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राष्ट्रीय सुरक्षा की बढ़ती चुनौतियां और भारतीय मीडिया की जिम्मेदारी

मोदी 'zee' के 'सुदर्शन' व्यक्तित्व के प्रभाव से 'आजतक' पूरा 'India' निकल ही नहीं पा रहा
मोदी 'zee' के 'सुदर्शन' व्यक्तित्व के प्रभाव से 'आजतक' पूरा 'India' निकल ही नहीं पा रहा

संजय द्विवेदी

संजय द्विवेदी
संजय द्विवेदी

देश की असुरक्षित सीमाओं और साथ-साथ देश के भीतर पल रहे असंतोष के मद्देनजर राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल इन दिनों बहुत महत्वपूर्ण हो गया। आतंकवाद और माओवाद के मानवता विरोधी आचरण से टकराता राज्य अकेला इन सवालों से जूझ नहीं सकता। यह युद्ध समाज, मीडिया और आमजन की एकजुटता के बिना जीतना असंभव सा है। ऐसे में एकता, जागरूकता और राष्ट्रीयता के भाव ही हमें बचा सकते हैं। हमारे देश का युवा संवेदनशील है, किंतु देश के ज्वलंत सवालों पर न तो उसकी समझ है न ही उसे प्रशिक्षित करने के यत्न हो रहे हैं। युवा शक्ति को बांटने और लड़ाने के लिए भाषा, जाति, क्षेत्र, समुदाय के सवाल जरूर खड़े किए जा रहे हैं। राष्ट्रीयता को जगाने और बढ़ाने का हमारे पास कोई उपक्रम नहीं है। शिक्षण संस्थान और परिवार दोनों इस सवाल पर उदासीन हैं। वे कैरियर और सफलता के आगे कोई राह दिखाने में विफल हैं, जिनसे अंततः असंतोष ही पनपता है और अवसाद बढ़ता है।

कठिन है यह युद्धः दुनिया के पैमाने पर युद्ध की शक्लें अब बदल गयी हैं। यह साइबर वारफेयर का भी समय है। जहां आपके लोगों का दिलोदिमाग बदलकर आपके खिलाफ ही इस्तेमाल किया जा सकता है। पूर्व के परंपरागत युद्धों में व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से संघर्ष करता था। यह संघर्ष शारीरिक और बाद में हथियारों से होने लगा। विकास के साथ दूर तक और ज्यादा नुकसान पैदा करने वाले हथियार और विनाशकारी संसाधन बने। आधुनिक समय में सूचना भी एक हथियार की तरह इस्तेमाल हो रही है। सूचना भी एक शक्ति है और हथियार भी। ऐसे में ‘कोलोजियम आफ माइंड्स’ (वैचारिक साम्राज्यवाद) का समय आ पहुंचा है। जहां लोगों के दिमागों पर कब्जा कर उनसे वह सारे काम करवाए जा सकते हैं जिससे उनके देश, समाज या राष्ट्र का नुकसान है। अपने ही देश में देश के खिलाफ नारे, देशतोड़क गतिविधियों में सहभाग, हिंदुस्तानी युवाओं का आईएस जैसे खतरनाक संगठन के आकर्षण में आना और वहां युद्ध के लिए चले जाना, भारत में रहकर दूसरे देशों के पक्ष बौद्धिक वातावरण बनाना, अन्य देशों के लिए लाबिंग इसके ही उदाहरण हैं। लार्ड मैकाले जो करना चाहते थे, नई तकनीकों ने उन्हें और संभव बनाया है। कश्मीर में आतंक बुरहान वानी की मौत के बाद साइबर मीडिया में जो माहौल बना वह बताता है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। इस युद्ध के लड़ाके और आंदोलनकारी दोनों साइबर स्पेस पर तलाशे जा रहे हैं। एक ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें राज्य की हिंसा तो हिंसा ही है अपितु अलगाववादी समूहों की हिंसा भी जायज बन जाती है। ऐसे कठिन समय में हमें ज्यादा चैतन्य होकर अपनी रणनीति को अंजाम देना होगा।

अपने पड़ोसियों से हमारा एक लंबा छद्म युद्ध चल रहा है। चीन और पाकिस्तान ने अपने-अपने तरीकों से हमें परेशान कर रखा है। यह एक छद्म युद्ध भी है। इससे जीतने की तैयारी चाहिए। जैसे बंगलादेश में हमने एक जंग जीती किंतु नेपाल में हम वह नहीं कर पाए। आज नेपाल की एक बड़ी आबादी और राजनीति में भारतविरोधी भाव हैं। पाकिस्तान जो कश्मीर में कर पाया, वह हम पीओके, बलूचिस्तान या गिलगित में नहीं कर पाए। आजादी के सत्तर साल बाद कोई प्रधानमंत्री बलूचिस्तान के मुद्दे पर कुछ कह पाया? कश्मीर की आजादी के दीवानों ने न तो बलूचिस्तान देखा है, न पीओके और न ही गिलगित। चीन अपने विद्रोहियों से कैसे निपट रहा है, वह भी उनकी जानकारी में नहीं है। भारत को मानवाधिकारों का पाठ पढ़ा रहे देश खुद अपने देश में आम जन के साथ क्या आचरण कर रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।

भारतीय मीडिया की जिम्मेदारीः भारतीय मीडिया को भी इस साइबर वारफेयर में जिम्मेदार भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती है। द्वितीय विश्वयुद्ध से लेकर ईराक,अफगान युद्ध में पश्चिमी मीडिया की भूमिका को रेखांकित करते हुए यह जानना जरूरी है कैसे मीडिया ने सत्य के साथ छेड़छाड़ की तथा वही दिखाया और बताया जो ताकतवर देश चाहते थे। ऐसे कठिन समय में भारतीय मीडिया को भारतीय पक्ष का विचार करना चाहिए। मीडिया लोगों का मत और मन बनाता है। अभिव्यक्ति की आजादी की संविधान प्रदत्त सीमा से आगे जाकर हमें प्रोपेगेंडा से बचना होगा। वस्तुनिष्ठ होकर स्थितियों का विश्वलेषण करना होगा। अफवाहों, मिथ और धारणाओं से परे हमें सत्य के अनुसंधान की ओर बढ़ना होगा। इस साइबर वारफेयर, साइको वारफेयर के वैश्विक युद्ध में सच्चाईयों को उजागर करने के यत्न करने होंगे। देश की भूमि पर वैचारिक आजादी की मांग करने वाले योद्धा तमाम सवालों पर चयनित दृष्टिकोण अपनाते हैं। एक मुद्दे पर उनकी राय कुछ होती है, उसी के समानांतर दूसरे मुद्दे पर उनकी राय अलग होती है। यह द्वंद राजनीतिक लाभ उठाने और पोजिशिनिंग के नाते होता है। मीडिया को ऐसे ‘खल बौद्धिकों’ के असली चेहरों को उजागर करना चाहिए। कश्मीर में ‘ई-प्रोटेस्ट’ के जो प्रयोग हुए वे बताते हैं कि आज के समय में लोगों को गुमराह करना ज्यादा आसान है। सूचना की शक्ति और उसकी बहुलता ने आज एक नयी दुनिया रच ली है,जिसे पुराने हथियारों से नहीं निपटा जा सकता। 2002 में मिस्र के हुस्नी मुबारक ने अलजजीरा से तंग होकर कहा था कि “सारे फसाद की जड़ यह ईडियट बाक्स है।” तबसे आज काफी पानी गुजरा चुका है। न्यू मीडिया अपने नए-नए रूप धरकर एक बड़ी चुनौती बन चुका है। जहां टीवी से बात बहुत आगे बढ़ चुकी है। सिटीजन जर्नलिज्म की अवधारणा भी एक नए अवसर और संकट दोनों को जन्म दे रही है। यह पारंपरिक मीडिया को एक चुनौती भी है और मौका भी। आप देखें तो नए मीडिया की शक्ति किस तरह सामने है कि ओसामा बिन लादेन की मौत और अमरीकी राष्ट्रपति की प्रेस कांफ्रेस के बीच दो घंटे 45 मिनट में 2.79 करोड़ ट्विट हो चुके थे। यह अकेला उदाहरण बताता है कि कैसा नया मीडिया इस नए समय में अपनी समूची शक्ति के साथ एक बड़े समाज को अपने साथ ले चुका है। सही मायने में भारतीय मीडिया को इस वक्त अपनी भूमिका पहचानने और आगे बढ़ने का समय आ गया है। वैचारिक साम्राज्यवाद और सूचना के साम्राज्यवाद के खिलाफ हमने आज जंग तेज न की तो कल बहुत देर हो जाएगी।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

फोटोग्राफर डा. कायनात काजी की फोटो प्रदर्शनी

प्रेस विज्ञप्ति

फोटोग्राफर, ट्रेवेल राइटर और ब्लॉगर डा. कायनात काजी की फोटो प्रदर्शनी “सबरंग” का उदघाटन समारोह आज कनाट प्लेस स्थित कैफे दी आर्ट में आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता शिक्षाविद् और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, भारत सरकार के सदस्य सचिव डा. सच्चिदानंद जोशी ने की। जबकि प्रसिद्ध फोटोग्राफर और डीडी न्यूज के सीनियर कंसल्टिंग एडीटर श्री विजय क्रांति इस अवसर पर मुख्य अतिथि तथा वरिष्ठ टीवी पत्रकार और जानेमाने स्तंभकार श्री अनंत विजय विशिष्ठ अतिथि थे। कैफे द आर्ट अपनी तरह का एक अलग प्रयोग है। यह कैफे कम आर्ट गैलरी है। यहां कला प्रेमी फोटो और पेंटिंग को निहारते हुए चाय और कॉफी की चुस्कियों का लुत्फ उठाते हैं।

डा. कायानत काजी एक सोलो फीमेल ट्रेवलर के रूप में महज तीन वर्षों में ही देश-विदेश में करीब 80 हजार किलोमीटर की दूरी नाप चुकी हैं। डा. कायनात काज़ी ने यायावरी करते हुए भारत की विविधता को करीब से देखा और महसूस किया कि इसकी संस्कृति के अनगिनत रंग हैं। अपनी फोटो प्रदर्शनी “सबरंग” में कायनात ने इन्हीं रंगों को दिखाने की कोशिश की है। उनके पास प्रकृति, जीवन शैली, कला, संस्कृति, पुरातत्व, ऐतिहासिक धरोहर, ग्राम्य जीवन आदि विषयों पर फोटो का विशाल कलेक्शन है। जिनमें से कुछ तस्वीरें “सबरंग” में दर्शायी गई हैं।

इस अवसर पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, भारत सरकार के सदस्य सचिव डा. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि कला एक ऐसा माध्यम है जो लोगों को जोड़ती है। वह संस्कृतियों के समागम का माध्यम भी है। कलाकार को किसी सांचे में नहीं बंधा होना चाहिए। उसकी कला में वास्तविकता और समाज का सच होना चाहिए। देश में कलाकारों और बुद्दजीवियों के विचारधारा के आधार पर बंटने के संदर्भ में उन्होंने कहा कि कला किसी रंग को नहीं जानती। इस लिए उसका कोई रंग भी नहीं होता। हमें कला को रंगों में नहीं बांटना चाहिए। वह तो केवल अभिव्यक्ति का माध्यम है। इसे अभिव्यक्ति का माध्यम ही बने रहने देना चाहिए। डा. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि कायनात काजी की फोटो प्रदर्शनी में भारत की संस्कृति के बखूबी दर्शन हो रहे हैं। उन्होंने भारतीय कारीगरी की परंपरा को जिस तरह से अपनी फोटो प्रदर्शनी में दर्शाया है, वह सराहनीय है।

जानेमाने फोटोग्राफर और डीडी न्यूज के सीनियर कंसल्टिंग एडीटर श्री विजय क्रांति ने डा. कायनात की फोटग्राफी की बारीकियों को लोगों के समाने रखा। उन्होंने कहा कि आमतौर पर किसी फोटोग्राफर का अपना एक दायरा होता है। चूंकि कायनात काजी ट्रेवेलर हैं इसलिए उनकी फोटोग्राफी का दायरा और फलक विशाल है। यही वजह है कि उनकी फोटोग्राफी में विविधता भी बहुत है। कायनात की फोटोग्राफी में जीवन का हर रंग और हर पहलू मौजूद है। महिला हो या बच्चा, दुख हो या सुख, उत्सव हो या पंरपरा, गांव हो या शहर, दस्तकारी हो या कलाकारी, खानपान हो या जीवन शैली, सभी को उनके कैमरे ने बखूबी कैद किया है।

वरिष्ठ टीवी पत्रकार और जानेमाने स्तंभकार श्री अनंत विजय ने कहा कि संवेदनशीलता कला का एक विशिष्ठ गुण है। कलाकार जब तक संवेदनशील नहीं होगा, तब तक न तो वह अपना सामाजिक सरोकार का दायित्व निभा पाएगा और न ही अपनी कला को उत्कृष्ठ बना बना पाएगा। कायनात काजी की फोटोग्राफी में यह संवेदनशीलता दिखाई देती है। उन्होंने अपने फोटोग्राफ में मनोभावों को बड़ी ही सहजता से कैद किया है। उन्होंने कायनात काजी की बच्चे की ली गई एक तस्वीर की तरफ इशारा करते हुए कहा कि हाल ही में एक बच्चे की तस्वीर ने दुनियाभर के लोगों के दिलों को झकझोर कर रख दिया था। सोशल मीडिया पर इस तस्वीर के वायरल होते ही यूरोप के तमाम देशों ने शरणार्थियों के लिए अपनी सीमाएं खोल दीं। इस क्रांतिकारी परिवर्तन का श्रेय एक फोटोग्राफर को ही जाता है, जिसने तुर्की के उस मृतक बच्चे आयलान की तस्वीर को दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया था।

डा. कायनात काज़ी जितना अच्छा लिखती हैं, उतनी अच्छी फोटोग्राफी भी करती हैं। हिंदी साहित्य में पीएचडी कायनात एक प्रोफेशनल फोटोग्राफर हैं। राहगिरी (rahagiri.com) नाम से उनका हिंदी का प्रथम ट्रेवल फोटोग्राफी ब्लॉग है। फोटोग्राफी और लेखन के लिए उन्हें कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। वह यायावर और घुमक्कड हैं। एक सोलो फीमेल ट्रेवलर के रूप में वह महज तीन वर्षों में देश-विदेश में करीब 80 हजार किलोमीटर की दूरी नाप चुकी हैं। उनके पास विभिन्न विषयों पर करीब 25 हजार फोटो का कलेक्शन भी है। कायनात की कई फोटो प्रदर्शनियां लग चुकी हैं। वह एमए भी हैं, एएमबीए भी हैं और मॉस कम्यूनिकेशन की भी पढ़ाई की है। कई मीडिया संस्थानों में काम भी कर चुकी हैं। कॉलेज के दिनों में ही उनकी कई कहानियों का आकाशवाणी पर प्रसारण हो चुका है। जल्दी ही उनका कहानी संग्रह भी प्रकाशित होने वाला है। फिलहाल, वह शिव नाडर विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

स्टार्टअप चैनल लाएगी सरकार

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भारत में स्टार्टअप को बढ़ावा देने के लिए सरकार स्टार्टअप चैनल और रियल्टी शो शुरू करने की योजना पर विचार कर रही है. स्टार्टअप को दूरदर्शन पर प्रसारित किया जाएगा और सब ठीक रहा तो इसके लिए किसान टीवी की तर्ज पर अलग से चैनल भी शुरू किया जाएगा. रियल्टी शो के विजेता को स्टार्टअप के लिए सरकार की तरफ से वित्तीय मदद और सलाह दी जायेगी.

पत्रकारों के सामने अखिलेश ने अमर सिंह पर कसा तंज

पत्रकारों के सामने अखिलेश ने अमर सिंह पर कसा तंज
पत्रकारों के सामने अखिलेश ने अमर सिंह पर कसा तंज
पत्रकारों के सामने अखिलेश ने अमर सिंह पर कसा तंज
पत्रकारों के सामने अखिलेश ने अमर सिंह पर कसा तंज

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने चुनावों की तारीख नजदीक आते देख पत्रकारों को अपने पाले में रखने के लिए योजनाओं की बारिश कर दी. इसी संदर्भ में जन्माष्टमी के मौके पर लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास पर पत्रकारों के साथ संवाद का आयोजन किया गया था.संवाद के दौरान जब एक महिला पत्रकार ने अखिलेश से कहा’आप अब हम पत्रकारों के लिए सुलभ नहीं हैं और हम चाहकर भी आपसे नहीं मिल पाते हैं.’ इस पर अखिलेश ने चुटकी लेते हुए कहा कि ये आपकी अकेले की शिकायत नहीं, बल्कि अमर अंकल की भी यही शिकायत है.इस पर पूरा हॉल ठहाकों से गूँज उठा. गौरतलब है कि आजतक चैनल से बातचीत करते हुए कुछ दिन पहले अमर सिंह ने कहा था कि अखिलेश मिलते नहीं और फोन करने पर फोन उठाते नहीं.

मदर टरेसा – शांति एवं सेवा का शंखनाद

ललित गर्ग

ललित गर्ग
ललित गर्ग

माँ दुनिया का सबसे अनमोल शब्द है। एक ऐसा शब्द जिसमें सिर्फ अपनापन, सेवा, समर्पण और प्यार झलकता है। माँ हमारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखती है। माँ शब्द जुबान पर आते ही एक नाम सहज ही सामने आता है और वह हैं मदर टरेसा का। कलियुग में वे मां का एक आदर्श प्रतीक थी जो आज भी प्रेम की भांति सभी के दिलों में जीवित हैं। वे मानव बनकर संसार में आई। उनके जीवन की कहानी आकाश की उड़ान नहीं है। उनके स्वर कल्पना की लहरियों से नहीं उठे थे, बल्कि अनुभूति की कसौटी पर खरे उतरकर हमारे सामने आए थे। उनकी सतत गतिशील मानवता ने उन्हें महामानव बना दिया। जिसकी पृष्ठभूमि में विजय का संदेश है। वह विजय थी-अंधकार पर प्रकाश की, असत् पर सत् की, मानव उत्थान की और पीडित मानव मन पर मरहम की। वे शांति एवं सेवा का शंखनाद थी।

मदर टरेसा का नाम जुबान पर आते ही मन श्रद्धा से भर जाता है। दिल की गहराइयों में प्यार का सागर उमड़ने लगता है। उनकी हर सीख हमें याद आती है, जो उन्होंने हमें सिखाई है। हर व्यक्ति को वे बहुत प्यारी लगती थी और अपने करीब लगती थी। सभी कहते हंै कि उनके जैसा कोई नहीं है, वे एक ही थी और एक ही रहेगी। क्योंकि उन्होंने असहायों और निराश्रितों की सेवा में अपना पूरा जीवन बिताया। उन्होंने अपनी आयु के हर लम्हें को पीड़ित, दुःखी और जरूरतमंदों की सहायता में न्यौछावर किया। उनकी निस्वार्थ सेवा, स्नेह और समर्पण इस धरती पर हमेशा याद रहेगा। वे सचमुच संसार की मां थी, उनकी स्मृति युग-युगों तक मानवता को रोशनी देती रहेगी।

mother teresaयुगों से भारत इस बात के लिये धनी रहा है कि उसे लगातार महापुरुषों का साथ मिलता रहा है। इस देश ने अपनी माटी के सपूतों का तो आदर-सत्कार किया ही है लेकिन अन्य देशों के महापुरुषों को न केवल अपने देश में बल्कि अपने दिलों में भी सम्मानजनक स्थान दिया और उनके बताए मार्गों पर चलने की कोशिश की है। हमारे लिए मदर टेरेसा भी एक ईश्वरीय वरदान थीं। भारतीय जनमानस पर अपने जीवन से उदाहरण के तौर पर उन्होंने ऐसे पदचिन्ह छोड़े हंै, जो सदियों तक हमें प्रेरणा एवं पाथेय प्रदत्त करते रहेंगे। क्या जात-पांत, क्या ऊंच-नीच, क्या गरीब-अमीर, क्या शिक्षित-अनपढ़, इन सभी भेदभावों को ताक पर रख कर मदर ने हमें यह सिखाया है कि हम सभी इंसान हैं, ईश्वर की बनाई हुई सुंदर रचना हैं और उनमें कोई भेद नहीं हो सकता। उनका विश्वास था कि अगर हम किसी भी गरीब व्यक्ति को ऊपर उठाने का प्रयत्न करेंगे तो ईश्वर न केवल उस गरीब की बल्कि पूरे समाज की उन्नति के रास्ते खोल देगा। वे अपने सेवा कार्य को समुद्र में सिर्फ बूंद के समान मानती थीं। वह कहती थीं, ‘मगर यह बूंद भी अत्यंत आवश्यक है। अगर मैं यह न करूं तो यह एक बूंद समुद्र में कम पड़ जाएगी।’ सचमुच उनका काम रोशनी से रोशनी पैदा करना था।

मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 में सोप्जे मैसिडोनिया में हुआ था। 12 वर्ष की छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने ‘नन‘ बनने का निर्णय किया और 18 वर्ष की आयु में कलकत्ता में ‘आइरेश नौरेटो नन‘ मिशनरी में शामिल हो गयी। वे सेंट मैरी हाईस्कूल कलकत्ता में अध्यापिका बनी और लगभग 20 वर्ष तक अध्यापन के द्वारा ज्ञान बांटा। लेकिन उनका मन कहीं और था। कलकत्ता के झोपड़पट्टी में रहने वाले लोगों की पीड़ा और दर्द ने उन्हें बैचेन-सा कर रहा था। देश में गरीबी और भुखमरी की स्थिति काफी गंभीर थी। बीमारी, अशिक्षा, छुआछूत, जातिवाद एवं महिला उत्पीड़न जैसी सामाजिक बुराइयां अपनी पराकाष्ठा पर थीं। इन स्थितियों ने उन्होंने आन्दोलित कर दिया। यही कारण था कि 36 वर्ष की आयु में उन्होंने अति निर्धन, असहाय, बीमार, लाचार एवं गरीब लोगों की जीवनपर्यंत सेवा एवं मदद करने का मन बना लिया। इसके बाद मदर टेरेसा ने पटना के होली फॅमिली हॉस्पिटल से आवश्यक नर्सिग ट्रेनिंग पूरी की और 1948 में वापस कोलकाता आ गईं और वहां से पहली बार तालतला गई, जहां वह गरीब बुजुर्गों की देखभाल करने वाली संस्था के साथ जुड़ गयी। उन्होंने मरीजों के घावों को धोया, उनकी मरहमपट्टी की और उनको दवाइयां दीं। धीरे-धीरे उन्होंने अपने कार्य से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा।
कोलकता में सन् 1950 में ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ का आरम्भ मात्र 13 लोगों के साथ हुआ था पर मदर टेरेसा की मृत्यु के समय (1997) 4 हजार से भी ज्यादा ‘सिस्टर्स’ दुनियाभर में असहाय, बेसहारा, शरणार्थी, अंधे, बूढ़े, गरीब, बेघर, शराबी, एड्स के मरीज और प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोगों की सेवा कर रही हैं। मदर टेरेसा ने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ के नाम से आश्रम खोले । ‘निर्मल हृदय’ का ध्येय असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों का सेवा करना था जिन्हें समाज ने तिरस्कृत कर दिया हो। ‘निर्मला शिशु भवन’ की स्थापना अनाथ और बेघर बच्चों की सहायता के लिए हुई। समाज के सबसे दलित और उपेक्षित लोगों के सिर पर अपना हाथ रख कर उन्होंने उन्हें मातृत्व का आभास कराया और न सिर्फ उनकी देखभाल की बल्कि उन्हें समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए भी प्रयास शुरू किया। सच्ची लगन और मेहनत से किया गया काम कभी असफल नहीं होता, यह कहावत मदर टेरेसा के साथ सच साबित हुई।

मदर टेरेसा को मानवता की सेवा के लिए अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए। भारत सरकार ने उन्हें पहले पद्मश्री (1962) और बाद में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ (1980) से अलंकृत किया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने उन्हें वर्ष 1985 में मेडल आफ फ्रीडम से नवाजा। मानव कल्याण के लिए किये गए कार्यों की वजह से उन्हें 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला। उन्हें यह पुरस्कार गरीबों और असहायों की सहायता करने के लिए दिया गया था। मदर ने नोबेल पुरस्कार की धन-राशि को भी गरीबों की सेवा के लिये समर्पित कर दिया।

मदर टेरेसा ने समय-समय पर भारत एवं दुनिया के ज्वंलत मुद्दों पर असरकारण दखल किया, भ्रूण हत्या के विरोध में भी सारे विश्व में अपना रोष दर्शाया एवं अनाथ-अवैध संतानों को अपनाकर मातृत्व-सुख प्रदान किया। उन्होंने फुटपाथों पर पड़े हुए रोते-सिसकते रोगी अथवा मरणासन्न असहाय व्यक्तियों को उठाया और अपने सेवा केन्द्रों में उनका उपचार कर स्वस्थ बनाया। पीड़ित एवं दुखी मानवता की सेवा ही उनके जीवन का व्रत था। दया की देवी, दीन हीनों की माँ तथा मानवता की मूर्ति मदर टेरेसा एक ऐसी सन्त महिला थीं जिनके माध्यम से हम ईश्वरीय प्रकाश को देख सकते थे। हम उन्हें ईश्वर के अवतार के रूप में एवं उनके प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं।

मदर शांति की पैगम्बर एवं शांतिदूत महिला थीं, वे सभी के लिये मातृरूपा एवं मातृहृदया थी। परिवार, समाज, देश और दुनिया में वह सदैव शांति की बात किया करती थीं। विश्व शांति, अहिंसा एवं आपसी सौहार्द की स्थापना के लिए उन्होंने देश-विदेश के शीर्ष नेताओं से मुलाकातें की और आदर्श, शांतिपूर्ण एवं अहिंसक समाज के निर्माण के लिये वातावरण बनाया।

कहा जाता है कि जन्म देने वाले से बड़ा पालने वाला होता है। मदर टेरेसा ने भी पालने वाले की ही भूमिका निभाई। अनेक अनाथ बच्चों को पाल-पोसकर उन्होंने उन्हें देश के लिए उत्तम नागरिक बनाया। ऐसा नहीं है कि देश में अब अनाथ बच्चे नहीं हैं। लेकिन क्या मदर टेरेसा के बाद हम उनके आदर्शों को अपना लक्ष्य मानकर उन्हें आगे नहीं बढ़ा सकते?
मदर टरेसा ने कभी भी किसी का धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश नहीं की। प्रार्थना उनके जीवन में एक विशेष स्थान रखती थी जिससे उन्हें कार्य करने की आध्यात्मिक शक्ति मिलती थी। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था। उन्होंने अपनी शिष्याओं एवं धर्म-बहनों को भी ऐसी ही शिक्षा दी कि प्रेम की खातिर ही सब कुछ किया जायें। उनकी नजर में सारी मानव जाति ईश्वर का ही प्रतिरूप है। उन्होंने कभी भी अपने सेवा कार्य में धर्म पर आधारित भेदभाव को आड़े नहीं आने दिया। जब कोई उनसे पूछता कि ‘क्या आपने कभी किसी का धर्मांतरण किया है?’ वे कहती कि ‘हां, मैंने धर्मांतरण करवाया है, लेकिन मेरा धर्मांतरण हिंदुओं को बेहतर हिंदू, मुसलमानों को बेहतर मुसलमान और ईसाइयों को बेहतर ईसाई बनाने का ही रहा है।’ असल में वे हमेशा इंसान को बेहतर इंसान बनाने के मिशन में ही लगी थी।

मदर टेरेसा त्याग, सादगी एवं सरलता की मूर्ति थी। वे एक छोटे से कमरे में रहती थीं और अतिथियों से प्रेमभाव के साथ मिलती थीं और उनकी बात को गहराई से सुनती थीं। उनके तौर तरीके बड़े ही विनम्र हुआ करते थे। उनकी आवाज में सहजता और विनम्रता झलकती थी और उनकी मुस्कुराहट हृदय की गहराइयों से निकला करती थी। सुबह से लेकर शाम तक वे अपनी मिशनरी बहनों के साथ व्यस्त रहा करती थीं। काम समाप्ति के बाद वे पत्र आदि पढ़ा करती थीं जो उनके पास आया करते थे।

मदर टेरेसा वास्तव में प्रेम और शांति की दूत थीं। उनका विश्वास था कि दुनिया में सारी बुराइयाँ व्यक्ति से पैदा होती हैं। अगर व्यक्ति प्रेम से भरा होगा तो घर में प्रेम होगा, तभी समाज में प्रेम एवं शांति का वातावरण होगा और तभी विश्वशांति का सपना साकार होगा। उनका संदेश था हमें एक-दूसरे से इस तरह से प्रेम करना चाहिए जैसे ईश्वर हम सबसे करता है। तभी हम विश्व में, अपने देश में, अपने घर में तथा अपने हृदय में शान्ति ला सकते हैं। उनके जीवन और दर्शन के प्रकाश में हमें अपने आपको परखना है एवं अपने कर्तव्य को समझना है। तभी हम उस महामानव की जन्म जयन्ती मनाने की सच्ची पात्रता हासिल करेंगे एवं तभी उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि समर्पित करने में सफल हो सकेंगे।

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