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मौत की भी टीआरपी परमानेंट नहीं होती

पंकज शुक्ल

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टेलीविजन सीरियल्स में काम करने वाली किसी ऐसी अभिनेत्री का नाम आपको याद है जिसने पांच साल, या फिर दो-तीन साल पहले ही किसी हिट सीरियल में काम किया हो? ज़ोर देकर याद करना पड़ता है, है ना!

लेकिन, जब ये सीरियल हिट चल रहा होता है, तो इन अभिनेत्रियों में से तमाम के नखरे ऐसे होते हैं, जैसे बस अब इनका ही राज चलता रहेगा टीवी इंडस्ट्री पर। ऐसी ही एक अभिनेत्री के नखरे इन दिनों एक सुपरहिट सीरियल झेल रहा है। काश! इन अभिनेत्रियों को ये पता हो कि “तुझसे पहले यहां पर जो तख्तानशीं था, उसे भी अपने खुदा होने का इतना ही यकीं था”। और, फिर वो वक्त भी आता है जब सीरियल बंद हो जाता है। ईएमआई के पैसे नहीं होते देने को। घर किराए की तारीख नज़दीक आते ही घर काटने को दौड़ता है।

और, एक और प्रत्यूषा हमें दिख जाती है! लेकिन, कितने दिन, हफ्ते दो हफ्ते? मौत की भी टीआरपी परमानेंट नहीं होती।

स्रोत – एफबी

अशोक वाजपेयी,ओम थानवी आदि की अगुवाई में 8 अप्रेल को ‘कन्हैया’ का ‘प्रतिरोध’

कन्हैया ने रिपोर्टर से पूछा कि क्या आप ज़ी न्यूज़ से हैं
कन्हैया ने रिपोर्टर से पूछा कि क्या आप ज़ी न्यूज़ से हैं

प्रेस विज्ञप्ति

प्रतिरोध – 2

आइए!
देश के विवेक, लोकतंत्र और साझा संस्कृति पर हो रहे प्रहारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं रचने और सोचने वाले जागरूक लोग एकजुट हों और अपना इक़बाल बुलंद करें।

बात असहिष्णुता से बहुत आगे बढ़ गई है। नागरिकों पर ठेठ राजद्रोह मढ़ा जा रहा है, असहमति को कुचला जा रहा है; सरकारी मशीनरी का बेतरह दुरुपयोग करते हुए बौद्धिक गतिविधियों, अर्थात अभिव्यक्ति, विचार और वाद-विवाद-संवाद के आयोजनों के विरुद्ध जैसे कोई मुहिम व्याप्त है; विश्वविद्यालयों को बहुलता, मुक्त ज्ञान और आज़ाद ख़यालों के केंद्र बने रहने पर भी उन्हें तकलीफ़ है; बौद्धिक जिज्ञासा, असहमति और विरोध के इन केंद्रों का अवमूल्यन किया जा रहा है। इस सब से देश भर में भय, दबाव, धमकियों का माहौल खड़ा कर दिया गया है। कुचालों से लोकतांत्रिक, कानूनी और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं को हड़पते हुए भारतवर्ष, उसकी परंपरा और संस्कृति पर एक नितांत संकीर्ण और इकहरा रुख़ थोपा जा रहा है। हम इस रुख़, उसके भयावह आशयों और उसके तौर-तरीकों को आँखें मूँद कर देश पर हावी नहीं होने दे सकते। इसलिए कि हमें अपने देश, उसकी बहुलतावादी संस्कृति व परंपरा, नागरिकों की अपार संभावनाओं व क्षमताओं और उनके अतीत और संघर्षों से लगाव और सरोकार है।

‘प्रतिरोध’ के हक़ और जज़्बे को जारी रखते हुए हम – यानी हम और आप – 8 अप्रैल, 2016 (शुक्रवार) को फिर उसी स्थान पर जमा होने जा रहे हैं। आपको आना है। …

आइए, कि आवाज़ उठाने का हक़ अदा करें।

वक्ता
कृष्णा सोबती, हरबंस मुखिया, कांचा इलैया, कुमार प्रशांत, गौहर रज़ा, सिद्धार्थ वरदराजन, वृंदा ग्रोवर, शोमा चौधरी, डोंथा प्रशांत (हैदराबाद विश्व.), राकेश शुक्ल (एफ़टीआइआइ), ऋचा सिंह (इलाहाबाद विश्व.), कन्हैया कुमार, शेहला रशीद (जेएनयू)

निवेदक
अशोक वाजपेयी, ओम थानवी, एमके रैना, अपूर्वानंद, वन्दना राग
और आप

तारीख़: अप्रैल 8, 2016
समय: दोपहर 2:30 बजे से
स्थान: मावलंकर हॉल, कांस्टीट्यूशन क्लब, रफ़ी मार्ग, नई दिल्ली

Pratirodh II
A resistance by creative and reflective community and all conscientious people

Against attacks on reason, democracy & composite culture

From intolerance to sedition, from suppressing dissent to misusing state machinery, the current tirade against intellect and ideas, against spaces of debate-discussion-dissent, against allowing universities to remain sites of plurality, free knowledge and expression undermining them as centres of intellectual pursuit and protest, a climate of nation- wide fear, stress and tension is being created. Democratic, legal and cultural processes are being usurped and misused to impose a parochial, majoritarian, uniform and exclusive view of India, its culture and tradition. We cannot allow this view, its strategies, its fearful implications to go unexamined and unchallenged since we love our country, its plural culture and tradition, its people and their tremendous possibilities, their past and struggles. As another session of Pratirodh (Resistance) some of us are organising a session on 8th April 2016 and solicit your support and participation.

Speakers

Krishna Sobti, Harbans Mukhia, Kancha Ilaiah, Kumar Prashant, Gauhar Raza, Siddharth Varadarajan, Vrinda Grover, Shoma Chaudhury, Dontha Prashanth (University of Hyderabad), Rakesh Shukla (FTII), Richa Singh (Allahabad University), Kanhaiya Kumar, Shehla Rashid (JNU)

Initiators

Ashok Vajpeyi, Om Thanvi, MK Raina, Apoorvanand, Vandana Rag and You

Come together to raise your voice

Date: April 8, 2016

Time: 2:30 pm onwards

Venue: Mavalankar Hall, Constitution Club, Rafi Marg, New Delhi

मालामाल माल्या की कंगाली कथा

निरंजन परिहार

mallya modelअब आप इसे ख्याति कहें या कुख्याति, कि संसार में शराब के सबसे बड़े व्यापारियों में से एक भारत में कभी अमीरों की जमात के सरदार रहे विजय माल्या कंगाली की कगार पर देश छोड़ कर फुर्र हो गए हैं। यह जगविख्यात तत्य है कि है कि ज्ञान, चरित्र और एकता का दुनिया को पाठ पढ़ाने वाले संघ परिवार की दत्तक पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने ही संसार में शराब के सबसे बड़े व्यापारियों में से एक माल्या को कर्नाटक से राज्यसभा में फिर से पहुंचाया था। और माल्या कभी देश की जिस संसद में बैठकर भारत के भाग्य विधाता बने हुए थे, वह संसद भी सन्न है। क्योंकि लुकआउट नोटिस के बावजूद वे गायब हो गए। पर, इस बात का क्या किया जाए कि जिस लाल रंग से माल्या को बहुत प्यार है, सरकार उस लाल रंग की झंडी किंगफिशर के कंगाल को दिखाए, उससे पहले ही विजय माल्या बचा – खुचा माल बटोरकर सर्र से सरक गए।

मालामाल होने के बावजूद माल्या कोई पांच साल से अपने कर्मचारियों को तनख्वाह नहीं दे पा रहे थे। क्यूंकि कड़की कुछ ज्यादा ही बता रहे थे और यह भी बता रहे थे कि जेब पूरी तरह से खाली हो गई है। लेकिन पांच साल की की कंगाली के बावजूद माल्या के ठसक और ठाट भारत छोड़ने के दिन तक वही थे। वैसे कहावत है कि मरा हुआ हाथी भी सवा लाख को होता है, लेकिन उनकी किंगफिशर एयरलाइन अब पूरी तरह से फिस्स है। विजय माल्या संकट में कोई आज से नहीं थे। चार साल पहले ही यह तय हो गया था कि वे कंगाल हो गए है। दुनिया के सबसे सैक्सी कलेंडर छापने वाले विजय माल्या को सन 2012 में ही फोर्ब्स ने अपनी अमीरों वाली सूची से बाहर का दरवाजा दिखा दिया था। बीजेपी के सहयोग से माल्या राज्यसभा में पहुंचे थे और बाद में बीजेपी को ही भुला दिया। लेकिन अब बीजेपी के राज में देश से भागकर बीजेपी की सरकार को एक और बदनुमा दाग भी दे गए हैं।

विजय माल्या अपने काम निकालने के लिए किस तरह के फंडे अपनाते रहे हैं, इसका अंदाज लगाने के लिए यह उदाहरण देश लीजिए। बात उन दिनों की है, जब उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार हुआ करती थी। एक भूतपूर्व सांसद और प्रसिद्व पत्रकार, विजय माल्या के दलाल बने और उनके साथ उत्तराखंड के नेताओं की बैठकें भी करवाई। माल्या के वहां के बंगले पर लगा 27 करोड़ रुपए टैक्स फट से माफ हुआ। और जैसा कि होना था, माल्या ने तत्काल बाद में वह बंगला बेच दिया और मोटा मुनाफा कमाया। मोटा इसलिए, क्योंकि जब 50 साल पहले विजय माल्या की मां ने यह बंगला खरीदा था, तब देहरादून में प्रॉपर्टी के दामों में आज की तरह कदर आग लगी हुई नहीं थी। मतलब यही है कि विजय माल्या को कितनी कमाई, किसके जरिए, कैसे निकालनी है, और जिन रास्तों से निकालनी है, उन रास्तों की रपटीली राहों तक के अंदाज का पता है। राज्यसभा में जाने के लिए बीजेपी का सहयोग तो एक बहाना था। बाद में तो खैर बीजेपी को भी समझ में आ गया कि माल्या ने जो सौदा किया, वह सिर्फ राज्यसभा मे आने के लिए नहीं था।

बहुत सारे हवाई जहाजों और दो बहुत भव्य किस्म के आलीशान जल के जहाजों के मालिक होने के साथ साथ अरबों रुपए के शराब का कारोबार करनेवाले विजय माल्या की हालत इन दिनों सचमुच बहुत पतली हैं। यहां तक कि उनकी किंगफिशर विमान सेवा के सारे के सारे विमान तीन साल से जमीन पर खड़े हैं। और जैसा कि अब तक कोई उनकी मदद को नहीं आया, इसलिए सारे ही विमान जो बेचारे आकाश में उड़ने के लिए बने थे, वो स्थायी रूप से जमीन पर खड़े रहने को बंधक हो गए है। क्योंकि कोई विमान जब बहुत दिनों तक उड़ान पर नहीं जाता, जमीन पर ही खड़ा रहता है, तो जैसा कि आपके और हमारे शरीर में भी पड़े पड़े अकड़न – जकड़न आ जाती है, विमानों में भी उड्डयन की क्षमता क्षीण हो जाती है। फिर से उड़ने के लिए तैयार होने का खर्चा बहुत आता है। पैसा लगता है। और कंगाल माल्या व उनकी किंगफिशर पर तो अपार उधारी है। बेचारे विमान।

संपत्तियों के आधार पर माल्या की कुल निजी हैसियत आज भी भले ही अरबों डॉलर में आंकी जाती रही हो। और उनकी एयरलाइंस के कर्मचारियों की दुर्दशा के बाद कइयों के आत्महत्या के हालात से माल्या की असलियत को भले ही कोई कुछ भी समझे। लेकिन असल में ऐसा है नहीं। अपन पहले भी कहते रहे हैं कि उंट अगर जमीन पर बैठ भी जाए, तो भी वह कुत्ते से तो कई गुना ऊंचा ही होता है। माल्या को शराब का कारोबार और पूरा का पूरा यूबी ग्रुप अपने पिता विट्ठल माल्या से विरासत में मिला। मगर स्काटलैंड की मशहूर शराब फैक्टरी वाइट एंड मेके को एक अरब सवा करोड़ रुपए में खरीदने के बाद माल्या का यूबी ग्रुप दुनिया का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा शराब निर्माता ग्रुप बन गया। जीवन में माल्या की हर पल कोशिश रही है कि वे अपने कारोबार का दायरा बढ़ा कर अलग अलग व्यवसायों को इसमें शामिल करें, ताकि उन्हें महज़ शराब उद्योग के दिग्गज के तौर पर ही नहीं, एक बड़े उद्योगपति के रूप में उन्हें देखा जाए। इसी कारण उन्होंने एयरलाइंस शुरू की। और बाद में तो राजा – महाराजाओं की शान को भी मात देने वाले माल्या ने अपने किंगफिशर ब्रांड को बढ़ावा देने के लिए नंगी – अधनंगी लड़कियों को इकट्ठा करके दुनिया के सबसे सैक्सी कैलेंडर भी बनवाए और उनमें छपनेवाली कन्याओं को मशहूर मॉडल होने के खिताब भी बांटे। कुछ को तो हीरोइन तक बनवाने में मदद की। एयरलाइन भी शुरू की। जो नखरे- लटके – झटके दिखाने थे, वे सारे ही दिखाए और उनसे बाकी एयरलाइंसों को खूब डराया भी। और माल्या के खुद को बड़ा बनाने के शौक की उस घटना ने तो कॉर्पोरेट जगत में सबको चौंका दिया था जब किंगफ़िशर एयरलाइन को अंतरराष्ट्रीय विमानन कंपनी बनाने के लिए माल्या ने समुद्र के बीच सफर कर रहे अपने यॉट से कैप्टेन गोपीनाथ को फ़ोन किया कि वो एयर डेकन ख़रीदना चाहते हैं। गोपीनाथ ने कहा, कीमत एक हज़ार करोड़ रुपए। और माल्या ने एयर डेकन की बैलेंस शीट तक नहीं देखी और गोपीनाथ को डिमांड ड्राफ़्ट भिजवा दिया था।

कंगाल के रूप में बहुप्रचारित माल्या के बारे में ताजा तथ्य यह है कि वे अपनी अरबों रुपए की संपत्ति बचाने की कोशिश में कंगाली का नाटक करते हुए भारत में ज्यादा दिन जी नहीं सकते थे, इसी कारण भारत छोड़कर गायब हो गए हैं। लेकिन, मालामाल माल्या, दरअसल दुर्लभ किस्म के शौकीन आदमी हैं। वे जहां भी रहेंगे, अपने शौक पूरे करते रहेंगे। नंगीपुंगी बालाओं के बीच जीने के अपने सपने को स्थायी बनाने के शौक की खातिर ही, कामुक कैलेंडर निकाले। आलीशान क्रूज पर जिंदगी गुजारने और हवाई में उड़ने के शौक को स्थायी बनाने के लिए हवाई सेवा किंगफिशर भी शुरू की।

बाद में तो खैर, कामुक कैलेंडरों की बालाओं की जिंदगी की असलियत नापने की कोशिश में मधुर भंडारकर ने कैलेंडर गर्ल्स शीर्षक से एक फिल्म भी बनाई और बरबाद बिजनेसमैन के क्रूज पर दुनिया की सैर करने को लेकर भी एक फिल्म बनी। लेकिन सच्चाई यह है कि शौक के लिए खड़े किए गए कारोबारों का अंत अकसर शोक पर हुआ करता है। माल्या के विभिन्न शौक के शोकगीत और उनकी किंगफिशर की शोकांतिका का कथानक भी कुछ कुछ

निरंजन परिहार
निरंजन परिहार
ऐसा ही है। शौकीन माल्या ने भारत की सत्रह बैंकों से बहुत सारा माल लिया, मगर धेला भी वापस नहीं किया। नौ हजार करोड़ रुपए का आंकड़ा लिखने में कितने शून्य लगते हैं, यह देश के सामान्य आदमी को समझने मैं बी बहुत वक्त लग जाता है। लेकिन अपनी इतनी बड़ी धनराशि को डूबते हुए सारी बैंकें देखती रही और माल्या शौक पूरे करने लंदन की फ्लाइट लपक कर निकल गए। शौक कभी मरते नहीं। सो, अब साठ साल की ऊम्र में माल्या वहां अपने सारे शौक फिर से जागृत करेंगे। लेकिन कोर्ट, कचहरी और कानून का शिकंजा जिस तरह से कसता जा रहा है, ऐसे में उनके शौक का क्या हश्र होगा, अंदाज लगाचया जा सकता है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

मीडिया भी नहीं चाहता कि भ्रष्टाचार देश में मुद्दा बने

पुण्य प्रसून बाजपेयी

जेएनयू, पीएमओ,मीडिया और विपक्ष नहीं चाहता भ्रष्टाचार देश में मुद्दा बने

आज जब सत्ता का राष्ट्रवाद, जेएनयू के राष्ट्रविरोधी नारे और मीडिया की सही भूमिका के बीच यह सवाल बड़ा होते चला जा रहा है कि सही कौन और गलत कौन । तब जहन में पांच-साढे पांच बरस पहली तीन घटनायें याद आती हैं। पहली बार 18 सितंबर 2010 को तब के पीएम मनमोहन सिंह के प्रिंसिपल सेकेट्री टीके नायर ने हैबिटेट सेंटर के सिल्वर ओक में वरिष्ठ पत्रकारों-संपादकों को कॉकटेल पार्टी दी थी। नवंबर 2010 में राडिया टेप के जरीये पत्रकार दलालों के नाम सामने आये थे। और उसी दौर में जेएनयू के गोदावरी हॉस्टल में शुक्रवार की देर रात पत्रकार प्रांजयगुहा ठाकुरत, साहित्यकार नीलाभ और पुण्य प्रसून वाजपेयी [ लेखक ] को 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले से लेकर राडिया टेप पर चर्चा के लिये निमंत्रण दिया गया था। उस वक्त जेएनयू स्टाइल के सेमिनार[ हास्टल में खाना खत्म होने के बाद खाने वाली जगह पर ही टेबल कुर्सी जोडकर चर्चा ] से पहले गोदावरी और पेरियार हॉस्टल के बाहर ढाबे में हमारे पहुंचते ही हर मुद्दे से जुड़ा सवाल उठा और हर सवाल यहीं आकर रुकता कि संसदीय चुनावी राजनीति और माओवाद की सोच से इतर दूसरी कोई व्यवस्था हो सकती है या नहीं। और हर सवाल का जबाब यहीं आकर ठहरता कि राजनीतिक व्यवस्था ही जब भ्रष्टाचार को आश्रय दे रही है और जबतक देश में विचारधाराओं के राजनीतिक टकराव से इतर क्रोनी कैपटलिज्म के खिलाफ संघर्ष शुरु नहीं होगा तब तक रास्ता निकलेगा नहीं। और रास्ता जो भी या जब भी निकलेगा उसमें छात्रों की भूमिका अहम होगी । खैर, पीएमओ की तरफ से कॉकटेल पार्टी में मुझे भी बुलाया गया था। और हेबिटेट सेंटर में घुसते ही दायीं तरफ सिल्वर ओक में पीएमओ के तमाम डायरेकटरो के साथ पीएम के सलाहकारों की टीम जिस तरह शराब परोस [आफर] रही थी । उस माहौल में किसान-मजदूर से लेकर विकास के मनमोहन मॉडल पर चर्चा भी हो रही थी । और उस वक्त मनमोहन सिंह के डायरेक्टरों की टीम में सबसे युवा डायरेक्टर जो एक वक्त एनडीटीवी में काम कर चुके थे, उनसे हर बातचीत के आखिर में जब वह यह कहते कि, यार अरुंधति स्टाइल मत अपनाओ…पहले तो मुझे खीझ हुई लेकिन बाद में चर्चा के दौर में मुझे यह कहना पड़ा कि शायद मनमोहन सरकार को विचारधारा की राजनीतिक जुगाली पसंद है।

इसीलिये देश के बेसिक सवाल जो इकनॉमी से जुड़े हैं, उसका एक चेहरा वामपंथी सोच तो दूसरा पश्चिमी विकास मॉडल से आगे जाता नहीं है। तो पश्चिमी मॉडल की ही देन है कि सार्वजनिक स्थल पर भी पीएमओ को कॉकटेल पार्टी करने में कोई शर्म नहीं आती। क्योंकि मैंने तब सवाल उठाया कि क्या वाकई भारत जैसे देश में प्रधानमंत्री कार्यालय के जरिए इस तरह सार्वजनिक तौर कॉकटेल पार्टी करने की बात सोची भी जा सकती है । और उस वक्त जेएनयू के अनुभव में यह साफ दिखा कि मनमोहन सिंह की इकनॉमी जेएनयू में एक ऐसा प्रतीक थी, जो चाय की कीमत तले प्लास्टिक के कप और कुल्हड के दौर को खत्म करते हुये भी निशाने पर रहती और घोटालो तले देश को बेचे जाने के सवाल को भी खूब उठाती। और सारे सवाल जेएनयू के भीतर हर ढाबे हर नुक्कड पर होते। जिसमें ढाबेवाला भी शामिल होता । खैर आज जेएनयू में माहौल बहुत बदल गया है ऐसा भी नहीं है। हां, बोलने से पहले एक संशय और हर निगाह में एक शक जरुर दिखायी देने लगा है। लेकिन जेएनयू के भीतर जो सवाल बदल गये हैं, वह भ्रष्टाचार को लेकर गुस्से और राजनीतिक व्यवस्था को ही बदलने की कुलबुलाहट का है। वजह भी यही रही कि उस दौर में राडिया टेप में आये पत्रकारों के लेकर खासा गुस्सा भी जेएनयू में छात्रों नजर भी आता था। लेकिन तब भी जेएनयू बहस की गुंजाइश रखता रहा। और बहस के लिये निमंत्रण भी देता रहा। यह अलग सवाल है कि तब राडिया टेप में नाम आये पत्रकार जेएनयू में जाने से कतराते क्यों रहे। और राडिया टेप को लेकर एक तरह की खामोशी यूपीए सरकार के भीतर नजर आती रही। लेकिन तब के हालात को अब यानी साढे पांच बरस बाद परखने की कोशिश करें तो कई सवाल उलझेंगे। मसलन जेएनयू के भीतर राडिया टेप का सवाल नहीं बीजेपी और संघ पररिवार के जरीये समाज को बांटने या हिन्दुत्व का राग अलापने को लेकर जोर पकड़ चुका है। जमीनी मुद्दे गायब है तो छात्र राजनीतिक संगठनो के प्यादे के तौर पर ही अपनी पहल दिखा रहे है या कुछ भी कहते हैं तो वह राजनीतिक दलों की विचारधारा से जुडता नजर आता है। इसी आधार पर मीडिया के बंटने और बांटने के सवाल हैं। यानी राजनीतिक सत्ता का दायरा हो या सत्ता के विरोध की राजनीति के सवाल इससे इतर कोई भूमिका समाज की हो सकती है यह नजर नहीं आता। यानी समाज में जिन मुद्दों पर एका हो सकती है . दलित-मुस्लिम से लेकर किसान-मजदूर और उंची जाती से जुडे नब्बे फीसद देश के जिन सवालों पर एक खड़े हो सकते हैं, उन सवालों को बेहद महीन सियासत से दरकिनार कर दिया गया है। इसलिये सत्ता के सामने इकनॉमी का सवाल नहीं राष्ट्रवाद का सवाल है। मीडिया के सामने राष्ट्रवाद या राष्ट्रद्रोह का सवाल है। छात्रों के सामने जेएनयू या रोहित वेमूला तले वैचारिक मतभेद ही संघर्ष का मुद्दा है। तो क्या सारे हालात जानबूझ कर बनाये जा रहे हैं। या फिर देश के भूलभूत मुद्दे संघर्ष खडा ना कर दें, और जनता एकजुट ना हो जाये इसीलिये असल मुद्दों की जड़ पर ना जाकर वैचारिक तौर पर राजनीतिक दल सतही मुद्दों को विचारधारा से जोड़कर देश में राजनीतिक संघर्ष का क अखाड़ा बना रहे हैं। जहां एक तरफ हिन्दुत्व यानी राइट-सेन्ट्रल नजर आये तो दूसरी तरफ वाम सेन्ट्रल हो। और देश के नागरिक भी राजनीतिक दलों की भूमिका तले खुद को बांट लें। तो क्या इसकी सबसे बड़ी वजह वही चुनावी राजनीति है जो भ्रष्टाचार और आर्थिक कारोबार को साथ लेकर चलती है।

ध्यान दें तो देश में विचारधारा के टकराव पर कभी सत्ता बदली नहीं। 1975 में गुजरात में चिमनभाई की कुर्सी के जाने की वजह भी भ्रष्टाचार का मुद्दा बनना था। और जेपी जिस जमीन पर खड़े होकर देश को बांध रहे थे वह इंदिरा गांधी के दौर का भ्रष्टाचार ही था । और आपातकाल एक हद तक भ्रष्टाचार के खिलाफ जनसंघर्ष को दबाने की ही चाल थी। यह समझना होगा कि दिल्ली की सत्ता अयोध्या में राम मंदिर की वजह से सभी नहीं बदली । लेकिन बोफोर्स घोटाले यानी भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर वीपी सिंह को जनता ने हाथों हाथ लेकर दो तिहाई बहुमत वाली राजीव गांधी की सरकार को भी सत्ता से बेदखल कर दिया। बिहार में लालू यादव को भी भ्रष्टाचार की वजह से जनता ने हराया और नीतीश कुमार सत्ता में आये । यूपी में मायावती भी पिछली बार भ्रष्टाचार की वजह से ही चुनाव हारीं। और केजरीवाल ने भी सियासत पाने के लिये भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाया । अन्ना का आंदोलन भी जनलोकपाल को लेकर खड़ा हुआ। जिससे संसद तक थर्राई। क्योंकि जनलोकपाल के मुद्दे पर जाति-धर्म या वैचारिक आधार पर जनता को बांटा नहीं जा सकता था । लेकिन ध्यान देने वाला सच यह भी है कि सत्ता कभी भ्रष्टाचार से नहीं लडती और ना ही भ्रष्टाचार मुद्दा बने यह चाहती है। मसलन दिल्ली में ही श्री श्री रविशंकर के साथ अगर प्रधानमंत्री मोदी खड़े हुये तो दिल्ली के सीएम केजरीवाल भी खड़े हुये। मोदी ने श्री श्री के जरीये हिन्दुत्व को अपने साथ जोड़ा। तो केजरीवाल को भी लगा कि श्री श्री के साथ होकर वह भी सॉफ्ट हिन्दुत्व की लकीर पर चल सकते हैं। यानी सत्ता में आने के बाद केजरीवाल के लिये भी यह सवाल गौण हो गया कि आखिर देश में किसान मरे या जवान मरे वजह भ्रष्टाचार ही है। और भ्रष्टाचार का सवाल सत्ता से जुड़ा है। तो अब केजरीवाल भी भ्रष्टाचार के मुद्दे से बचना चाहेंगे, क्योंकि चुनावी राजनीति का भ्रष्टाचार हो या चुनावी संसदीय राजनीति का आधार क्रोनी कैपिटलिज्म। भ्रष्टाचार के दायरे को कोई सत्ता राजनीतिक मुद्दा बनने से घबराती है। यानी जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सवार होकर केजरीवाल सत्ता तक पहुंचते है, वह सत्ता केजरीवाल को उसी सिस्टम का हिस्सा बनाने से नहीं चूकती जहां भ्रष्ट संस्थानों के आसरे प्रचार प्रसार।

यह मीडिया को बांट कर अपने मुनाफे में भागेदारी भी हो सकती है और किसी के किसी मीडिया समूह या किस, कारपोरेट को निशाने पर लेकर सत्ता चलाने की सुविधा भी हो सकती है । सत्ता की यह सुविधा समाज को बांटती ही नहीं बल्कि कैसे मुश्किल हालात खड़ा करती है यह यूपी के सत्ताधारी नेता आजम खान के मुस्लिम परस्त बयान के बाद समाज के भीतर मुसलमानों की मुश्किलात से भी समझा जा सकता है। और रोहित वेमुला के जरीये दलित के सवाल उठाने के बाद किसी सामान्य दलित नागरिक के सामने पैदा होने वाली मुश्किल से भी समझा जा सकता है। लेकिन राजनीतिक मशक्कत पहले राजनीतिक जमीन बनाने की है जिससे देश पारंपरिक राजनीति में ही उलझा रहे तो छात्र राजनीति को वैचारिक संघर्ष से जोडने की तैयारी में वामपंथी है और साथ में कांग्रेस भी है। मसलन 16 मार्च को इलाहबाद यूनिवर्सिटी तो 21 को दिल्ली में छात्र संघर्ष को राजनीतिक जमीन पर उतारने की तैयारी हो रही है। और यह मोदी सरकार के लिये फिट मामला है। क्योंकि भ्रष्टाचार का मामला उभारने का मतलब है हर तबके के भीतर की बैचेनी को उभार देना। जो राजनीतिक दलों को मजबूत नहीं करती बल्कि जनता के बीच से विकल्प की राजनीति को पैदा कर देती है। और मौजूदा वक्त में कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं चाहता क्योंकि भ्रष्टाचार की फेरहिस्त में क्रोनी कैपटिलिज्म के दायरे में हर राजनीतिक दल हैं। सवाल सिर्फ ललित मोदी या माल्या भर का नहीं है। सवाल तो कालेधन का भी है। और एनपीए का भी । और 7 हजार से ज्यादा कारोबारियों का भी है। और हर क्षेत्र की रकम और वक्त को को मिला दे तो 2008 से 2015 तक का सच उभरेगा और आंकड़ा 90 लाख करोड़ को पार कर जायेगा । तब सवाल जनता की सहभागिता से पैदा होने वाले विकल्प का होगा और इसे फिलहाल जेएनयू या हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र संघर्ष के दायरे में देखना भूल होगी।

(लेखक के ब्लॉग से साभार)

भोर लिटरेचर फेस्टिवल में विभूति नारायण राय और अभिरंजन कुमार सम्मानित

विभूति नारायण राय और अभिरंजन कुमार सम्मानित

विभूति नारायण राय और अभिरंजन कुमार सम्मानित
विभूति नारायण राय और अभिरंजन कुमार सम्मानित
सामाजिक संस्था “भोर” और सुगौली प्रेस क्लब, मोतिहारी द्वारा 4 और 5 मार्च को संयुक्त रूप से आयोजित “भोर लिटरेचर फेस्टिवल – 2016” में वरिष्ठ साहित्यकार विभूति नारायण राय को प्रथम रमेश चंद्र झा स्मृति सम्मान और चर्चित कवि-पत्रकार अभिरंजन कुमार को प्रथम पंकज सिंह स्मृति सम्मान से सम्मानित किया गया।

बिहार के महत्वपूर्ण गीतकार-उपन्यासकार और स्वाधीनता सेनानी रहे स्वर्गीय रमेश चंद्र झा की स्मृति में शुरू किया गया सम्मान साहित्य और समाज के क्षेत्र में, जबकि कवि-पत्रकार स्वर्गीय पंकज सिंह की स्मृति में शुरू किया गया सम्मान साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया जाता है। इन दोनों सम्मानों के तहत प्रतीक चिह्न और प्रशस्ति पत्र प्रदान किए गए। निर्णायक मंडल में वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन, अनुरंजन झा और अतुल सिन्हा शामिल थे।

पूर्व पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय घर, तबादला और शहर में कर्फ्यू जैसे अपने उपन्यासों के कारण काफी ख्याति बटोर चुके हैं और वे महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के उप-कुलपति भी रह चुके हैं। कवि-पत्रकार अभिरंजन कुमार अपने कविता संग्रहों उखड़े हुए पौधे का बयान, बचपन की पचपन कविताएं और मीठी-सी मुस्कान दो के लिए जाने जाते हैं। नियमित साहित्य-सृजन के अलावा वे कई टीवी चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं।

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