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एबीपी न्यूज़ का देशभक्ति के नाम पर युद्धोन्माद,मोदी राज में दबाव में संपादक

milind khandekar abp news

आनंद बाज़ार पत्रिका समूह की ठीक-ठाक छवि रही है। हालाँकि व्यावसायिकता उसमें कूट-कूटकर भरी हुई है, मगर इसके बावजूद वह एक स्तर बनाए रखता था। कम से कम सनसनीखेज़, उन्मादी एवं अधविश्वासी पत्रकारिता से तो वह परहेज करके चलता था। मगर अब उसके मालिकान एकदम से औंधे मुँह गिरते दिख रहे हैं।

एबीपी न्यूज़ का जो हाल पिछले दो-तीन महीनों में हुआ है उसे देखकर लगता है कि उसने उसके संपादकों पर गिरती टीआरपी को थामने के लिए ऐसा दबाव बनाया है जिससे वे टेबलॉयड पत्रकारिता का दामन थामने के लिए विवश हो गए हैं। देशभक्ति के नाम पर वह युद्धोन्मादी होता दिख रहा है, सनसनी अब उसका एक कार्यक्रम भर नहीं रहा, बल्कि वह उसके पूरे चरित्र का हिस्सा बन गई है और कई बार तो अर्धसत्यों को भी वह सच की तरह पेश करता हुआ दिखलाई देने लगा है। निर्मल बाबा प्रकरण के बाद उसने ज्योतिष के कार्यक्रम बंद करने की घोषणा की थी, मगर अब वे फिर से सजने लगे हैं।

पहले एबीपी ऐसा नहीं था। उसके कंटेंट में गंभीरता दिखती थी और वह लगातार नए-नए प्रयोग भी करता रहता था। वास्तव में हिंदी चैनलों में वही सबसे अच्छा हुआ करता था। उसकी एक विशिष्ट पहचान हुआ करती थी।

क्या ये मोदी राज का प्रभाव है जो सब तरफ दिख रहा है या फिर आनंद बाज़ार समूह को लग रहा है कि प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए नीचे गिरना ज़रूरी है? हो सकता है दोनों बातें सच हों मगर है ये बुरा ही, उसके लिए भी और मीडिया के लिए भी।

हालाँकि यहाँ ये सवाल भी बनता है कि जब सब कीचड़ में गुलाटियाँ मार रहे हों तो एबीपी को ही कठघरे में क्यों खड़ा किया जाए?

मुकेश कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

ओला कैब के नाम से ही अब डर लगता है केजरीवाल सर

ब्रजेश कुमार

मुसीबत की मारी, ओला की सवारी ! ओला की मुसीबत की सवारी एक पैसेंजर की जुबानी




ब्रजेश कुमार
ब्रजेश कुमार

गाँव से एक भाई अपने बच्चे का इलाज कराने के लिए एम्स आए हैं. इस कार्य के सन्दर्भ में हमने आवागमन के साधन के रूप में ‘ओला’ का चुनाव किया मगर ओला ने जो अनुभव दिए, वो भूलने लायक नहीं है

केस नंबर : 1
दिंनाक 25 सितम्बर को वसुंधरा सेक्टर 15 ग़ाज़ियाबाद से मुनिरका (दिल्ली) के लिय “मिनी” बुक किया तो मारुती eccho एकदम खटारा गाडी भेज दी, जिसका नतीजा रहा है की सामान्य समय से ज्यादा समय लिया, नतीजा ज्यादा पैसा देना पड़ा !

केस नंबर : 2
दिनांक 25 सितम्बर को मुनिरका(दिल्ली) से वसुंधरा सेक्टर 15 के लिय 2 गाडी बुक की एक के बाद एक कहने लगे सर मेरा हरियाणा नंबर गाडी है मैं ग़ाज़ियाबाद नहीं जायूँगा, नहीं मैं कैंसिल करूँगा ! अंततः तीसरी गाडी लेनी पड़ी जो UP नंबर की थी ! तबतक वो।बीमार बच्चा और बीमार हो चूका था !

केस नंबर :3
आज दिनांक 26 सितम्बर को वसुंधरा सेक्टर 15 से हौज खास के लिय बुक किया जिसका किराया आप निचे देख सकते है ! बिहारी समझ के ये भी दिल्ली के ऑटो वाले के तरह लूट लिया और 300 रूपये टोल टैक्स के रूप में ले लिया ! नतीजा किराया आपके सामने है !

और अंततः दिल्ली के मुख्यमंत्री माननीय #ArvindKejriwal के डंडे के बाबजूद भी ये ऐप बेस्ड सवारी गाडी वाले दुगने, तिगुने किराये वसूलने से पीछे नहीं हट रहे है !

गाँव से आया भाई तो ओला के नाम से ही अब डरने लगा है !

ola-cab-fare

@fb




दिलीप मंडल के जातिवादी निशाने पर राजदीप सरदेसाई और रक्षा मंत्री पर्रिकर

लोकप्रिय हस्तियों की जाति खोजने और उसे निशाने पर लेने में दिलीप मंडल का कोई सानी नहीं. दरअसल सोशल मीडिया पर उनकी पहचान ही इसी से है. इसी बात को लेकर कुछ लोग उनसे नफरत करते हैं तो कुछ उनके फॉलोवर हैं. आपको याद होगा कि रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर को लेकर राजदीप सरदेसाई ने एक ट्वीट किया था जिसके बाद दिलीप मंडल ने फेसबुक पर राजदीप की खिंचाई की थी. राजदीप ने ट्वीट किया था –

Big day for my goa. Two GSBs, both talented politicians become full cabinet ministers. Saraswat pride!! @manoharparrikar and Suresh Prabhu.

दिलीप मंडल ने एक बार फिर राजदीप सरदेसाई को निशाने पर लिया है और वजह दुबारा रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर बने हैं. दिलीप मंडल लिखते हैं –

स्वाहा!
जिस दौरान आतंकवादी उड़ी पर हमले की योजना बना रहे होंगे, तब हमारे रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर क्या कर रहे थे? ठीक एक हफ्ता पहले वे वडोदरा में मोहन भागवत के साथ यज्ञ कर रहे थे. यज्ञ करने और आने जाने में उन्होंने पूरा दिन निकाल दिया. इसलिए कि उस दिन भागवत जी का बर्थडे था.
इंडियन एक्सप्रेस की तस्वीर. फोटोग्राफर- भूपेंद्र राणा.
राजदीप सरदेसाई जी, ये हैं आपके गौड़ सारस्वत ब्राह्मण प्राइड. यही कहा था न आपने?
रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम जैसा होना चाहिए, जिन्होंने बांग्लादेश को आजाद कराते समय देश की रक्षा सेनाओं का नेतृत्व किया था.

शहाबुद्दीन नाम के चिरकुट का नाम सुन-सुन कर पक गया

विवेकानंद सिंह

शहाबुद्दीन नाम के चिरकुट का नाम सुन-सुन कर पिछले कुछ दिनों से थक गया हूँ। ऑफिस के कुछ साथी शाहबुद्दीन की ऐसी कहानियाँ सुना रहे हैं, जैसे साक्षात् कोई यमराज बाहर निकल आया हो। एक भाई ने कहा कि दम है, तो फेसबुक पर लिख कर दिखाइए। हमने कहा सीवान हो आता हूँ, तो उम्र में सीनियर एक भाई साहब ने मजाक उड़ाते हुए कहा कि दो-तीन डायपर साथ ले जाना, हो सकता है जरूरत पड़ जाये।

मीडिया का एक हिस्सा हाई कोर्ट के इस फैसले को लालू प्रसाद द्वारा नीतीश कुमार को पटकनी देने की साजिश का काउंटडाउन बता रही है। खबरों के नाम पर स्क्रिप्ट लिखे जा रहे हैं, चूँकि उनका छपना मुश्किल है, इसीलिए सोशल मीडिया पर भी उसे तैराया जा रहा है। ताकि जब वह मैसेज हर माँ तक पहुंचे, तो वह अपने बच्चे से बोले कि चुपचाप सो जा, शाहबुद्दीन बाहर आ गया है।

शाहबुद्दीन उम्रकैद की सजा भुगत रहा था, ऐसे में 11 साल बाद उसके बाहर निकलने पर, जो लोग जश्न मना रहे हैं और जो लोग हाय-तौबा मचाये हुए हैं। वे कमोवेश एक ही सिंड्रोम के शिकार हैं। अगर आपको लगता है कि कोर्ट के फैसलों में सरकार की मिलीभगत है और हाई कोर्ट के इस फैसले के लिए राज्य सरकार दोषी है, तो शाहबुद्दीन के प्रिय नेता लालू प्रसाद को सीबीआई कोर्ट से जमानत देने के लिए केंद्र सरकार भी दोषी है। लालू प्रसाद ही अगर बाहर न होते, तो आज शाहबुद्दीन भी नहीं निकलते! मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं कि बिहार में कानून का राज है, थोड़ा पीएम साहब की तरह अपने सीएम साहब पर भी भरोसा रखिए। कानून का राज इसीलिए है कि बाहुबली के परिवारवाले सत्ता के गलियारों में भ्रमण कर रहे हैं।

वैसे भी क्या बिहार में गुंडा-बहुबलियों का आभाव रहा है? हर मोहल्ले में कोई-न-कोई गुंडा है, जो अब या तो पार्षद बन गया है, या ठीकेदार। हम इन्हीं जैसों के बीच रहने के आदि हो चुके हैं। इनके आका विधायक से सांसद तक हैं। फ़ूड चैन की तरह इनका बाहुबली चैन है। इनके अंधसमर्थक भी हैं और अंधविरोधी भी! समर्थकों के लिए रॉबिनहुड और गैर समर्थकों के लिए यमराज। इनलोगों ने सुविधानुसार अपना इलाका बाँट रखा है। मोकामा से पटना फलाना सिंह, मुजफ्फरपुर से वैशाली चिलाना शुक्ला, पूर्णिया से मधेपुरा ढिमका यादव etc। कोई इलाका अछूता नहीं है। मैं जिस रजौन, बांका से हूँ, हाल के समय तक नक्सल प्रभावित रहा है। मैंने धान के खेत में हथियार के साथ रात गुजारनेवाले लोगों को देखा है। धीरे-धीरे वे मुख्यधारा में लौटे, आज उनमें से कुछ मुखिया भी हैं।

शाहबुद्दीन के बाहर निकलने पर भीड़ और जश्न में नया क्या है? यह तो इस राज्य की जनता का चरित्र है। बाथे-बथानी टोला नरसंहार के मुखिया के बाहर आने पर कम जश्न मना था क्या? गलत को गलत के उदाहरण से सही नहीं ठहरा रहा, बस बिहार का चरित्र बता रहा हूँ। बाकी न्याय कानून करे, जैसे करती आई है। प्रशांत भूषण जी ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर करने का फैसला लिया है। उनको मेरा नैतिक समर्थन है।

कश्मीर की विरासत पर उर्मिलेश की सियासत और अजीत अंजुम की टिप्पणी

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश की किताब का नया संस्करण
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश की किताब का नया संस्करण

उर्मिलेश उर्मिल,वरिष्ठ पत्रकार –

कश्मीर पर मेरी किताब आज आ गई। नये संस्करण में एक नया अध्याय जोड़ा गया है और एक अन्य अध्याय में हाल के घटनाक्रमों की रोशनी में कुछ जरूरी बातें शामिल की गई हैं। पुस्तक में कश्मीर के भारतीय संघ में अधिमिलन(अक्तूबर 1947)से लेकर जून-जुलाई 2016 तक के घटनाक्रमों को ठोस तथ्यों के साथ रखा गया है। सरहदी सूबे के आधुनिक इतिहास को हिन्दी पाठकों के सामने लाने का यह एक विनम्र प्रयास है। पढ़ें और अपनी राय दें तो मुझे अच्छा लगेगा। आपके सुझावों से अगले संस्करणों में सुधार भी हो सकेगा। इसके पहले, इसी सितंबर महीने में मेरी नयी किताब ‘क्रिस्टेनिया मेरी जान’ (आधार प्रकाशन) भी प्रकाशित हुई। वह मेरी कुछ विदेश यात्राओं का वृत्तांत है।

अजीत अंजुम

उर्मिलेश जी को मैं तब से जानता हूँ ,जब मैं ट्रेनी था …पटना नवभारत टाइम्स के तेज़ तर्रार रिपोर्टर उर्मिलेश की ख़बरें पढ़कर सोचा करता था कि एक दिन मैं भी इसी तरह धुआँधार लिखूँगा और छपूँगा …लेकिन कुछ साल तक अख़बारों की नौकरी करने के बाद टीवी की नौकरी से ऐसा टँगा कि आजतक टँगा हूँ …उर्मिलेश पटना के बाद दिल्ली आए ..कई सालों तक बड़े अख़बारों में काम करते रहे और देश दुनिया की यात्रा करते हुए लगातार लिखते रहे ..टीवी में काम करते हुए लिखने से उनका नाता बना रहा ..दिल्ली में सत्ता प्रतिष्ठान के क़रीबी पत्रकारों की श्रृंखला से बाहर रहकर उर्मिलेश ने ख़ुद ही अपनी अलग छवि गढ़ी और तमाम मुद्दों पर भीड़ का हिस्सा बनने की बजाय अपनी असहमतियों का इज़हार करते रहे …उनसे आप कई बार असहमत हो सकते हैं , मैं भी होता हूँ …लोकतंत्र में सबको अपने – अपने विचार रखने का हक़ है …उन्होंने अपने विचार को सियासी सौदागरों के हवाले करके या किसी के लिए मुनादी और किसी की डुगडुगी बजाकर ‘मोटा माल’ नहीं कमाया है .. उनके विचार आपको पूर्वाग्रही लग सकते हैं और इस दौर में तो ज़्यादातर लगेंगे क्योंकि ज़्यादातर एक ही तरफ़ दौड़ रहे हैं …कश्मीर मुद्दे पर उर्मिलेश ऐसा रुख़ अख़्तियार करते हैं , जिससे कई बार आंशिक तौर पर ही सही ,असहमत मैं भी होता हूँ …बतौर रिपोर्टर कश्मीर पर उन्होंने पहले भी काफ़ी लिखा है ..उनके तजुर्बे और उनकी समझ का सार उनकी इस किताब में हेगा …
पढ़ने का आकांक्षी मैं भी हूँ .

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