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केजरीवाल मीडिया मालिकों की आँख की किरकिरी यूँ ही नहीं हैं

केजरीवाल बोलते अच्छा है लेकिन काम ?
केजरीवाल बोलते अच्छा है लेकिन काम ?

पंकज श्रीवास्तव,पत्रकार

पत्रकारों का पैसा मारने वाले मालिकों को तीन साल की जेल का क़ानून पास !….ख़बर ग़ायब.!!. विधायकों के वेतन के फ़र्ज़ी आँकड़े बताने में जुटा मीडिया !!!

लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य की अध्यक्षता में बनी तीन सदस्यीय विशेषज्ञ कमेटी की सिफारिश को दिल्ली विधानसभा ने अपनी मंज़ूरी दे दी जिसके बाद विधायकों का वेतन 12 हजार से 50 हज़ार रुपये महीना हो जायेगा। यही वह वेतन है जो वह अपने घर परिवार पर ख़र्च करेगा। बाक़ी तमाम भत्ते हैं जो किसी निश्चित मद में खर्च होने के एवज़ में दिए जाएंगे। जैसे अपने दफ्तर के चार सहायकों के वेतन के लिए अधिकतम तीस हज़ार रुपये महीने। लेकिन ऐसे तमाम भत्तों को जोड़कर और शायद गाड़ी के लिए लिए जाने वाले लोन को भी जोड़कर मीडिया विधायकों का वेतन ढाई लाख बताने पर जुटा है।
यहाँ तक कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी के वेतन से ज़्यादा पाएंगे दिल्ली के विधायक (वैसे, न्यूज़ चैनलों के हर संपादक की तनख्वाह इससे ज्यादा है), लेकिन अगर इसी तरह माननीय मोदी के वस्त्र, प्रसाधन, यात्राओं और भोज आदि पर होने वाले खर्च को उनके वेतन पर जोड़ दिया जाए तो कितना वेतन हो जाएगा, कोई यह बताने को तैयार नहीं है। (पिछले दिनों मोदी जी पर हर सेकेंड 10,300 रुपये खर्च की जानकारी आई थी।)
इस पर निश्चित ही चर्चा होनी चाहिए कि विधायकों को कितनी तनख्वाह मिलनी चाहिए। किसी को आचार्य कमेटी की सिफ़ारिशें ग़लत भी लग सकती है, लेकिन तरीक़ा एक ही है कि कोई विशेषज्ञ कमेटी ही इस बाबत फैसला करे। जैसे कर्मचारियों के वेतन के बारे मे वेतन आयोग करता है। दिल्ली में इस तरह का प्रयोग पहली बार हुआ है। वरना विधायक और सांसद अपनी तनख्वाह खुद बढ़ा लेने की तोहमत हमेशा झेलते रहेंगे।

अतीत और वर्तमान के कई नेता, विधायक और मंत्री ऐसे हो सकते है जो बिना एक पैसा वेतन लिए जनहित पर करोड़ों फूँकते रहे हों या फूँक रहे हों। लेकिन उनके दफ्तरों में अनवरत मिलने वाली चाय-मिठाई के लिए हलवाई को बाक़ायदा पैसा दिया जाता है और उनके कारवाँ में शामिल गाड़ियाँ पानी से नहीं चलतीं। ऐसी विभूतियों की अंटी सिर्फ़ भ्रष्टाचार की लूट से लाल रहती है, यह जानने के लिए ज़्यादा अक़्लमंद होने की ज़रूरत नहीं है।

यह संयोग नही है कि दिल्ली विधायकों की तनख्वाह को ढाई लाख बताने पर जुटे मीडिया ने यह खबर गायब कर दी है कि पत्रकारों को न्यूनतम वेतन न देने वाले मीडिया मालिकों को पचास हजार जुर्माना और तीन साल की जेल का कानून भी दिल्ली विधानसभा ने पारित कर दिया है। केजरीवाल मीडिया (मालिकों) की आँख की किरकिरी यूँ ही नहीं हैं।
(साभार-फेसबुक)

सड़क से लेकर संसद तक असहिष्णुता

संजय द्विवेदी

सड़क से लेकर संसद तक असहिष्णुता की चर्चा है। बढ़ती सांप्रदायिकता की चर्चा है। कलाकार, साहित्यकार सबका इस फिजां में दम घुट रहा है और वे दौड़-दौड़कर पुरस्कार लौटा रहे हैं। राष्ट्रपति से लेकर आमिर खान तक सब इस चिंता में शामिल हो चुके हैं। भारत की सूरत और शीरत क्या सच में ऐसी है, जैसी बतायी जा रही है या यह ‘आभासी सांप्रदायिकता’ को स्थापित करने के लिए गढ़ा जा रहा एक विचार है। आज के भारतीय संदर्भ में पाश्चात्य विचारक मिशेस फूको की यह बात मौजूं हो सकती है जो कहते हैं कि “विमर्श एक हिंसा है जिसके द्वारा लोग अपनी बात सही सिद्ध करना चाहते हैं।”
भारत जिसे हमारे ऋषियों, मुनियों, राजाओं, महान सुधारकों, नेताओं और इस देश की महान जनता ने बनाया है, सहिष्णुता और उदात्तता यहां की थाती है। अनेक संकटों में इस देश ने कभी अपने इस नैसर्गिक स्वभाव को नहीं छोड़ा। तमाम विदेशी हमलों, आक्रमणों, 1947 के रक्तरंजित विभाजन के बावजूद भी नहीं। यही हिंदु स्वभाव है, यही भारतीय होना है। यहां सत्ता में नहीं, समाज में वास्तविक शक्ति बसती है। सत्ता कोई भी हो, कैसी हो भी। समाज का मन निर्मल है। वह सबको साथ लेकर चल सकने की क्षमता से लैस है। यही राम राज्य की कल्पना है। जिसे महात्मा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक एक नारे या सपने की तरह इस्तेमाल करते हैं। राम राज्य जुमला नहीं है, एक ऐसी कल्पना है जिसमें लोकतंत्र की औदार्यता के दर्शन होते हैं। रामराज्य दरअसल भारतीय राज्य का सबसे बड़ा प्रतीक है। जहां तुलसीदास कृत रामचरित मानस में उसकी व्याख्या मिलती है-
सब नर चलहिं परस्पर प्रीती
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।
हमारी परंपरा सिर्फ गौरवगान के लिए नहीं है बल्कि वास्तव में इन्हीं भावों से अनुप्राणित है। वह सबमें प्रेम और सद्भावना तो चाहती है और आपको आपके ‘स्वधर्म’ पर चलने के लिए प्रेरित भी करती है। किंतु लगता है कि एक झूठ को सौ बार बोलकर उसे सच बना देने वाली ताकतों का भरोसा अभी भी टूटा नहीं है। वे निरंतर इस महादेश को जिसके समानांतर पूरी कम्युनिस्ट दुनिया और पूरी इस्लामी दुनिया के पास कोई देश नहीं है, को लांछित करना चाहती हैं। राज्य के खिलाफ संघर्ष को वे देश के खिलाफ संघर्ष में बदल रही हैं। एक नेता से उनकी नफरत उन्हें अपने देश के खिलाफ षडयंत्र करने की प्रेरणा बन गयी है। आखिर इस देश में मर्ई,2014 के बाद ऐसा क्या घटा, जिसे लेकर ये इतने संवेदनशील और बैचैन हैं।

इस देश की बन रही वैश्चिवक छवि को मटियामेट करने के ये यत्न संदेह जगाते हैं। पुरस्कार वापसी के सिलसिले स्वाभाविक नहीं लगते, क्योंकि इनकी टाइमिंग पर सवाल पहले दिन से उठ रहे हैं। देश का प्रधानमंत्री इस देश के लोगों से शक्ति पाकर सत्ता तक पहुंचता है। मोदी भारतीय लोकतंत्र का परिणाम हैं। क्या आप जनता के द्वारा दिए गए जनमत को भी नहीं मानते। नरेंद्र मोदी को मिले जनादेश को न स्वीकारना और उन्हें काम करने के अवसर न देना एक तरह का अलोकतांत्रिक प्रयत्न है। एक गरीब परिवार से आकर, अपनी देश की भाषा में बोलते हुए नरेंद्र मोदी ने जो कुछ अर्जित किया है, वही इस देश के लोकतंत्र का सौंदर्य है। नरेंद्र मोदी को लांछित करने वाले यह भूल जाते हैं कि हर तरह के विरोधों और षडयंत्रों ने मोदी को शक्तिमान ही बनाया है। देश की जनता को ये उठाए जा रहे भ्रम प्रभावित करते हैं। लोग पूछने लगे हैं कि आखिर असहिष्णुता कहां है भाई? दुनिया के पैमाने पर हो रही तमाम घटनाएं हमारे सामने हैं। इस रक्तरंजित दुनिया को शांति की राह दिखाने वाले देश भारत को लांछित करने का कोई कारण नहीं है। भारत और उसका मन विश्व को अपना परिवार मानने की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से ओतप्रोत है। यह भारत ही है जिसने विविधता और बहुलता को आचरण में लाकर विश्व मानस को प्रभावित किया है। हमारे तमाम देवी- देवता और प्रकृति के साथ हमारा संवाद, चार वेद, दो महाकाव्य-रामायण और महाभारत, अठारहों पुराण और एक सौ आठ उपनिषद इसी विविधता के परिचायक हैं। इस विविधता को स्वीकारना और दूसरी आस्थाओं का मान करना हमें हमारी जड़ों से मिला है। इसीलिए हम कहते हैं-
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं,
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नं।

यानि अठारहों पुराणों में व्यास जी दो ही बातें कहते हैं, परोपकार पुण्य है और पाप है दूसरों को कष्ट देना। यानि भारत का मन पाप और पुण्य को लेकर भ्रम में नहीं है। उसे पता है कि दूसरों को जगह देना, उन्हें और उनकी आस्था को मान देना कितना जरूरी है। वह जानता है कि विविधता और बहुलता को आदर देकर ही वह अपने मानबिंदुओं का आदर कर पाएगा। किंतु यह उदार संस्कृति अगर साथ ही, यह भी चाहती है कि हम तो आपकी आस्था का मान करते हैं आप भी करेगें तो अच्छा रहेगा, तो इसमें गलत क्या है? परस्पर सम्मान की इस मांग से ही आप सांप्रदायिक धोषित कर दिए जाते हैं। यह कहां की जिद है कि आप तो हमारे विचारों का, आस्था का मान करें किंतु हम आपके मानविंदुओं और आस्था का विचार नहीं करेगें। अगर ऐसा होता तो क्या अयोध्या में राममंदिर के लिए मुकदमा अदालत में होता। कभी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेता सैय्यद शहाबुद्दीन ने कहा था कि यह प्रमाणित हो जाए कि कि बाबरी ढांचे के नीचे कोई हिंदू मंदिर था तो वे इस पर दावा छोड़ देगें। आज अदालत प्रमाणित कर चुकी है कि यह राम जन्मभूमि है। किंतु विरोधी पक्ष सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा है। गाय को लेकर भी जैसी गलीज बहसें चलाई गयीं, वह यही बताती हैं। सहिष्णुता का पाठ पढाने वालों को इतना ही देखना लेना चाहिए कि इस हिंदु बहुल देश में भी कश्मीरी हिंदुओं को विस्थापन झेलना पड़ा। इस पाप के लिए माफी कौन मांगेगा?

जाहिर तौर पर एक शांतिप्रिय समाज को, एक समरसतावादी समाज को जब आप बार-बार लांछित करते हैं, तो जरूरी नहीं कि उसे यह अच्छा ही लगे। हिंदु मन प्रतिक्रियावादी मन नहीं है। उसे दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार रखना ही है, भले ही अन्य उसके साथ कैसा भी आचरण करें। इस मन को खराब मत कीजिए। पेड़, पौधों, नदियों, मंदिरों, मजारों, गुरूद्वारों सब जगह मत्था टेकता यह भारतीय मन है, इसे आहत मत कीजिए। यह तो गायों, कौवों, कुत्तों का भी विचार करता है, खाने के लिए उनके लिए हिस्सा निकालता है। उसे असहिष्णु मत कहिए। उसने गोस्वामी तुलसीदास की वाणी-

परहित सरिस धरम नहीं भाई,
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।
को आत्मसात किया है। उसे पता है कि दूसरों को पीड़ा देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। इसलिए उसके हाथ गलत करते हुए कांपते हैं। उसके पैर भी यह विचार करते हैं कि कोई चींटी भी उसके पैरों तले ना आ जाए। इसलिए उसकी इस सदाशयी वृत्ति, परोपकार चेतना, दान शीलता, सद्भावना, दूसरों की आस्थाओं को सम्मान देने की भावना का मजाक मत बनाइए। इस देश को नेताओं और राजनीतिक दलों ने नहीं बनाया है। यह राष्ट्र ऋषियों और मुनियों ने बनाया है। पीर-फकीरों ने बनाया है, उनकी नेकनीयती और दिनायतदारी ने बनाया है। राजसत्ता यहां बंटी रही, राजाओं के राज बंटे रहे किंतु भारत एक सांस्कृतिक प्रवाह से अपनी महान जनता के आत्मविश्वास में कायम रहा है। इसीलिए हम कह पाए-

हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम् ।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षयते ।।
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रिश्चैव दक्षिणम् ।
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति: ।।
इसलिए उनसे इस तर्क का कोई मतलब नहीं है जो यह मानते,लिखते और कहते हैं कि यह राष्ट्र तो टुकड़ों में बंटा था और 1947 में अंग्रेज हमें इसे एक करके दे गए। ये वे लोग हैं जो न देश को समझते हैं, न इसके इतिहास को। जिन्हें इस राष्ट्र की अस्मिता को लांछित करने, इसके इतिहास की विकृत व्याख्याओं में ही आनंद आता है। उन्हें सारे गुण और गुणवान इस देश की घरती के बाहर ही नजर आते हैं। ऐसे जानबूझकर अज्ञानी बनी जमातों को हम हिंदुस्तान समझा रहे हैं। उसकी रवायतों और विरासतों को समझा रहे हैं, तो यह होने वाला नहीं हैं। आज राजनीतिक रूप से ठुकराई जा चुकी ताकतों द्वारा सम्मानित ‘रायबहादुरों’ की इस पुरस्कार वापसी पर बहुत चिंता करने की जरूरत नहीं हैं। क्योंकि इन्हीं के लिए ईसा ने कहा था- “हे प्रभु इन्हें माफ करना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।“

(लेखक मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

पत्रकारिता विश्वविद्यालय में देश का पहला संविधान दिवस आयोजित

प्रेस विज्ञप्ति

मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष श्री सीतासरन शर्मा का कहना है कि संसद व विधानसभाओं का महत्व बनाए रखने से ही संविधान के उद्देश्यों व लोकतंत्र की गरिमा बढ़ेगी। आज संसद में नारेबाजी होती है और सड़कों पर बहस होती है, यह आज की विसंगति है। जबकि संसद में बहस और विमर्श ही हमारे लोकतंत्र का प्राण है।

श्री शर्मा आज माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय द्वारा संविधान दिवस के अवसर पर आयोजित व्याख्यान में मुख्य अतिथि के रूप में बोल रहे थे। उन्होंने ‘भारतीय संविधान: नागरिक के दायित्व और अधिकार’ विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि जब धर्म की व्यवस्था में हम परिवर्तन कर सकते हैं, तो समयानुकूल संवैधानिक परिवर्तन भी आवश्यक है, उन्हें टाला नहीं जा सकता है। परिवर्तन जीवन का नियम है। जहाँ तक संविधान का सवाल है तो परिस्थिति एवं सामाजिक परिवर्तन के मद्देनजर अमेरिका में जहाँ 200 वर्षों में 27 संविधान संशोधन हुए हैं, वहीं हमारे देश में आजादी के बाद अभी तक 100 संविधान संशोधन हो चुके हैं। उन्होंने कहा कि सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधान को संचालित करने वाले योग्य व्यक्ति हों और वह संविधान की मंशा के अनुरूप प्रावधनों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करे। उन्होंने कहा कि आज देश दिशा पकड़ने की ओर अग्रसर है। इसमें युवाओं की महती भूमिका होगी। संविधान में समाजवाद के नाम पर निहित छद्म समाजवाद से हमें बचना होगा। तभी हम बाबा साहब अम्बेडकर की परिकल्पनाओं को मूल रूप से साकार कर पाएँगे।

श्री शर्मा ने कहा कि भारत का संविधान दुनिया में विशिष्ट माना जाता है। डॉ. आम्बेडकर ने कहा था कि संविधान कितना भी अच्छा बना लो यदि उसे चलाने वाले लोग अच्छे नहीं होंगे तो वह चल नहीं सकता है। संविधान में जन आवश्यकताओं एवं बदली हुई परिस्थिति के अनुरूप अनेक परिवर्तन भी किये गये। आपातकाल के दौरान संविधान में ‘सोशलिस्ट’ एवं ‘सेक्यूलर’ शब्द जोड़ा गया जो उचित नहीं है। यह प्रावधान तो संविधान में पहले से ही समाहित था। उन्होंने कहा कि संविधान में हम भारत के लोग, कहा गया है। परन्तु आज ‘हम’ का स्थान ‘एनजीओ’ ने ले लिया है जो ठीक नहीं है। आज ज्यादातर याचिकायें नागरिकों द्वारा नहीं बल्कि ‘एनजीओ’ द्वारा लगाई जा रही हैं। उन्होंने पत्रकारिता के विद्यार्थियों से कहा कि भविष्य में ‘लोकतंत्र का चैथा स्तंभ’ सबसे अधिक शक्तिशाली होगा। आप लोगों को बहुत जिम्मेदारी के साथ अपने दायित्वों का निर्वहन करना होगा।

समारोह के मुख्य वक्ता हरियाणा एवं पंजाब उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश डॉ. भारत भूषण प्रसून ने कहा कि भारत के संविधान का सम्बन्ध भारतीयों की अंतरात्मा से है। संविधान हमारे जीवन के अंग-अंग से जुड़ा है। संविधान भारतीयों के सपनों को संजोये हुये है। इसे व्यक्ति की आवश्यकता के अनुरूप ढाला गया है। भारतीय संविधान को समझने के लिये हमें संविधान के पीछे छिपे उसके मूल भाव को समझना होगा। न्यायमूर्ति प्रसून ने कहा कि 26 नवंबर, 1949 को भारत के संविधान को अंगीकार किया गया। 1979 से डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी की पहल पर यह दिन कानून दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की घोषणा के बाद यह दिवस संविधान दिवस के रूप में भी मनाये जाने का निर्णय लिया गया है।

उन्होंने बताया कि भारतीयता का भारतीय संविधान के साथ एक अटूट बन्धन है। संविधान निर्माताओं ने संविधान की प्रस्तावना में हम भारत के लोग, उल्लेखित किया। संविधान में इस देश के नागरिकों के दायित्वों को भी उल्लेखित किया गया है और इन दायित्वों के निर्वहन के लिये उसे अधिकार भी देता है। संविधान ही देश के सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यक्ति को यह अवसर प्रदान करता है कि वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया से देश का सर्वोच्च पद हासिल कर सकता है। अंग्रेजों की अवधारणा थी कि भारतीय अपना संविधान नहीं बना सकते हैं और यदि बना भी लें तो उसे चला नहीं सकते हैं। हमारे संविधान निर्माताओं और देश के प्रत्येक नागरिक ने अंग्रेजों के इस दावे को गलत साबित किया। हमारे देश के संविधान के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि हमने विभिन्न देशों के संविधान से अनेक प्रावधानों को लेकर भारत का संविधान बना लिया। संविधान निर्माता डॉ. आम्बेडकर ने कहा कि हमने दुनिया के संविधानों से किन्हीं प्रावधानों को चुराया नहीं है बल्कि उन्हें भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल डालकर अंगीकार किया है। हमारे संविधान का एक अनूठा पहलू लचीलापन है। अमेरिका के संविधान में अब तक न्यूनतम संशोधन हुए हैं जबकि हमारे देश में 100 संशोधन हो चुके हैं। इसके पीछे मूल भाव यह है कि हम समय एवं परिस्थितियों के अनुसार नागरिकों के हित में संविधान में संशोधन करते रहते हैं। संविधान में देश की महिलाओं एवं कमजोर वर्गों को भी संरक्षण देने का प्रावधान किया गया है जो एक अनूठा पहलू है एवं दुनिया के किसी और देश में नहीं है।

अध्यक्षीय संबोधन में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि संविधान देश के नागरिकों को अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का अधिकार प्रदान करता है और जन इच्छाओं के अनुरूप ही संविधान में संशोधन भी किये जाते हैं। जब हमारे पास लिखित संविधान नहीं था तब भी हमारा राष्ट्र किसी न किसी विधान पर चलता था और उस समय प्रकृति के नियम पर चलना ही विधान माना जाता था। संविधान में कई कमियां हो सकती हैं परन्तु उसके बाद भी यह सर्वश्रेष्ठ है। संविधान में किये गये प्रावधानों पर चलकर ही भारत विश्व को नेतृत्व प्रदान करेगा।

कार्यक्रम में विश्वविद्यालय कुलाधिसचिव श्री लाजपत आहूजा, कुलसचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी, वरिष्ठ पत्रकार सर्वश्री सर्वदमन पाठक, शिवहर्ष सुहालका, जी. के. छिब्बर, सरमन नगेले, महेन्द्र गगन, सुरेश गुप्ता, शाकिर नूर, डॉ. रामजी त्रिपाठी, साकेत दुबे सहित विश्वविद्यालय के शिक्षक, अधिकारी, कर्मचारी, विद्यार्थी एवं नगर के गणमान्य नागरिक उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।

आउटलुक पत्रिका की फजीहत,मांगी राजनाथ से माफ़ी

आउटलुक का वार्षिकांक,इलायची की खुशबू और कंडोम का भ्रम!
आउटलुक का वार्षिकांक,इलायची की खुशबू और कंडोम का भ्रम!

आउटलुक पत्रिका में गृहमंत्री राजनाथ सिंह का बयान छपा और उसपर संसद में हंगामा भी मच गया. लेकिन अब बात सामने आ रही है कि ऐसा कोई बयान कभी राजनाथ सिंह ने दिया ही नहीं और बयान प्रकाशित करने वाली पत्रिका आउटलुक ने अपनी गलती भी मान ली है. इस संबंध में पत्रिका के वेब संस्करण में माफीनामा प्रकाशित किया गया है. ‘

दरअसल, कल सीपीएम सांसद मोहम्मद सलीम ने आउटलुक का हवाला देते हुए आरोप लगााया था कि राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री की लोकसभा जीत के मामले में एक बयान में कहा था कि देश को 800 साल बाद हिंदू शासक मिला है.

लेकिन राजनाथ सिंह ने इसे बेबुनियाद बताते हुए चुनौती दी थी कि यदि यह बयान सही है तो ऐसा बयान देने वाले को गृह मंत्री पद पर नहीं होना चाहिए और यदि यह गलत पाया जाता है तो आरोप लगने वाले मोहम्मद सलीम माफी मांगें.

इस हंगामें के बाद ‘आउटलुक’ ने स्वीकार किया कि उसने राजनाथ के नाम से गलत बयान प्रकाशित किया. पत्रिका ने गलत बयान प्रकाशित करने के लिए राजनाथ सिंह और मोहम्मद सलीम से माफी मांगी.

दरअसल पत्रिका के रिपोर्टर प्रणय शर्मा ने असहनशीलता पर अपनी कवर स्टोरी में लिखा, “मौजूदा विवाद एक उलझा हुआ मसला है. इस पर 800 साल में बने पहले हिन्दू शासक की मुहर है (मोदी की जीत पर केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह का बयान)”…

सियासी बिसात पर संविधान और आंबेडकर भी प्यादा बन गये

इतिहास के पन्नों के आसरे जिस तरह की कवायद संसद के भीतर राजनीतिक दलों ने की उसने झटके में यह एहसास तो करा ही दिया कि राजनीतिक दलों की समूची विचारधारा अब सत्ता ही है। यानी सत्ता के लिये आंबेडकर। सत्ता में बने रहने के लिये अंबेडकर। संविधान की प्रस्तावना में लिखे शब्द ,’ हम भारत के लोग ‘ को जबाव ना दे पाने के हालात में बेडकर और इतिहास का सहारा। कही इतिहास को हथियार बनाकर सामने वाले पर चोट तो कभी अपने लिये ढाल।संसद की बहस ने कई सवालो ने दो दिन में जन्म दे दिया । कभी लगा संघ परिवार हो या बीजेपी दोनो के भीतर आंबेडकर को लेकर जो प्रेम और श्रध्दा उभरी है वह सिर्फ संविधान निर्माता के तौर पर नहीं बल्कि सियासी तौर पर कही ज्यादा है । तो कभी लगा कांग्रेस आजादी के वक्त की कांग्रेस को भी मौजूदा कांग्रेस की ही तर्ज पर देखना चाह रही है । कभी लगा संसद के लिये अब देश के नागरिक मायने नहीं रखते बल्कि सांसद और सरकार या फिर सत्ता और संविधान ही नागरिक है । हम भारत के लोग हैं। याद कीजिये एक वक्त कांग्रेस को सरमायेदारो की सरकार कहा जाता था। टाटा, बिरला और डालमिया इन्ही तीनों का नाम तो काग्रेस से जुडता था । जनसंघ के साथ बडे सरमायेदार कभी नहीं आये । सिर्फ व्यापारी तबका साथ रहा । तो राजनीति के व्यवसायिकरण में भी एक तरह का चैक-एंड बैलेंस रहा । और एक वक्त मुस्लिम लीग के साथ रिपब्लिकन पार्टी खडी हुई तो देश ने, ‘जाटव-मुस्लिम भाई भाई , काफिर कौम कहा से आई ‘ के नारे भी सुने और तब कांग्रेस को भी समझ नहीं आया कि सियासी रास्ता जायेगा किधर । लेकिन मौजूदा दौर तो छोटे-बडे व्यवसाय से कही आगे निकलकर कारपोरेट, विदेशी पूंजी और देश की खनिज संपदा की लूट में हिस्सेदारी से जा जुडा है तो सियासत विचार को तिलांजलि देकर आंबेडकर के नाम पर जो मथना चाहती है वह तो मथा नहीं जा रहा उल्टे जहर ज्यादा निकल रहा है । क्योंकि सत्ता, सियासत, सरकार और संविधान के नाम पर सरमायेदारो की भागेदारी से राजनेता चकाचौंध है । इसीलिये मौजूदा सियासत की महीन लकीर को समझे तो सवाल सिर्फ दलितो के मसीहा आंबेडकर को नयी पहचान देकर अपने भीतर समाहित करने भर का नहीं है । सवाल नेहरु पर हावी किये जाते सरदार पटेल का भी है । सवाल गांधी जयंती को स्वच्छता दिवस के तौर पर मनाने का भी है ।

सवाल शिक्षक दिवस को पीएम का बच्चो से संवाद दिवस बनाने का भी है । सवाल नेहरु और इंदिरा गांधी की जयंती को सरकारी कार्यक्रमो में भुलाया जाना भी है । यानी काग्रेस जिन प्रतिको के माध्यमों से राष्ट्र की कल्पना को मूर्त करती आई है उसे मोदी सरकार के दौर में अगर डिगाया जा रहा है तो राजनीतिक तौर पर यह सवाल हो सकता है कि क्या बीजेपी नये प्रतीकों को गढना चाह रही है। तो लड़ाई सीधी है तो क्या सडक क्या संसद। सोनिया गांधी भी आंबेडकर का आसरा लेकर यह कहने से नहीं कि जिन्हें संविधान से कोई मतलब नहीं रहा वह संविधान पर चर्चा करा रहे है। यानी उन पन्नो को सोनिया गांधी ने खोल दिया जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिये सरदार पटेल ने संघ से संविधान पर भरोसा जताने की बात कही थी। अन्यथा आरएसस के ख्याल में तो उस वक्त भी मनुस्मृति से बेहतर कोई संविधान था ही नहीं । तो सवाल है कि क्या मौजूदा वक्त में सियासी बिसात पर संविधान और संविधान निर्माता आंबेडकर को ही प्यादा बनाकर चाल चली जा रही है। या फिर सियासी बिसात इतनी बडी हो चुकी है कि देश चले कैसे इसके लिये संविधान नहीं सत्ता की जरुरते बडी हो चुकी है । क्योकि सोनिया गांधी ने वहीं किया जो हर दौर की राजनीति कर सकती है.

यानी अतीत के जो शब्द मौजूदा वक्त में अनुकुल है उन शब्दो को चुनकर इतिहास का जिक्र कर खुश हुआ जाये। जाहिर है बीजेपी संविधान बनाते वक्त बनी नहीं थी और जनसंघ भी बाद में बनी लेकिन कांग्रेस ने जिस तरह 1935 के कानून का पहले विरोध किया और फिर इसी के तहत चुनाव भी लडे और कानून को भी यह कहकर अमल में लाये कि हम इसे भीतर जाकर तोड़ेंगे। लेकिन नेता खुद टूटे और संघर्ष के मार्ग से हटाकर संविधान को सुधारवादी मार्ग पर ठेल दिया गया । ऐसा भी नहीं है कि आंबेडकर इसे समझ नहीं रहे थे उन्होंने बाखूबी समझा और कहा भी 1935 के कानून से पहले भारत ब्रिट्रीश सरकार की संपत्ति थी और 1935 के कानून में भारत की संपत्ति और देनदारी दो हिसेसो में बंट गई। एक हिस्सा केन्द्र का दूसरा प्रांत का । यानी सेकेट्रेरी आफ स्टेट के बदले संपत्ति-देनदारी बादशाह सलामत के हाथ में आ गई । और ध्यान दे तो मौजूदा सियासत उसी राह पर पहुंच चुकी है क्योंकि पीएम हो या राज्यो के सीएम उनकी हैसियत उनके जीने के तरीके किसी बादशाह से कम नहीं है। आलम तो यह भी है कि अब महाराष्ट्र के सीएम अपने लिये एक करोड की बुलेट प्रूफ गाड़ी खरीद रहे हैं। जबकि मुंबई हमलो के वक्त मुंबई पुलिस के पास बुलेट प्रूफ जैकेट तक नहीं थी। और आज भी नहीं है।

इन हालातों से आंबेडकर वाकिफ तब भी थे । इसलिये इतिहास में इसका भी जिक्र है कि जब 13 दिसबंर 1946 को नेहरु संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यो के बारे में अपना प्रस्ताव पेश किया तो आंबेडकर ने उसकी आलोतना करते हुये कहा , ‘समाजवादी के रुप में नेहरु की जो ख्याती है उसे देखते हुये यह प्रसताव निराशाजनक है । ‘ दरअसल आंबेडकर ने इसके बाद विस्तार के साथ संविधान के उद्देश्यों का जो जिक्र किया संयोग से वह आज भी अधूरे है । क्योकि आंबेडकर ने तीन बाते रखी पहली देश में सामाजिक आर्थिक न्याय हो । दूसरी उघोग-धंधो और भूमि का राष्ट्रीयकरण हो । तीसरी समाजवादी अर्थतंत्र अपनाया जाये जाहिर है वोट देने की बराबरी के अलावे असमानता का भाव समाज में रहेगा उसका अंदेशा आंबेडकर को तब भी था । इसलिये वह सवाल भी खडा करते थे कि अंग्रेजो के बनाये संवैधानिक मार्ग से हटकर क्या कोई दूसरा रास्ता है, जिसपर चलने से देश अपना आर्थिक और राजनीतिक विकास कर सकता था । आंबेडर के बारे में इसी लिये कहा गया कि वह काम संविधानवादी की तरह करते लेकिन सोचते क्रातिकारी की तरह । जो नेहरु नहीं थे । तो क्या इसीलिये संविधान की मूल धारणा से ही हर सत्ता भटक गई । क्योकि संविधान के प्रस्तावना में तो , “वी द पीपुल..फार द पीपल …बाय द पीपल “ का जिक्र है । लेकिन संविधान की व्याख्या करते करते काग्रेस और बीजेपी ने अपने इतिहास को इस तरीके से सहेजना शुरु किया कि सामने वाला कटघरे में खडा हो जाये । लेकिन जनता का कोई जिक्र कही नहीं हुआ । किसी ने नहीं कहा कि देश की मौजूदा हालात में तो करीब बीस करोड लोगो को दो जून की रोटी तक मुहैया नहीं है । इतना ही नहीं सरकार की तरफ से जब यह आंकडा जारी किया गया कि देश में नब्बे लाख लोगो के पास एक अदद छत तक नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट ने 12 दिसबंर 2014 को सरकार से कहा कि आप दोबारा आंकडे दिजिये । यानी देश के हालात बद से बदतर है । और सरकारी आंकडों को लेकर ही भरोसा संवैधानिक संस्थाओ का डिगा हुआ है । यू संविधान ही नहीं बल्कि महात्मा गांधी ने तो आजादी का मतलब ही रोटी कपडा मकान से जोडा और सविधान सभा में अपनी बात भी पहुंचायी कि शिक्षा और पीने का साफ पानी तो सभी को मिलना चाहिये । लेकिन खुद सरकार के आंकडे कहते है कि देश में 30 करोड़ लोग कभी स्कूल नहीं गए और आज भी 6 से 11 साल उम्र के 14 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूल से बाहर हैं। बासठ फीसदी गांव तक पीने का साफ पानी आजतक नहीं पहुंचा है । फिर दिलचस्प यह भी है कि लोगों की बुनियादी जरुरतें पूरी होनी चाहिये इसका जिक्र संविधान में में है । लेकिन हर राजनीतिक दल ने आजतक सिर्फ इतना ही किया कि अपने चुनावी मैनिपेस्टो में इन्ही बुनिय़ादी जरुरतों को जोड कर जनता को बेवकूफ बनान जारी रखा । और अब तो से विकास का नाम दिया जा रहा है ।

दरअसल, संविधान की प्रस्तावना में जिस भारत का ख्वाब देखा गया-उसके आधार स्तंभ न्याय, ,स्वतंत्रता , समानता ,बंधुत्व हे । जिसके मायने सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक विचार से जुडे है ।विचार-अभिव्यक्ति-विश्वास-धर्म से जुडे है । पद एवं बराबर के अवसर से जुडे है । व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता के लिए जीने मरने से भी जुडे है । लेकिन देश का सच है कि – इस साल 19 सितंबर तक 2,02,86,233 .मामले न्यायलय में लंबित पड़े थे । जिसके दायरे में एक करोड से ज्यादा परिवार त्रासदी झेल रहे है । क्योकि उनका पैसा, वक्त और जहालत तीनो न्याय की आस में जी रहा है । फिर जेलों में इस वक्त 2.82,879 कैदी तो ऐसे हैं, जो अंडरट्रायल हैं। 13540 कैदी सिर्फ इसलिए बंद हैं क्योंकि उनकी ज़मानत देने वाला कोई नहीं। और इनसबके बीच अब बोलने की आजादी का मामला कुछ यूं हो चला है कि एक बड़े तबके को आपकी बात नागवार गुजरे तो राष्ट्रदोही करार देने में वक्त नहीं लगता । और जब तक आप हालात को समझे तब तक आप समाज के लिये खलनायक करार दिये जा चुके होते हो । मौजूदा दौर में इस आग को सत्ता से दूर तबका बाखूबी महसूस कर रहा है । और जिस सेक्यूलरइज्म की नींव पर संविधान खडा है उसपर नई बहस इस बात को शुऱु हो रही है कि सेक्यूलरइज्म को धर्म निरपेक्ष नहीं पंथनिरपेक्ष कहे ।

लेकिन इसकी किसी को फिक्र नहीं कि आजादी के बाद से विभाजन के दौर की त्रासदी से ज्यादा मौते साप्रदायिक दंगो में बीते 66 बरस में हो गई । दंगे कभी नही रुके मनमोहन सिंह के दौर में 2014 के पहले छह महीनो में 252 दंगे हुये । तो मोदी सरकार के दौर में इस बरस पहले छह महीनो में 330 दंगे हुये । लेकिन संसद बुनियाद पर खामोशी बरस संविधान की अपनी व्याख्या करने में व्यस्त है।और जो दो शब्द समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता 42 वें संशोधन में संविधान के प्रस्तावना में जुडे संयोग से दोनो ही शब्द मौजूदा वक्त में कहीं ज्यादा बेमानी से हो गये ।

(लेखक के ब्लॉग से साभार)

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