चिदम्बरम पर एनडीटीवी का सर्जिकल स्ट्राइक, क्या मोदी सरकार के सर्जिकल स्ट्राइक से जागा NDTV का राष्ट्रप्रेम ?
क्या मोदी सरकार के सर्जिकल स्ट्राइक से जागा NDTV का राष्ट्रप्रेम ?
सर्जिकल स्ट्राइक के बाद देश के अंदर तरह-तरह के सर्जिकल स्ट्राइक का दौर जारी है.ज़ुबानी जंग जोर-शोर से चल रहा है और न्यूज़ चैनल इसे दिखा-दिखा कर अपनी टीआरपी मीटर को तेजी से बढ़ा रहे हैं. बहरहाल एनडीटीवी को लेकर एक विवाद सामने आया है जिसके जोर पकड़ने के आसार दिख रहे हैं.
दरअसल एनडीटीवी 6 अक्टूबर को पूर्व केंद्रीय मंत्री पी.चिदम्बरम का इंटरव्यू अपने चैनल पर प्रसारित करने वाला था. चैनल पर बाकायदा इंटरव्यू का प्रोमो भी चला.लेकिन निर्धारित समय पर इंटरव्यू नहीं चला. हां एक ग्राफिक पट्टी जरूर चली जिसमें ग्राफिक लिखा था – ”राष्ट्रीय सुरक्षा का राजनीति के लिए समझौता नहीं किया जा सकता. वर्तमान राजनीतिक बहस इस तरह की चुनौती पेश कर रही है.एनडीटीवी ऐसी कोई बात नहीं करेगा जिससे राजनीतिक फायदे के लिए राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा हो.”
ग्राफिक संदेश का प्रसारण क्रमशः हिंदी और अंग्रेजी में एनडीटीवी इंडिया और एनडीटीवी पर हुआ. यह इंटरव्यू बरखा दत्त ने लिया था और इस इंटरव्यू में चिदम्बरम रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर की सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे पर खिंचाई करते नज़र आ रहे थे.
चिदम्बरम के इंटरव्यू के ड्रॉप होने से खफा कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरेजवाला ने मोदी सरकार को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए ट्वीट किया – A fascist Modi Govt throttles NDTV from showing the truth. Dictatorship can’t suppress, strangle reality. Media must standup & be counted.
अब सवाल उठता है कि एनडीटीवी ने चिदम्बरम का इंटरव्यू राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र नहीं दिखाया या फिर मोदी सरकार के भय से उसका राष्ट्रप्रेम जाग गया.
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में संदीप अधवार्व्यु का कार्टून। - साभार
दो मुल्कों की कहानी कुछ यूँ है बेगानी . कहीं सेना राजनीति तो कर रही है तो कहीं सेना के साथ राजनीति हो रही है. टाइम्स ऑफ़ इंडिया में संदीप अधवार्व्यु का कार्टून।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में संदीप अधवार्व्यु का कार्टून। – साभार
एनडीटीवी इंडिया के रवीश कुमार और ज़ी न्यूज़ के सुधीर चौधरी दो विचारधारा के लोग हैं. सो दोनों के बीच तकरार होना लाजमी ही है. कई बार ये खुल्लमखुला होता है तो कई दफे इशारों-इशारों में ही काम हो जाता है. ट्विटर पर ऐसा पहले भी हो चुका है. 7अक्टूबर को लिखे लेख में रवीश ने अप्रत्यक्ष तरीके से सुधीर चौधरी पर ही निशान साधा है. उन्होंने लिखा –
“सरकार परस्ती करने वाले चैनलों का मनोबल तो पहले से ही बढ़ा हुआ था। आपको कब लग रहा था कि उनमें मनोबल की कमी है। कुछ डर गए तो सुरक्षा बल भी प्रदान कर दिया गया। जिनसे सरकार को डर लगता है उन्हें खुला छोड़ दिया गया।”
हालांकि उन्होंने चैनल या पत्रकार का नाम नहीं लिखा है.लेकिन समझने वाले के लिए इशारा ही काफी है कि सरकारपरस्त चैनल कौन है और इसे किस सरकारी पत्रकार को सरकारी सुरक्षा मिली हुई है.इसके पहले सुधीर चौधरी ने भी जेएनयू मसले पर अफज़ल गैंग के पत्रकार नाम से संबोधित कर तंज कसते हुए रवीश पर तंज कसते हुए ट्विटर पर लिखा था –
1-कुछ news anchors तो पहले ही Reality और entertainment Shows की शोभा बढ़ा रहे हैं,अब फ़िल्म Producers को नया टैलेंट न्यूज़ से उठाना चाहिए।
2-कुछ पत्रकारों को अब बॉलीवुड चले जाना चाहिए।अच्छे डायलाँग लिख लेते हैं.TV के स्पेशल इफ़ेक्ट्स भी समझ गए हैं लेकिन विचारधारा कहाँ से लाएँगे?
3-TV पत्रकार और कलाकार का अंतर काफ़ी कम होता जा रहा है।TV ऐंकर्स अब ऐक्टरस को पीछे छोड़ रहे हैं।मनोरंजन जगत के लिए शुभ संकेत है।लेकिन न्यूज़?
फिलहाल पढ़िए रवीश का पूरा लेख जो उनके ब्लॉग ‘नई सड़क’ से साभार लिया गया है –
भांड पत्रकारिता के दौर में देश का मनोबल बढ़ा हुआ है रवीश कुमार October 07, 2016 99 Comments बलों में बल मनोबल ही है। बिन मनोबल सबल दुर्बल। संग मनोबल दुर्बल सबल। मनोबल बग़ैर किसी पारंपरिक और ग़ैर पारंपरिक ऊर्जा के संचालित होता है। मनोबल वह बल है जो मन से बलित होता है। मनोबल व्यक्ति विशेष हो सकता है और परिस्थिति विशेष हो सकता है। बल न भी रहे और मनोबल हो तो आप क्या नहीं कर सकते हैं. ये फार्मूला बेचकर कितने लोगों ने करोड़ों कमा लिये और बहुत से तो गवर्नर बन गए। जब से सर्जिकल स्ट्राइक हुई है तमाम लेखों में यह पंक्ति आ जाती है कि देश का मनोबल बढ़ा है। हमारा मनोबल स्ट्राइल से पहले कितना था और स्ट्राइक के बाद कितना बढ़ा है,इसे कोई बर्नियर स्केल पर नहीं माप सकता है। तराजू पर नहीं तौल सकता है। देश का मनोबल क्या होता है, कैसे बनता है, कैसे बढ़ता है, कैसे घटता है।
स्ट्राइक से पहले बताया जा रहा था कि भारत दुनिया की सबसे तेज़ बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है,क्या उससे मनोबल नहीं बढ़ा था, विदेशी निवेश के अरबों गिनाये जा रहे थे, क्या उससे मनोबल नहीं बढ़ा था, दुनिया में पहली बार भारत का नाम हुआ था, क्या उससे मनोबल नहीं बढ़ा था, इतने शौचालय बन गए, सस्ते में मंगल ग्रह पहुंच गए, रेल बजट भी समाप्त हो गया, योजना आयोग नीति आयोग बन गया, क्या उससे मनोबल नहीं बढ़ा। मनोबल कितना होता है कि इन सबसे भी पूरा नहीं बढ़ता है। हम कैसे मान लें कि सेना के सर्जिकल स्ट्राइक से मनोबल पूरी तरह बढ़ गया है। अब और बढ़ाने की गुज़ाइश नहीं है। देश का मनोबल एक चीज़ से बढ़ता है या कई चीज़ों से बढ़ता है। एक बार में बढ़ता है या हमेशा बढ़ाते रहने की ज़रूरत होती है। इन सब पर बात होनी चाहिए। मनोबल को लेकर अलबल नहीं होना चाहिए।
सर्जिकल स्ट्राइक के बाद देश का मनोबल बढ़ा हुआ बताने वाले तमाम लेखकों के ढाई साल पुराने पोस्ट देखिये। उनके जोश और उदंडता से तो नहीं लगेगा कि मनोबल की कोई कमी है। सोशल मीडिया पर गाली देने वालों का कितना मनोबल बढ़ा हुआ है। वो लगातार महिला पत्रकारों को भी तरह तरह से चित्रित कर रहे हैं। उनका कोई बाल बांका नहीं कर पा रहा है। फिर हम कैसे मान लें कि देश का मनोबल बढ़ा हुआ नहीं था। ये देश का मनोबल कहीं किसी दल का मनोबल तो नहीं है। 80 फीसदी गौ रक्षकों को फर्ज़ी बताने के बाद भी मनोबल नहीं घटा। रामलीला में नवाज़ुद्दीन को मारीच बनने से रोकने वालों का मनोबल क्या सर्जिकल स्ट्राइक के बाद से बढ़ा हुआ है या पहले से ही उनका मनोबल बढ़ा हुआ है। क्या इसलिए मनोबल बढ़ा है कि नवाज़ को रामलीला से निकाल देंगे। हत्या के आरोप में बंद नौजवान की दुखद मौत पर क्या लिखा जाए। लेकिन उसे तिरंगे से लिपटाना क्या ये भी बढ़े हुए मनोबल का प्रमाण है।
सरकार परस्ती करने वाले चैनलों का मनोबल तो पहले से ही बढ़ा हुआ था। आपको कब लग रहा था कि उनमें मनोबल की कमी है। कुछ डर गए तो सुरक्षा बल भी प्रदान कर दिया गया। जिनसे सरकार को डर लगता है उन्हें खुला छोड़ दिया गया। क्या किसी मनोबल की कमी के कारण दर्शक पाठक पत्रकारिता के इस पतन को स्वीकार कर रहे है। इतिहास उन्हें कभी न कभी अपराधी ठहरायेगा। वक्त इंसाफ करेगा कि जब पत्रकारिता सरकार की भांड हो रही थी तब इस देश के लोग चुपचाप पसंद कर रहे थे क्योंकि उनका मनोबल इतना बढ़ गया था कि वे अपनी पसंद की सरकार और पत्रकारिता की स्वायत्तता में फर्क नहीं कर सके। वे चैनलों को ही सरकार समझ बैठे थे। कहना मत कि वक्त पर नहीं बताया। इसी कस्बा पर दस साल से लिख रहा हूं। चैनल ग़ुलाम हो गए हैं। हम मिट चुके हैं। हम मिटा दिए गए हैं।
जब जनता ही साथ नहीं है तो पत्रकार क्या करे। बेहतर है अख़बार के उस कागज़ पर जूता रगड़ दिया जाए जिस पर लिखकर हम कमाते हैं। उसे न तो पत्रकारिता की ज़रूरत है न पत्रकार की। एक भांड चाहिए,सो हज़ारों भांड दे दो उसे। ठूंस दो इस देश के दर्शकों के मुंह में भांड। दर्शकों और पाठकों की ऐसी डरपोक बिरादरी हमने नहीं देखी। इन्हें पता नहीं चल रहा है कि हम पत्रकारों की नौकरी की गर्दन दबा कर लाखों करोड़ों को ग़ुलाम बनाया जा रहा है। मेरे देश की जनता ये मत करो। हमारी स्वतंत्रता के लिए आवाज़ तो उठाओ। हमारी कमर तोड़ दी गई है। हमीं कितना तपे आपके लिए। आप रात को भांडगिरी का नाच देखिये और हम नैतिकता का इम्तहान दे। कौन से सवाल वहां होते हैं जो आप रातों को जागकर देखते हैं। सुबह दफ्तर में इस भांडगिरी की बात करते हैं। खुजली है तो जालिम लोशन लगाइये। टीवी के डिबेट से और पत्रकारिता की भांडगिरी से मत ठीक कीजिए। आपके सवालों को ठिकाने लगाकर आपको चुप कराया जा रहा है और आप खुश हैं कि मनोबल बढ़ गया है।
फिर कौन कहता है कि मनोबल गिरा हुआ था। फिर कैसे मान ले कि मनोबल बढ़ा हुआ है। जब देश का मनोबल बढ़ा था तब लुधियाना के किसान जसवंत का मनोबल क्यों नहीं बढ़ा। क्यों वह पांच साल के बेटे को बांहों में भर कर नहर में कूद गया। तब तो सर्जिकल स्ट्राइक हो गई थी। क्या फिर भी उसका जीने का मनोबल नहीं बढ़ा। क्या तब भी उसे यकीन नहीं हुआ कि वह भी एक दिन भारत से भाग सकता है। जब भारत की सरकार माल्या को सात महीने से वतन नहीं ला सकी तो दस लाख वाले कर्ज़े के किसान को भारत लाने के लिए करोड़ों खर्च कभी कर सकती है। कभी नहीं करेगी। काश जसवंत माल्या होता। अपने जिगर के टुकड़े को सीने से दबाये नहर में नहीं कूदता। लंदन भाग जाता। जसंवत की मौत पर पंजाब की चुप्पी बताती है कि वाकई उनका मनोबल बढ़ा हुआ है। उन्हें अब जसवंत जैसे किसानों की हालत से फर्क नहीं पड़ता है। लोगों को मनोबल मिल गया है। कोई बताये कि कर्ज़ से दबे किसानों का भी मनोबल बढ़ा होगा क्या। हम इस पंजाब को नहीं जानते। हम इस पंजाबीयत को नहीं जानना चाहते। लंदन कनाडा की चाकरी करते करते, हमारा वो जाबांज़ पंजाब ख़त्म हो गया है। आप कहते हैं देश का मनोबल बढ़ा हुआ है।
मान लीजिए मनोबल बढ़ा है। ये भी तो बताइये कि इस बढ़े हुए मनोबल का हम क्या करने वाले हैं। यूपी चुनाव में इस्तमाल करेंगे या कुछ निर्यात भी करेंगे। दुनिया के कई देशो में भी मनोबल घटा हुआ होगा। हम मनोबल निर्यात कर उनका हौसला तो बढ़ा सकते हैं। क्या हम मनोबल के सहारे पांच साल में बेरोज़गारी के उच्चतम स्तर पर पहुंचने का कार्यकाल और दस साल बढ़ा सकते हैं। क्या हमारे युवा इस बढ़े हुए मनोबल के सहारे और दस साल घर नहीं बैठ सकते हैं। क्या उत्तराखंड के उस दलित परिवार का भी मनोबल बढ़ा होगा जिसके बेटे की गरदन एक मास्टर ने काट दी। सिर्फ इस बात के लिए कि उसने चक्की छू दी। वो भी ठीक उसी दौरान जब सेना की कार्रवाई के कारण देश का मनोबल बढ़ा हुआ था।
सर्जिकल स्ट्राइक से जब देश का मनोबल बढ़ा हुआ है तब फिर यज्ञ कराने की ज़रूरत क्यों है। क्या देश का मनोबल बढ़ाने वाली सेना का मनोबल घट गया है। क्या सेना को भी यज्ञ की ज़रूरत पड़ गई। हर साल बारिश न होने पर यज्ञ की ख़बरें चलती हैं। टीवी चैनलों पर। किसी मैच से पहले यज्ञ होने लगता है। बारिश नहीं होती है। टीम हार जाती है। ये कौन से यज्ञ हैं जो होते हैं मगर होता कुछ नहीं है। देश का मनोबल बढ़ा है। मनोबल के नाम पर राजनीतिक उत्पात बढ़ा है। पदों पर बैठे लोगों की शालीनता रोज़ धूल चाट रही है। आप बयान में कुछ और सुनते हैं। होते हुए कुछ और देखते हैं। आप देखेंगे कैसे जब कोई सवाल करेगा तब न। आप पत्रकार से क्यों पूछते हो। उनसे पूछो जिन्हें आप वोट देते हैं। उनसे पूछिये कि आपके राज में प्रेस की स्वतंत्रता क्यों ख़त्म हो गई। पत्रकार क्यों भांड हो गया। क्या पत्रकारों का चैनलों का भांड होना मनोबल का बढ़ना है। मुबारक हो आप सभी को। आपका मनोबल बढ़ चुका है। बलों में इस बल का जश्न मनाइये। हम भी मनाते हैं। एलान कीजिए। बर्तन ख़ाली हैं। गर्दन में फांसी हैं। फ़िक्र नहीं है हमको। हमारा मनोबल बढ़ा हुआ है।
हरीशचंद्र बर्णवालटेलीविजन पत्रकार हरिश्चंद्र बर्णवाल ने लंबी पारी खेलने के बाद IBN7 को अलविदा कह दिया है. कहा जा रहा है कि अपनी नई किताब ‘मोदी सूत्र’ को पूरा करने के लिए उन्होंने चैनलों की दुनिया से कुछ वक्त के लिए विराम लिया है.गौरतलब है कि इसके पहले उन्होंने ‘मोदी मंत्र’ और ‘टेलीविजन की भाषा’ नाम की किताब भी लिखी थी. टेलीविजन की भाषा के लिए उन्हें पत्रकारिता के बड़े सम्मानों में से एक भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान भी मिल चुका है. बहुमुखी प्रतिभा के धनी हरीश चंद्र बर्णवाल को कविता और संगीत का भी शौक है. इसके पहले उनका एक काव्य संग्रह ‘सच कहता हूँ’ भी आ चुका है.
जामिया मिल्लिया इस्लामिया से टेलीविजन पत्रकारिता की पढाई करने वाले हरीश ने स्टार न्यूज़ के साथ टेलीविजन पत्रकारिता की शुरुआत में की. फिर जब चैनल7 बदलकर IBN7 हो गया तब वे मुंबई से दिल्ली इस चैनल में आ गए और तब से तमाम उठापटक के बीच भी वे IBN7 के साथ जुड़े रहे. मीडिया खबर की तरफ से उन्हें भविष्य के लिए शुभकामनाये.
मेरे पास एक आइडिया है.टॉप के सौ मीडिया दलालों की एक सूची बननी चाहिए, उनकी विस्तृत प्रोफाईल होनी चाहिए और देश के सभी मुख्य शहरों में उनके फोन, ईमेल, ट्वीटर एआउंट के साथ बड़ी—बड़ी फोटो लगनी चाहिए जिससे दलाली के जरूरतमंद लोग उनसे तपाक से संपर्क कर सकें। रोज—रोज टीवी—अखबार में खबर के नाम पर दलाली करना ऐसे सम्मानित पत्रकारों को शोभा नहीं देता, उनकी पदवी की तौहिनी भी है। और दर्शक को पता नहीं चलता कि खबर और दलाली के बीच कौमा कहां लगाएं और फुल स्टॉप कहां।
और फिर समस्या क्या है? दलाली और पत्रकारिता कोई छुपी चीज तो रही नहीं। लौंडे पत्रकारिता स्कूल में पहुंचने से पहले ही इस विधा से वाकिफ हो जा रहे हैं। सभी जानते हैं कि पत्रकारिता के बिना अखबार, चैनल का खर्चा नहीं चलता, घरानों को बेहिसाब मुनाफा नहीं हो सकता।
ऐसे में यह परिचय देने में क्या समस्या है कि फलां पत्रकार दलाली मामलों के जानकार हैं, फलां दलाली में दंगा कराने के विशेषज्ञ हैं, फलां को दलाली में उपहार स्वरूप बलात्कार के आरोपी को बचाने में महारत हैं, फलां दलाली में दंगाई नेताओं को गांधी का सधा चेला साबित करने में सक्षम हैं और फलां दलाली में फरेब की पत्रकारिता को सच की लाठी में लपेटकर दशकों से पेश कर रहे हैं।