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नेटिजन या सिटिजन क्या बनेंगे आप ?

इंटरनेट और सोशल मीडिया का बढ़ता साम्राज्य’
इंटरनेट और सोशल मीडिया का बढ़ता साम्राज्य’

संजय द्विवेदी-

उपराष्ट्रपति डा.हामिद अंसारी की नई किताब ‘सिटिजन एंड सोसाइटी’ के विमोचन के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि “प्रौद्योगिकी के कारण लोग नेट पर आश्रित हो गए हैं, और पारंपरिक सीमाएं विलोपित हो रही हैं। बावजूद इसके परिवार देश की सबसे बड़ी ताकत है।” निश्चय ही प्रधानमंत्री हमारे समय के एक बड़े सामाजिक प्रश्न पर संवाद कर रहे थे।

आज यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है कि हम पहले सिटिजन(नागरिक) हैं या नेटिजन(इंटरनेट पर आश्रित व्यक्ति)। नेटिजन होना जरूरत है, आदत है या स्टेटस सिंबल? ऐसे में क्या नागरिक धर्म, पारिवारिक दायित्वबोध पीछे छूट गए हैं? देशभक्ति ,राजनीति से लेकर समाजसेवा सब नेट पर ही संभव हो गयी है तो लोगों से क्यों प्रत्यक्ष मिलना? क्यों समाज में जाना और संवाद करना? नेटिजन होना दरअसल एकांत में होना भी है। क्योंकि नेट आपको आपके परिवेश से काटता भी और एकांत भी मांगता है। यह संभव नहीं कि आप नेट पर चैट भी करते रहें और सामने बैठे मनुष्य से संवाद भी। यह भी गजब है कि भरे-पूरे परिवार और महफिलों में भी हमारी उंगलियां स्मार्ट फोन पर होती हैं और संवाद वहां निरंतर है, किंतु हमारे अपने उपेक्षित हैं। महफिलों, सभाओं, विधानसभाओं, कक्षाओं, अंतिम संस्कार स्थल से लेकर भोजन की मेजों पर भी मोबाइल में लगे लोग दिख जाएंगे। मनुष्य ने अपना एकांत रच लिया है, और इस एकांत में भी वह अधीर है। पल-पल स्टेटस चेक करता है कि क्या-कहां से आ गया होगा। यह गजब समय है, जहां एकांत भी कोलाहल से भरे हैं। स्क्रीन चमकीली चीजों और रोशनियों से भरा पड़ा है। इसके चलते हमारे आसपास का सौंदर्य और प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता बेईमानी हो चली है। हमारे अपने प्रतीक्षा में हैं कि हम कुछ कहें, बोलें, बतियाएं पर हमें चैटिंग से फुरसत नहीं है। हम आभासी दुनिया के चमकते चेहरों पर निहाल हैं, कोई इस प्रतीक्षा में है, हम उसे भी निहारेगें। यह अजब सी दुनिया है, नेटिजन होने की सनक से भरी दुनिया, जिसने हमारे लिए अंधेरे रचे हैं और परिवेश से हमें काट दिया है। प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना और प्रौद्योगिकी के लिए इस्तेमाल होना दोनों दो चीजें हैं, पर हम इसका अंतर करने में विफल हैं।

हालात यह हैं कि भरे-पूरे परिवार में संवाद की कहीं जगह बची ही नहीं है। माता-पिता और संतति सब नेटिजन बन चुके हैं। उनमें संवाद बंद है, सब के पास चमकती हुयी स्क्रीन है और उससे उपजी व्यस्तताएं। शिक्षा मंदिरों का हाल और बुरा है। कक्षा में उपस्थित शिक्षक अपने विद्यार्थियों तक नहीं पहुंच पा रहा है, मोबाइल यहां भी बाधा बना है। शिक्षक की भरी-पूरी तैयारी के बाद भी उसके विद्यार्थी ज्ञान ‘गूगल गुरू’ से ही लेना चाहते हैं। शिक्षक भौंचक है। उसके विद्यार्थियों में एकाग्रता का संकट सामने है। वे कंधे उचकाकर फिर स्क्रीन पर चेक करते हैं, नए नोटिफिकेशन से बाक्स भर गया है। बहुत से चित्र, संवाद और बहुत सी अन्य चीजें उनकी प्रतीक्षा में हैं। एकाग्रता, तन्मयता, दत्तचित्तता जैसे शब्द इस विद्यार्थी के लिए अप्रासंगिक हैं। वह किताबों से भाग रहा है, वे भारी हैं और भटका रही हैं। उसे ‘फोकस्ड’ और ‘पिन पाइंट’ ज्ञान चाहिए। गूगल तैयार है। गुरू गूगल ने ज्यादातर अध्यापक को अप्रासंगिक कर दिया है। ज्ञान की तलाश किसे है, पहले हम सूचनाओं से तो पार पा लें। आज ‘डिजीटल इंडिया के शिल्पकार प्रधानमंत्री’ अगर यह कह रहे हैं कि परिवार हमारी सबसे बड़ी ताकत है, तो हमें रूककर सोचना होगा कि प्रौद्योगिकी की जिंदगी में क्या सीमा होनी चाहिए। क्या प्रौद्योगिकी का हम प्रयोग करेंगे या वह हमारा इस्तेमाल करेगी। नेटिजन और सिटिजन क्या समन्वय बनाकर एक साथ चल सकते हैं, इस पर भी सोचना जरूरी है।

भारत जैसे विविधता और बहुलता से भरे देश में डिजीटल इंडिया के प्रयोग एक ‘डिजीटल डिवाइड’ भी पैदा कर रहे हैं। एक बड़ा समाज इन चमकीली सूचनाओं से दूर है और उस तक चीजें पहुंचने में वक्त लगेगा। सूचनाएं और संवाद किसी भी समाज की शक्ति होती हैं। वह उसकी ताकत को बढ़ाती हैं। लेकिन नाहक, प्रायोजित और संपादित सूचनाएं कई तरह के खतरे भी पैदा करती हैं। क्या हमें हमारे देश की वास्तविक सूचनाएं देने के जतन हो रहे हैं? क्या हम इस देश को उस तरह से चीन्हते हैं जैसा यह है? 128 करोड़ आबादी, 122 भाषाएं और 1800 बोलियों वाले 33 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले देश की आकांक्षाएं, उसके सपने, उसके दुख-सुख-आर्तनाद क्या हमें पता हैं? क्या हमें पता है कि एक वनवासी कैसे बस्तर या अबूझमाड़ के जंगलों में हमारे लोकतंत्र की प्रतीक्षा में सात दशक गवां चुका है? गांव, गरीब, किसान की बातें करते-करते थक चुकी हमारी सरकारें और संवेदनहीन प्रशासनिक तंत्र क्या इस चमकीले डिजीटल इंडिया के सहारे भी हाशिए पर पड़े लोगों के लिए कोई स्पेस ढूंढ पाएगा। समर्थों की चाकरी में जुटी सारी नौकरशाही क्या लोकसेवक होने के वास्तविक अहसास से भर पाएगा। कहते हैं लोकतंत्र सौ साल में साकार होता है। सत्तर साल पूरे कर चुके इस देश में 70 प्रतिशत तो लोकतंत्र आ जाना चाहिए था, किंतु देश के बड़े बुद्धिजीवी रामचंद्र गुहा 2016 में भी हमारे लोकतंत्र को 50-50 बता रहे हैं। ऐसे में नागरिक बोध और नागरिक चेतना से लैस मनुष्यों के निर्माण में हमारी चूक साफ नजर आ रही है। लोकतंत्र कुछ समर्थ लोगों और प्रभु वर्गों की ताबेदारी बनकर सहमा हुआ सा नजर आता है। परिवार हमारी शक्ति है और समाज हमारी सामूहिक शक्ति।

व्यवस्था के काले हाथ परिवार और समाज दोनों की सामूहिक शक्ति को नष्ट करने पर आमादा हैं। समाज की शक्ति को तोड़कर, उन्हें गुटों में बांटकर राजनीति अपने लक्ष्य संधान तो कर रही है पर देश हार रहा है। समाज को सामाजिक दंड शक्ति के रूप में करना था किंतु वह राजनीतिक के हाथों तोड़ा जा रहा है, रोज और सुबह-शाम। आज समाज नहीं राजनीति पंच बन बैठी है, वह हमें हमारा होना और जीना सिखा रही है। राजरंग और भोग में डूबा हुआ समाज बनाती व्यवस्था को सवाल रास कहां आते हैं। इसलिए सवाल उठाता सोशल मीडिया भी नागवार गुजरता है। सवाल उठाते नौजवान भी आंख में चुभते हैं। सवाल उठाता मीडिया भी रास नहीं आता। सवाल उठाने वाले बेमौत मारे जाते हैं, ताकि समाज सहम जाए, चुप हो जाए। नेटिजन से पहले सिटिजन और उससे पहले मनुष्य बनना, खुद की और समाज की मुक्ति के लिए संघर्ष किसी भी जीवित इंसान की पहली शर्त है। लोग नेट पर आश्रित भले हो गए हों, किंतु उन्हें लौटना उसी परिवार के पास है जहां संवेदना है, आंसू हैं, भरोसा है, धड़कता दिल है और ढेर सारा प्यार है।

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

पाकिस्तान को लेकर पुण्य प्रसून की दो टूक, पढ़िए

पुण्य प्रसून बाजपेयी

दुनिया के तमाम अंतर्राष्ट्रीय बॉर्डर से कही ज्यादा रौशनी वाली 2900 किलोमीटर लंबी भारत पाकिस्तान सीमा पर डेढ़ लाख प्लड लाइट इसलिये चमकते हैं क्योंकि ये सीमा दुनिया की सबसे खतरनाक सीमा में तब्दील हो चुकी है । और दुनिया की नजर भारत पाकिस्तान न को लेकर इसीलिये कहीं तीखी है कि अगर युद्ध छिड़ा तो युद्ध परमाणु हथियारो के उपयोग तक ना चला जाये । इसीलिये माना यही जा रही है कि संयुक्त राष्ट्र जनरल एसेंबली की बैठक कल जब शुरु होगी तो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी पाकिस्तान न की जमीन से हो रहे आतंक के मुद्दे को उठायेंगे । और भारतीय जवानों के मारे जाने पर शोक व्यक्त जरुर करेंगें । और इसी के बाद ये सवाल बडा हो जायेगा कि संयुक्त राष्ट्र में जब भारत पाकिस्तान न का मुद्दा उठेगा तो क्या सेना पर हुये अबतक के सबसे बड़े हमले के बाद -भारत खामोश रहकर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान न को आतंकी देश घोषित करवाने और आर्थिक पाबंदी लगवाने की दिशा में जायेगा । या फिर पाकिस्तान के खिलाफ सैनिक युद्ध की दिशा में कदम बढायेगा । अगर भारत अंतराष्ट्रीय मंच का सहारा लेता है तो पाकिस्तान न के लिये कशमीर पर बहस छेडना आसान हो जायेगा । जिसकी शुरुआत पाकिस्तानी राष्ट् पति नवाज शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र जनरल असेबली की बैठक से पहले न्यूयार्क पहुंचकर कर शुरु भी कर दी है । और अगर भारत युद्ध की दिशा में बढता है तो संयुक्त राष्ट्र ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम मंचों पर इसी बात की ज्यादा सुगबुगाहट शुरु हो जायेगी कि युद्ध अगर परमाणु युद्ध में तब्दील हो गया तो क्या होगा । यानी भारत के साथ खड़ा अमेरिका भी युद्ध नहीं चाहेगा । तो फिर भारत के सामने अब रास्ता क्या है । क्योकि पहली बार भारत के सामने अपने तीन सवाल है । पहला आंतरिक सुरक्षा डॉवाडोल है । दूसरा, युद्ध के लिये 10 दिन से ज्यादा गोला बारुद भारत के पास नहीं है । और तीसरा पाकिस्तान न के पीछे चीन खडा है । तो क्या भारत के पीछे अमेरिका खडा होगा ।

जाहिर है हर हालातो पर साउथ ब्लाक से लेकर 7 आरसीआर तक बैठकों में जिक्र जरुर हो रहा है । तो क्या वाकई भारत के लिये सबसे मुश्किल इम्तिहान का वक्त है । क्योंकि आतंक की जमीन पाकिस्तान न की है । हमला आतंकी है । और जो भारत की सीमा के भीतर घुसकर छापामार तरीके से किया गया है । ऐसे में युद्ध के तीन तरीके है । गुप्त आपरेशन , पारंपरिक युद्ध और परमाणु युद्ध । यानी पाकिस्तान करे खिलाफ कारावाई के यही तीन आधार है । जो युद्ध की दिशा में भी भारत को ले जाता है । और युद्ध पर भारत का रुख डिटरेन्स वाला है । लेकिन हमेशा डिटेरेन्स अपनायेंगे तो फिर सेना की जरुरत ही क्या है इसपर भी सवालिया निशान लग जायेगा । तो डिपलॉमैसी और अंतराष्ट्रीय मंच के सामानांतर पहला विकल्प गुप्त आरपेशन का है । और गुप्त आपरेशन का मतलब है बिना पारंपरिक युद्ध के ट्रेड कमांडोज के जरीये पीओके में आंतकी कैप को ध्वास्त करना । फिर पाकिस्तान न में रह रहे कश्मीरी नुमाइन्दो को निपटाना । और तीसरे स्तर पर जो भारत विरोधी पाकिस्तान में आश्रय लिये हुये है उनके खिलाफ पाकिस्तान न में ही गुप्त तरीके से आपरेशन को अंजाम देना । यानी ये कारावाई हिजबुल चीफ सैयद सलाउद्दीन से लेकर दाउद तक के खिलाफ हो सकती है । और पीओके से लेकर पेशावर और मुरीदके से लेकर कराची तक आंतकी कैप ध्वस्त किये जा सकते हैं । जबकि पारंपरिक युद्ध और परमाणु युद्ध का मतलब है समूची दुनिया को इसमें इन्वाल्व करना । क्योकि भारत की हालात अमेरिका या इजरायल वाली नहीं है जो अपने खिलाफ कार्रवाई को अंजाम देने के लिये हवाई स्ट्राइक करने से नहीं कतराते । भारत की मुश्किल ये हैा अगर वह सीमा पर ग्राउंड सेना को जमा करता है और एयर स्ट्रईल की इजाजत दे देता है तो काउंटर में पाकिस्तान न के साथ हर तरह के युद्ध के लिये समूची रणनीति पहले से तैयार रखनी होगी । यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है युद्ध के हालात परमाणु युद्ध तक कही ना चले जाये । मुश्किल ये है कि पाकिस्तान न को कश्मीर का सवाल ही एकजूट किये हुये है । और कश्मीर के भीतर पाकिस्तानी आंतक को पनाह देने से लेकर हर जरुरत मुहैया कराने में कही ना कही कशमीरी है । फिर सरकार की ही रिपोर्ट बताती है कि बीते तीन महीनो में हिजबुल में शामिल होने वाले नये कश्मीरियों की संख्या तेजी से बढी है । यानी कश्मीर में सेना से इतर राजनीतिक-सामाजिक चेहरो को तलाशना होगा जो दिल्ली के साथ खडा हो ना कि पाकिस्तानी आतंक के साथ । लेकिन इस दौर में कश्मीर में हिंसा को लेकर या पाकिस्तान न की कश्मीर में दखल के बावजूद दिल्ली की खामोशी में आम लोगो का गुस्सा जायज है कि पाकिस्तान पर हमला क्यों नहीं कर सकते । क्योंकि पाकिस्तान से आए आतंकवादियों ने कोई पहली बार जवानों पर हमला नहीं किया। देश चाहता यही है कि भारत उठे और पाकिस्तान को सबक सिखा दे। लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या भारत पाकिस्तान को युद्ध में फौरन पटखनी दे सकता है?

ये सवाल इसलिए क्योंकि बीते साल सीएजी की रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया कि भारतीय सेना के पास सिर्फ 15-20 दिन तक युद्ध लड़ने का गोला-बारुद है । स्वदेशी लड़ाकू जहाज तेजस भी युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है । कुछ खास गोला-बारुद का रिजर्व तो महज 10 दिन के लिए ही है । तो याद कीजिए तो कारगिल युद्ध 67 दिन तक चला था। लेकिन-उस वक्त दोनों सेनाएं एक खास इलाके में लड़ रही थीं। यानी अगर पूरी तरह से युद्ध हुआ तो भारत के पास पर्याप्त गोला-बारुद नहीं है। जबकि आदर्श हालात में वॉर वेस्टेज रिजर्व्स कम से कम 40 दिन का होना चाहिए । और ऐसा नहीं है कि सरकार इस बात को नहीं जानती। क्योंकि मार्च 2012 में जनरल वीके सिंह ने सरकार को खत लिखकर साफ साफ कहा था कि सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं है । और तब बीजेपी ने मनमोहन सरकरा पर सवाल उठाया था कि सेना इनकी प्रथमिकता में है ही नहीं । फिर इसी सत्र में स्टैंडिंग कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि एंटी मैटेरियल गन, मल्टीपल ग्रैनेड लॉन्चर और 120 एमएण आर्टिलरी गोले तक की सेना में खासी कमी है । और गोला-बारुद क्यों नहीं है। इसकी कई वजह हैं। इनमें सेना को पर्याप्त फंड न मिलने के राजनीतिक कारण से लेकर आय त की समस्या, आयुध फैक्ट्रियों में पर्याप्त प्रोडक्शन न होना और नौकरशाही की समस्या तक कई वजह हैं। आलम ये कि 2008 से 2013 के लालफीताशाही के वजह से तय ऑर्डर का सिर्फ 20 फीसदी ही गोलाबारुद आयात हुआ। लेकिन मुद्दा सिर्फ इतना नहीं है कि लंबे युद्ध के लिए भारत के पास पर्याप्त गोलाबारुद नहीं है। दरअसल,पाकिस्तान ने आतंक को पोसने की अपनी रणऩीति में भारत को ऐसा उलझाया है कि भारतीय सेना युद्ध पर कम और दूसरे मामलों में ज्यादा उलझ गई। मसलन कारगिल युद्ध के बाद सेना के 12 हजार से ज्यादा जवान कारगिल में अटक गए । 26/11 यानी मुंबई हमले ने भारतीय नौसेना को समुद्री तटों की रखवाली में ज्यादा उलझा दिया। महंगे समुद्री पोत भी इसी काम में लगाए गए । एलओसी पर फैंसिंग ने सेना को डिफेंसिव मोड में रखा यानी भारतीय सेना की हदें तो तय हो गई अलबत्ता आतंकी और उनके हैंडलर्स आसानी से फैंसिंग को धता बताकर घुसपैठ करते रहे । और घुसपैठ विरोधी ऑपरेशन्स को अंजाम देने का जो काम पैरामिलिट्री फोर्स के पास होना चाहिए-भारतीय सेना को वो काम सौंप दिया गया। यानी युद्ध की बात से पहले युद्ध की पूरी तैयारी जरुरी है। क्योंकि एक बड़ा सच ये भी है कि हर आंतकी हमले के द पीएम से लेकर रक्षा मंत्री और गृहमंत्री से लेकर समूची सरकार ही नहीं बल्कि हर राजनीतिक दल ही जिस तरह सियासत शुरु कर देता है उसमें लगता यही है कि देश में सैनिक , अद्सैनिक बल या एनआईए या किसी भी स्तर पर सुरक्षाकर्मी कोई मायने रखता ही नहीं बल्कि सुरक्षा का हर बंदोबस्त राजनेताओ के कंघे पर है ।

और असर इसी का है कि आंतरिक सुरक्षा का मसला गंभीर होते हुए भी इस पर कोई ठोस नीति नहीं है । हालत ये है कि आंतक पर राज्य और केन्द्र के बीच कोई तालमेल नहीं है । तमाम एंजेसियो के बीच खुफिया सूचनाओ के आदान प्रदान की स्थिति अच्छी नहीं है ।साइबर-इंटेलीजेंस का हाल खस्ता है । आधुनिक हथियार और आधुनिक उपकरणो की खासी कमी है । इसीलिये सवाल सिर्फ तीन दिन पहले उडी में हमले का नहीं बल्कि उससे पहले पठानकोट । उससे पहले मणिपुऱ में उससे पहले मुबई में और उससे पहले कालूचक में । और इन सबके बीच करीब दर्जन भर आंतकी हमले ऐसे हुये जिसमें पहले सो कोई अल्रट नहीं था । तो क्या आंतरिक सुऱक्षा पूरी तरह फेल है और अब वक्त आ गया है कि आंतरिक सुरक्षा का काम भी सेना को दे दिया जाये । क्योकि इस बार भी हमले के शोरगुल में एलओसी से लगती उड़ी की सैन्य छावनी पर हमले के दौरान सुरक्षा चूक की बात अनदेखी रह गई, जिसकी वजह से हमला आसान हुआ।

(लेखक के ब्लॉग से साभार)

पत्रकारिता के विद्यार्थियों ने समझा युद्ध कौशल




भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के विद्यार्थियों ने बैरागढ़ में सेना द्वारा विकसित युद्ध स्थल का भ्रमण किया। यहाँ सेना के अधिकारियों ने विद्यार्थियों को सैन्य गतिविधियों, सैन्य उपकरणों और युद्ध कौशल की जानकारी दी। इसके साथ ही विद्यार्थियों ने वृतचित्र (डॉक्यूमेंट्री) के जरिये सैन्य जीवन की चुनौतियों को भी समझा। सेना और देश की सुरक्षा के सम्बन्ध में तथा युद्ध के अवसर पर पत्रकारिता करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, इस सम्बन्ध में भी सेना के अधिकारियों ने विद्यार्थियों को महत्वपूर्ण सुझाव दिए।

बैरागढ़ स्थित सैन्य क्षेत्र में अध्ययन भ्रमण के लिए गए जनसंचार विभाग के विद्यार्थियों ने सेना के कर्तव्य और सेना की संगठनात्मक संरचना की जानकारी प्राप्त की। इस दौरान उन्होंने सेना परिसर में स्थित युद्ध में उपयोग किये जाने वाले घातक अस्त्र-शस्त्र एवं अन्य सैन्य उपकरणों का न केवल अवलोकन किया, बल्कि उनके सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी भी प्राप्त की। विद्यार्थी यहाँ प्रदर्शित शहीदों के चित्रों के जरिये उनके बलिदान से भी रूबरू हुए। सेना के अधिकारियों ने बताया कि सेना देश की सीमाओं की रक्षा ही नहीं करती है, बल्कि इसके अलावा शांति और सेवा के क्षेत्र में भी बड़े स्तर पर काम करती है।

पर्यटन के रूप में विकसित किया जा रहा है युद्धस्थल : सेना के अधिकारियों के विद्यार्थियों को बताया कि बैरागढ़ में सेना द्वारा विकसित युद्ध स्थल को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। भविष्य में यहाँ पर्यटक सैन्य गतिविधियों को अनुभव कर पाएंगे।




एमसीयू में यूथ पीस फाउंडेशन द्वारा ‘टॉक फॉर पीस’ का आयोजन

भोपाल : 24 सितम्बंर ! माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीरय पत्रकारिता एवं संचार विश्व विद्यालय में आज अतंरराष्ट्री य शांति दिवस को लेकर ‘टॉक फॉर पीस’ का आयोजन किया गया। विश्वटविद्यालय और यूथ पीस फांउडेशन के संयुक्तं तत्वारवधान में आयोजित इस कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कुलाधिसचिव श्री लाजपत आहूजा ने कहा कि आज देश में जिस तरह का वातावरण निर्मित हो रहा है, उसमें शांति की आवश्याकता अधिक महसूस होती है। शांति का संदेश सही तरीके से और सही जगह पहुंचना चाहिए। सुनने और मन की शांति के बीच के संबंध को लेकर उन्हों ने कहा कि हम समझने के लिए सुनना नहीं चाहते, बल्कि केवल जवाब देने के लिए सुनते है।
इस अवसर पर कुलसचिव श्री दीपक शर्मा ने कहा कि विषय के महत्वु हो दृष्टिगत रखते हुए यह कार्यक्रम आयोजित किया गया है। शांति अद्भूत चीज है और इसे पाना भी आसान है। लेकिन वर्तमान परिवेश में इसे पाने के तरीके कठिन लगते है। समाज में ऐसे मापदंड स्थाीपित हो गए है जिससे हम अशांत रहते है। वर्तमान प्रतिस्प र्धा का उल्लेमख करते हुए उन्होंहने कहा कि हमे ‘पैराडाइम शिफ्ट’ करना पड़ेगा। जीवन के उद्देश्य परिवर्तित करने पड़ेगे । प्रतिस्प्र्धा की जगह जीवन मूल्योंं की स्थािपना को महत्व देना होगा। भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जो विश्वे को शांति का संदेश दे सकता है।

कार्यक्रम के मुख्यश अतिथि और यूडीप वेलफेयर सोसायटी की लीडर सुश्री पूनम श्रोती ने कहा कि हम जो दिल से करना चाहते है , अगर वह करे तब शांति मिलती है। शांति पर चर्चा करने के साथ हमें उसके सूत्रों को जीवन में भी अपनाना चाहिए। बिग एफएम की आरजे सुश्री अनादि ने भी कार्यक्रम को संबोधित किया। इस अवसर पर ‘टॉक फॉर पीस’ के विजेता अजय दुबे, शगुफ्ता अहमद और शुभम द्विवेदी को सम्माोनित किया गया। विज्ञापन एवं जनसम्प र्क विभागाध्यतक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तशव ओर मीडिया प्रबंधन विभागाध्यनक्ष डॉ. अविनाश बाजपेयी ने अतिथियों का स्वानगत किया। यूथ फांउडेशन के स्व यंसेवकों ने शॉर्ट फिल्मोंा के माध्य्म से जीवन में शांति के महत्वथ को बताया। अंत में शांतिदूत श्री प्रेम रावत के संबोधन की फिल्मे प्रदर्शित की गई। सुश्री निधि चौहान ने कार्यक्रम का संचालन किया।

राष्ट्रभक्त चैनल ‘उड़ी’ का नाम तो शुद्ध लिखें

जवानों की शहादत के बाद ‘उड़ी’ चर्चा में है. लेकिन समाचार पत्रों से लेकर समाचार चैनलों में उड़ी को दो तरह से लिखा जा रहा है. कोई ‘उड़ी’ लिख रहा है तो कोई ‘उरी’. इसी मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने स्थिति साफ़ करते हुए लिखा –

उड़ी को हिंदी पत्रकार – छापे के भी, टीवी वाले भी – उरी क्यों लिख रहे हैं? मैंने हमेशा उड़ी सुना है। उरी पढ़कर मैंने जम्मू के मित्रवर Ramesh Mehta से तसल्ली करनी चाही। उन्होंने लिखकर भेजा कि उड़ी ही सही है, उरी नहीं! अपने देश के ठिकानों के नाम तो हम सही लिखें, वरना पत्रकारों के पीछे लोग भी ग़लत लिखेंगे-बोलेंगे!

  • Akhilesh Sharma सही बात है सर। मैंने भी हमेशा ही उड़ी ही लिखा, पढ़ा और बोला है। हिंदी अखबार भी वही लिख रहे हैं। पर चैनल वाले जो करे वो कम है। अब समय आ गया है कि गलत बोलने वाले हिंदी टीवी पत्रकारों के नाम भी बिगाड़ कर बोले जाएँ। तब शायद सुधरें।
  • Shakeel Akhtar उरी सही है। कश्मीरी में यही उच्चारण है। करगिल के समय हमने वहां से लिखा था कारगिल नहीं करगिल। जम्मू – कश्मीर में बहुत भाषाई विभिन्नता है।जम्मू में डोगरी, कश्मीर में कश्मीरी और लद्दाख में लद्दाखी बोली जाती है यह बहुत मोटा ( सरलीकृत) विभाजन है। हमने इस पर कई बार लिखा है। जैसे यहां श्रीनगर बोलते हैं वहां श्र का इस्तेमाल नहीं होता इसलिए स्रीनगर बोलते हैं। स से। जैसे राजस्थान में तिवाड़ी होता है म प्र, उ प्र, दिल्ली में तिवारी

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