती है। लेकिन आज नागरिकता को कानूनी दायरे में संकुचित कर दिया गया है।

आदित्य निगम ने अपनी बात रखते हुए कहा कि ‘सियासत सिर्फ राजनीति की औपचारिक जमीन पर नहीं होती, वह हर जगह होती है। सियासत जब भी अपना दावा पेश करती है, तो एक खास लम्हे में किसी भी जगह किसी भी समय एक नये व्याकरण की खोज पर हमें मजबूर करती है।’ अपनी बात को मजबूती देने के लिए आदित्य ने सिंगूर, नंदीग्राम और इंडिया अगेंस्ट करप्शन सरीखे आंदोलनों का उदाहरण भी दिया।

मुसलमानों की नुमाइंदगी के सवाल को उठाते हुए हिलाल अहमद ने कहा कि, भारतीय जनतंत्र में मुसलमानों की नुमाइंदगी का सवाल सबसे बड़ा दिखता है, लेकिन दरअसल मुसलिम विविधताओं का सवाल सबसे बड़ा है। मुसलमानों में वर्ग है, जातियां हैं – जिनको नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है। नुमाइंदगी का एक ही फॉर्म क्यों होगा? मुसलमानों का नुमाइंदा कोई मुसलमान ही क्यों हो?’ राजनीतिक नुमाइंदगी पर अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए हिलाल ने रिजर्वेशन में मुसलमानों की नुमाइंदगी को जनतंत्र के लिए जरूरी बताया।

रवीश कुमार ने मंच का संचालन किया। पहले सत्र में वक्ताओं से बातचीत करने के बाद दूसरे सत्र में सभागार में उपस्थित लोगों के प्रश्नों का जवाब दिया गया। ज्ञात हो कि राजकमल प्रकाशन की विमर्शपरक पत्रिका के नए संपादक अपूर्वानंद के संपादन में जो पहले दो अंक (अंक53-54) आए हैं, ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ विषय पर केन्द्रित हैं।

मोदी-केजरीवाल संग देखते रहिए-The Great Indian political Drama!

ब्रेकिंग न्यूजः दिर्ल्लीे के कानून मंत्री फर्जी डिग्री मामले में गिरफ्तार

नदीम एस.अख्तर

jitendra tomar arrestedयानी केजरीवाल और मोदी के बीच की कड़वाहट चरम पर. नाक की लड़ाई. कानून मंत्री की गिरफ्तारी को अगर नजीर बना दें तो इस हिसाब से देश के कई माननीय जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए. राजनीति में जुबानी जंग तो होती रहती है, पब्लिक को दिखाने के लिए कमेटियां-जांच चलती रहती है लेकिन अगर उस पर वाकई एक्शन हो जाए, तो मतलब ये है कि दोनों पक्षों में अंदरूनी कटुता कूट-कूट कर भर गई है.

वरना हमाम में तो सब नंगे हैं. केजरीवाल की भी फजीहत तय है. जितना हाई मोरल ग्राउंड इस आदमी ने लिया था, उसके हिसाब से तो आरोप लगने के बाद उन्हें कानून मंत्री तोमर से बहुत पहले इस्तीफा ले लेना चाहिए था.

रही मोदी की बात. तो फर्ज कीजिए कि अगर केजरीवाल के पास आज ताकत होती कि वह मोदी सरकार के मंत्रियों को गिरफ्तार करवा सकते तो सोच लीजिए कि मोदी कैबिनेट के कौन-कौन मंत्री निशाने पर होते!! जिन पर आरोप लगे और जो छुट्टे घूम रहे हैं. उनसे कोई पूछताछ नहीं हुई, उनकी गिरफ्तारी तो दूर की बात है.

सो देश की राजनीति के इस नए अध्याय के मजे लीजिए. मूकदर्शक बनकर. हमने 5 साल के लिए जिन प्रतिनिधियों को चुनकर भेजा है, वे केंद्र की सत्ता और दिल्ली की सत्ता के बीच तालमेल नहीं बिठा पा रहे. सबको अपनी नाक की पड़ी है. उन्हें इसी तरह लड़ने दीजिए.

तू मेरी पैंट फाड़, मैं तेरी पैंट-शर्ट दोनों फाड़ दूंगा. देखते रहिए. The Great Indian political Drama!!!

@fb

भारतीय सिनेमा को कान फिल्मोत्सव में एक पायदान और ऊपर जाना है

अजीत राय

अजित राय

अजीत राय
अजीत राय

भारतीय सिनेमा के लिए सचमुच यह खुशी की बात है कि दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित कान फिल्मोत्सव के अधिकारिक चयन में इस बार दो फिल्में प्रदर्शित की गई, गुरविंदर सिंह की पंजाबी फिल्म ‘चौथी कूट’ और नीरज घायवान की ‘मसान’। यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि लगभग सोलह साल बाद किसी भारतीय फिल्म को कान में पुरस्कार मिला। 68 वें कान फिल्मोत्सव में शिरकत के बाद वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजित राय की रपट:

यह याद करना जरूरी है कि ‘मसान’ हिंदी की दूसरी फिल्म है जिसे कान फिल्मोत्सव में मुख्य खंड में अवॉर्ड मिला है। प्रथम कान फिल्मोत्सव-1946 में चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ को सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का अवॉर्ड मिला था। यों ‘मसान’ को दो पुरस्कार मिले हैं- ‘अन सर्टेन रिगार्ड’ खंड में ‘प्रॉमिसिंग फ्यूचर प्राइज’ के साथ फिल्म समीक्षकों के अंतरराष्ट्रीय संगठन का ‘इंटरनैशनल क्रिटिक्स प्राइज’ भी मिला। इस खुशी के बीच इस सचाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अभी भी भारतीय सिनेमा को कान में एक पायदान और ऊपर जाना है। कान फिल्मोत्सव के सबसे प्रतिष्ठित प्रतियोगिता खंड में शाजी एन. करुण की मलयालम फिल्म ‘स्वहम्’ (1994) के बाद किसी भारतीय फिल्म को स्थान नहीं मिल पाया है। फिलहाल तो दशकों बाद एक साथ दो भारतीय फिल्मों के कान में प्रदर्शित होने का जश्न मनाने का वक्त है। ‘मसान’ नीरज की पहली फिल्म है और ‘चौथी कूट’ गुरविंदर सिंह की दूसरी फिल्म है। उनकी पहली फिल्म ‘अन्हा घोड़े दा दान’ को कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। भारतीय सिनेमा के दो उभरते युवा फिल्मकारों का कान में जैसा स्वागत हुआ, वह अभूतपूर्व है।

भारतीय उपमहाद्वीप के लिए खुशी की बात यह भी है कि जिस फ्रेंच फिल्मकार की ‘दीपन’ को ‘पाम दि ओर’ यानी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवॉर्ड मिला, उसके प्रमुख दो कलाकार- जेसुदासन एंटनीदासन और कालीश्वरी श्रीनिवासन श्रीलंका और चेन्नई के हैं। ‘दीपन’ के निर्देशक षाक ओदियार हैं जिन्हें पहले भी ‘पाम दि ओर’ मिल चुका है। यह एक पूर्व तमिल टाइगर की कहानी है जो श्रीलंका के जाफना से शुरू होकर चेन्नई होते हुए फ्रांस और इंग्लैंड तक जाती है। ताइवानी फिल्म ‘द असैसिन’ के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार पाने वाले चीन के हो शाऊ शेन फ्रेंच और अंग्रेजी नहीं जानते। उन्होंने अपना भाषण चीनी में दिया। ‘दीपन’ के दोनों प्रमुख कलाकारों ने भी तमिल का सहारा लिया। क्या गुरविंदर सिंह और नीरज घायवान से हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे उसी भाषा में दर्शकों से संवाद करें जिस भाषा में वे फिल्में बनाते हैं।

भारत की ‘मसान’ और ‘चौथी कूट’ पर थोड़ा ठहर कर, पहले उन फिल्मों पर बात करें जो कान में कई वजहों से चर्चा में रहीं। इतालवी फिल्मकार पाऊलो सोरेंटिनो की अंग्रेजी फिल्म ‘यूथ’ सबसे अधिक चर्चा में रही। अभी की रिपोर्ट बताती है कि पिछले हफ्ते फिल्म इटली में रेकॉर्ड 2.6 मिलियन यूरो कमा चुकी है। दो साल पहले सोरेंटिनो की ‘द ग्रेट ब्यूटी’ को ऑस्कर पुरस्कार मिल चुका है। फ्रेंच निर्देशक गास्पर नोए की ‘लव’ को देखने के लिए आधी रात के बाद भी हजारों दर्शक घंटों कतार में खड़े रहे। इस अंग्रेजी फिल्म में इतने खुले सेक्स दृश्य हैं जितने अब तक किसी फिल्म में नहीं देखे गए।

आसिफ कपाड़िय़ा की ब्रिटिश फिल्म ‘एमी’ एक जमाने की चर्चित जैज सिंगर पर केंद्रित है। यह फिल्म कई कारणों से विवादों में आ गई है। एमी के पिता ने आरोप लगाया है कि यह फिल्म दर्शकों को गुमराह कर सकती है। कान फिल्मोत्सव की नई पार्टनर बनी केरिंग फाउंडेशन ने ‘विमेन इन मोशन’ प्रोग्राम के तहत फिल्म उद्योग में औरतों की बराबरी का मुद्दा उठा दिया है। केरिंग का दावा है कि दुनियाभर में फिल्मोद्योग में औरतें आज भी हाशिए पर हैं। इस पहल का परिणाम है कि कान फिल्मोत्सव ने मुख्य पोस्टर पर ख्यात अभिनेत्री इंग्रिड बर्गमैन को छापा गया और उनकी बेटी इसाबेला रोसेलिनी को ‘अन सर्टेन रिगार्ड’ की जूरी का अध्यक्ष बनाया गया। साथ ही फ्रेंच न्यू वेव आंदोलन और स्त्रीवाद की मुखर फिल्मकार एग्नेस वार्दा (87) को मानद ‘पाम दि ओर’ (लाइफ टाइम अचीवमेंट) पुरस्कार से नवाजा। पूरे फेस्टिवल में सिनेमा में स्त्री और स्त्री सिनेमा पर जोरदार डिबेट होती रही।

लास्जलो नेमेस की हंगेरियन फिल्म ‘सन आफ सोल’ को फेस्टिवल की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण फिल्म का ‘ग्रैंड प्रिक्स’ अवॉर्ड मिला। इस फिल्म को देखने के बाद कम-से-कम आधा घंटा सामान्य होने में लगता है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक नाजी बंदी शिविर में मार डाले गए दस बरस के अपने बेटे के अंतिम संस्कार के लिए पिता के दुघर्ष संघर्ष की कथा है यह। इतिहास के इस भयानक अध्याय के गैर पारंपरिक फिल्मांकन के लिए यह फिल्म हमेशा याद रहेगी।

‘मसान’ भारतीय सिनेमा में एक नया प्रस्थान है। अनुराग कश्यप के शिष्य होने के बावजूद जो चीज नीरज घायवान को अलग करती है, वह है ‘उम्मीद’। वे कला में जीवन की उम्मीद को बरकरार रखते हैं। कॉर्पोरेट की ऊंची नौकरी छोड़ ढाई साल अनुराग कश्यप के सहायक होने के बाद जिस पैशन से उन्होंने ‘मसान’ बनाई, वह काबिले-तारीफ है। परंपरा और आधुनिकता के बीच संस्कार करने वाले डोम परिवार से दीपक चौधरी जो पढ़-लिखकर आगे जाना चाहता है। फेसबुक के माध्यम से उसका इश्क ऊंची जाति की शालू गुप्ता से होता है। उधर, संस्कृत के रिटायर प्रोफेसर और घाट के पुजारी विद्याधर पाठक की बिन मां की इकलौती बेटी देवी पाठक अपने पहले प्रेमी के साथ होटल में पकड़ी जाती है। पुलिस के डर से उसका प्रेमी आत्महत्या कर लेता है। झोंटा नामक अनाथ बच्चा घाट पर बैठा बड़े सपने देखता है। चार चरित्र, चार दास्तानें… लेकिन फिल्म इतनी भर नहीं है। पूरी फिल्म बनारस की जिंदगी को रोमांटिक और आध्यात्मिक हुए बगैर यथार्थवादी ढंग से चलती है। शवों का दाह संस्कार कराने वाले परिवारों की जिंदगी से कर्मकांड कराने वाले पंडितों तक हम एक ताजा यथार्थ देखते हैं। संजय मिश्रा (विद्याधर पाठक), ऋचा चड्ढा (देवी पाठक), विक्की कौशल (दीपक चौधरी), निखिल साहनी (झोंटा) और विनीत कुमार (डोम) ने ऐसा काम किया है, जैसे ये सारे चरित्र उन्हीं के लिए बने हों। इस फिल्म को देखते हुए केदारनाथ सिंह की मशहूर कविता ‘बनारस’ की याद आना स्वाभाविक ही है:

इसी तरह भरता/और खाली होता है यह शहर/ इसी तरह रोज रोज एक अनंत शव/ ले जाते हैं कंधे/ अंधेरी गली से/ चमकती हुई गंगा की तरफ/ …यह आधा जल में है/ आधा मंत्र में/ आधा फूल में है/ आधा शव में/ आधी नींद में है/ आधा शंख में/ अगर ध्यान से देखो/ तो यह आधा है/ और आधा नहीं भी है…

टीवी टुडे नेटवर्क ने मार ली न्यूज़ 24 की पंचलाइन

tv todayसाल 2007-08 में दिल्ली मेट्रो की सीढ़ियों से उतरते हुए आपने गौर किया होगा कि चारों तरफ दैत्याकार किऑस्क लगे हैं जिनमे न्यूज़ चैनल की माइक से रोशनी निकल रही है..आपको उस वक्त समझने में थोड़ी दुविधा भी हुई होगी कि ये किसी बैटरी का विज्ञापन है या टॉर्च का..लेकिन नीचे की पंचलाइन पर नज़र जाते ही आप समझ जाते हैं कि ये न्यूज़ 24 नाम से बीएजी प्रोडक्शन की ओर से लांच किए जा रहे न्यूज़ चैनल का विज्ञापन है.
न्यूज़ मीडिया का ये वो दौर रहा है जब क्या एलियन गाय का दूध पीते हैं टाइप से चैनल पाट दिए गए थे..इस बीच ये चैनल खबर के दावे के साथ हमारे बीच आया..इसमें आजतक से छिटके और कुछ निकाल-बाहर किए गए दिग्गजों ने मिलकर एक टीम बनायीं थी और एस पी सिंह के दौर की पत्रकारिता की यूटोपिया रचने में लग गए थे…आगे अनुराधा प्रसाद की बंटाधार एंकरिंग नामा और चालीसा पत्रकारिता से इस चैनल का क्या हुआ,हम सब जानते हैं.

अब 2015 में इसी पंचलाइन से पूरे दिल्ली शहर को पाट दिया गया है और इसे देखने के लिए मेट्रो की सीढ़ियों से उतरने की नहीं,चढ़कर और कई बार गर्दन उचकाकर देखने की ज़रूरत पड़ती है. इस बार न्यूज़ वापस लाने का कारनामा इंडिया टुडे नाम का वो चैनल करने जा रहा है जिसका पुराना नाम हेडलाइंस टुडे हटाकर पत्रिका के नाम पर रखा गया है.

अलग से कहने की ज़रूरत नहीं कि news is back ये पंचलाइन चैनल ने न्यूज़ 24 से मार ली है. लेकिन यहाँ सवाल कुछ और हैं. हर साल-छह महीने में किसी न किसी चैनल को विज्ञापन की शक्ल में खबर की वापसी के नगाड़े पीटने की ज़रूरत पड़ती है, न्यूज़ मीडिया के लिए इससे बकवास बात और क्या हो सकती है..आपको अपने ही पहले के काम का मजाक उड़ाने की ज़रूरत पड़ जाए, डिमीन और पूरी तरह रिजेक्ट करने की ज़रूरत पड़ जाए,इससे खराब बात और क्या हो सकती है. आपको 10-12 साल में अपने पुराने नाम के चैनल की कोई ऐसी स्टोरी इतनी दमदार नहीं लगती है कि आप उसकी दम पर ब्रांडिंग कर सकें तो इससे ज़्यादा दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है?

रही बात सर्कस के बंद हो जाने की तो बिना मदारी के बदले, सर्कस कभी बंद हो सकते हैं क्या ? …और एक-दो मदारी की जगह एंकर जुटा भी लिए गए हैं तो इससे सर्कस की क्वालिटी बेहतर हो सकेगी, चैनल की तो हरगिज नहीं…आखिरी बात,चैनल जिस तरह से सर्कस का मज़ाक उड़ा रहा है,कभी उसकी प्रोफेशनलिज्म पर गौर करे तो अफ़सोस ही होगा कि काश हम भी ऐसा कर पाते.

@fb

आजतक का बांग्लादेश ज्ञान !

manogyaभारत के प्रधानमंत्री बांग्लादेश के दौरे पर थे तो न्यूज़ चैनलों पर बांग्लादेश-ही-बांग्लादेश … इसी संदर्भ में नंबर एक का दावा करने वाले  चैनल आजतक पर बांग्लादेश के इतिहास और वर्तमान पर कई रिपोर्ट दिखाई गयी. इन्हीं रिपोर्ट में से एक पर पर आजतक के एक दर्शक ने ऊँगली उठाई है .उन्होंने तथ्यात्मक त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाते हुए लिखा है – Salmond Eyes <salmondeyes@gmail.com>

Dear Sir,

Today, Sunday 7th June, at 9:36 PM in Aaj Tak’s Vishesh programme, Bangladesh was described as a Muslim Rashtra in a story.

Again at 9:44 PM Bangladesh was described as Muslim Rashtra in the same programme by anchor Manogya.

Entire world knows that Bangladesh is a secular country by constitution.

I didn’t expect such a major blunder on PM visit by my favorite channel Aaj Tak.

Please look into it.

An Aaj Tak fan.

सोशल मीडिया पर मीडिया खबर

665,311FansLike
4,058FollowersFollow
3,000SubscribersSubscribe

नयी ख़बरें