गालियोँ को पत्रकारिता का अंग बनाने के लिए ओम थानवी को पद्मविभूषण दिया जाए

जनसत्ता के संपादक ओम थानवी आखिर ऐसा क्यों कर रहे हैं? om-thanvi-jansatta-                                                                                                                                                                    जगदीश्वर चतुर्वेदी  : इन दिनोँ ओमथानवी अपने अखबार में प्रतिक्रियावादी संपादनकला का चरम प्रदर्शन कर रहे हैं. आज के जनसत्ता अखबार मेँ धर्मवीर का लेख छपा है जिसमें घिनौने ढंग से प्रेमचंद पय हमला किया गया है . सवाल यह है कि ओम थानवी ऎसा क्योँ कर रहे हैं ? क्या वे ऎसा अज्ञेय पर लिखा लेख छापेंगे ?

ओम थानवी ने जनसत्ता के पन्नों का प्रेमचद को कलंकित और अपमानित करने के लिए दुरुपयोग किया है . थानवी ने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर प्रेमचंद के खिलाफ अपशब्दों और गालियाँ तक छापी हैं , गालियोँ को पत्रकारिता का अंग बनाने के लिए थानवी को पद्मविभूषण दिया जाय .

Vinayak Sharma देश के अधिकतर साक्षर जन साधारण के साथ-साथ मुझे भी पता नहीं कि ओम थानवी ने स्वर्गीय प्रेमचंद के विषय में क्या लिखा है. किसी साहित्य या रचनाओं की आलोचना या समालोचना तो हो सकती है परन्तु उस साहित्यकार या लेखक की व्यक्तिगत आलोचना से क्या लाभ जो अब इस दुनिया में ही नहीं है ? देश का कानून भी ऐसे किसी व्यक्ति के विरुद्द कोई मुकद्दमा चलाने की इजाजत नहीं देता जो अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए जीवित ही ना हो. वैसे किसी लेखक या साहित्यकार जिसने जनसाधारण या जनसरोकारों के विषयों को मध्य रख महान साहित्य की रचना की हो, उसे किसी राजनीतिक विचारधारा की सीमाओं में बांधना या उस पर एकाधिकार स्थापित करने की चेष्ठा करना भी उसके प्रति घोर अन्याय करने के समान है. वीर बलिदानी शहीद भगत सिंह का चाहे जिस विचारधारा के प्रति झुकाव रहा हो…..उसका सम्मान केवल इस लिए किया जाता है कि उसने देश के लिए बलिदान किया था, ना कि किसी विचारधारा के लिए. निर्धनों और आम आदमी के सरोकार पर लिखनेवाले लेखकों और उनके लिखे साहित्य को वाम विचारधारा का नाम देना भी हास्यास्पद है. तथाकथित जनवादी तो लगातार इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर विध्वंसकारी षड्यंत्रों में लगे हुये हैं. इनसे तो देश को सावधान रहने की आवश्यकता है.

NandKishore Neelam : ओम थानवी अज्ञेय के नाम की कंठी-माला जपते हैं, वे क्या खाकर अज्ञेय पर लिखवायेंगे. वैसे यह ईमानदारी और जज्बा केवल प्रगतिशील-जनवादियों मे ही है कि वे अपने आदर्श और पुरोधा लोगों की सीमाओ और अंतर्विरोधों को भी पूरी ईमानदारी और शिद्दत से सामने लाते हैं, उन पर बात करते हैं। ओम थानवी सरीके लोग तो अपने आकाओं की सीमाओं को अनगिनत विशेषणों के ढकने का कुत्सित प्रयास करते हैं।

दिनेशराय द्विवेदी : मैं ने पढ़ा है वह लेख। नीचता की हदें पार गया है वह लेख। ओम थानवी के लिए यही कहा जा सकता है कि उन्हें कहीं से सद्बुद्धि मिल जाए।

Misir Arun CIA के एजेंडे पर काम करने वालों के लिए हर जनवादी रुझान वाला व्यक्ति एक अड़चन है ! जब कभी साहित्य का नया इतिहास लिखा जायेगा ऐसे पूंजी के टुकड़खोरों का नाम साहित्यिक शैतानो के रूप में लिखा जायेगा !

Shambhu Dayal Vajpayee इनके गालियां देने से कथा सम्राट बौने हो जायेंगे। थानवी जी , केवल पत्रकार – लेखक हैं प्रेम चंद साहित्‍यकार हैं।

Mahesh Jaiswal स्तालिनवादी वामपंथी चाहते हैं कि दुनिया की तमाम संसदॊं में जनता द्वारा चुने गए उन तमाम प्रतिनिधियों का मुंह बन्द करवा दिया जाय जो उनके प्रिय जनों के किन्हीं ’अप्रिय’ तथ्यों की ओर लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश करते हैं ! इतिहास गवाह है ’लोहे की दीवारों’ के बाहर सच को आने में कभी ९० तो कभी ३५ साल लगते रहे हैं ! प्रेमचंद को ’देवता’ या ’राक्षस’ बनाने की किसी भी अंधता के खिलाफ़ हम सभी मुखर हैं.

(फेसबुक से साभार)

जनसत्ता में छपा आलेख :

हम प्रेमचंद को जानते हैं – धर्मवीर

कमल किशोर गोयनका ने अपने लेख ‘क्या आप इस प्रेमचंद को जानते हैं?’ (28 जुलाई) में सार्वजनिक रूप से क्या पूछ लिया? उनके इस प्रश्न का हमारी जबान पर उत्तर ‘हां’ में है। असल में, हम यही बताने को बैठे हैं कि उनके इस प्रेमचंद को हम अच्छी तरह जानते हैं। यह भी कि उनके प्रेमचंद को हमसे ज्यादा कोई नहीं जानता।

यह गोयनका ने अच्छा किया कि अपने लेख में प्रेमचंद के साहित्य से उदाहरण खुद दे दिया। उन्होंने लिखा है कि ‘‘प्रेमचंद की ‘बालक’ (1933) कहानी में उसका अशिक्षित नायक विवाह के छह महीने बाद उत्पन्न बच्चे को इस तर्क से स्वीकार करता है कि मैंने एक खेत खरीदा था, उस पर किसी ने फसल बोई ही थी तो क्या वह फसल मेरी नहीं होगी।’’ उन्होंने इससे निष्कर्ष निकाला है कि ‘प्रेमचंद की यह नैतिकता और आधुनिकता अकल्पनीय है।’ अब उनके इस सोच पर क्या कहा जाए? कैसे बताया जाए कि यह सभ्य समाज की सबसे बड़ी गाली है कि साहित्यिक रचना के माध्यम से किसी व्यक्ति से दूसरे की औलाद पलवाई जाए?
यहीं हम प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी में घीसू-माधव के विद्रोह को सूंघते हैं। बिल्कुल पूछा जाए, क्या बुधिया की प्रसव पीड़ा भी ऐसे ही विवाह-पूर्व गर्भ का फल नहीं थी? चमार घीसू-माधव से क्या अपेक्षा है कि वे ऐसे नायक बन जाएं जैसा ‘बालक’ कहानी का प्रेमचंद ने यह निरक्षर ब्राह्मण बना कर दिखाया है? आखिर प्रेमचंद ने घीसू-माधव के ऐसे नायक न बनने की खुंदक में उन्हें साहित्यिक जगत में सबसे बड़ा खलनायक बना दिया- बात क्या है? सामंत कैसे सोचता है और सामंत का मुंशी क्या दर्ज करता है? पराई स्त्रियों के मामलों में उनकी नजर क्या होती है? उनकी कहानियों में अकल्पनीय नैतिकता और आधुनिकता ढूंढ़ना नैतिकता और आधुनिकता को अपमानित करना है। सिक्के के दो पहलू हैं- एक तरफ सामंत और उसका मुंशी है और दूसरी तरफ रियाया। रियाया को जब यह सीख दी जाती है कि वह पराए मर्द से पैदा अपनी पत्नी के बच्चे को अपना कहे तो सामंत को यह खुली छूट दी जाती है कि वह रियाया की बहू-बेटियों को बेरोक गर्भवती करता रहेगा।

भला कौन भामाशाह प्रेमचंद की पढ़ाई इस नैतिकता को स्वीकार करके अपनी संपत्ति को अपनी पत्नी से पैदा जार की औलाद के नाम कर देगा? कौन कुबेर ऐसे उत्तराधिकार कानून को मान्य करेगा कि उसकी कमाई को उसके घर में गैर की संतान खाएगी? आज का कौन राजा भोज इस आधुनिकता को मान देकर अपना राज गैर की जारज संतान को वसीयत में लिख देगा? राजनेताओं में होड़ इस बात को लेकर नहीं लगी है कि वे पराए पुत्रों को सत्ता सौंपने के लिए मारामारी कर रहे हैं। गोयनका और उनके प्रेमचंद ने यह बात एक बार भी नहीं सोची कि ‘बालक’ कहानी में पैदा संतान किस राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर करेगी। क्या राष्ट्रवादी होने में यह जानना जरूरी नहीं है कि बच्चा अपने वास्तविक पिता को जाने? जैविक पिता से भिन्न वैवाहिक पिता की फर्जीगीरी राष्ट्रवाद नहीं है। ऐसे समाज में शूरवीर पैदा नहीं हुआ करते।

नैतिकता यह होनी चाहिए थी कि बच्चे के जार पिता को सामाजिक स्तर पर पकड़ा जाता। अमेरिका की आधुनिकता यह है कि वहां बस्तियों में वाहनों पर मोबाइल लैबें दौड़ती घूम रही हैं कि कोई अपने बच्चों का डीएनए टेस्ट करवा ले कि उनके जैविक पिता कौन हैं। एक यह हमारा प्रेमचंदवादियों की उलटी आधुनिकता का देश है कि एक बच्चे की पैतृकता जानने के लिए ऐसा टेस्ट कराने में निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक देश का ढांचा हिलने लगता है, क्योंकि संसद ने अनुमति ही नहीं दे रखी है। वहां विधि आयोग की रिपोर्ट में की गई सिफारिश धूल चाट रही है।
हम प्रेमचंदवादियों को लगातार यह समझाने

में लगे हैं कि कानून में जारकर्म एक दंडनीय अपराध है। इसमें पांच साल की जेल और जुर्माने का नियम है। पर, क्या करें, इनकी जारशाही समाप्त नहीं हो रही? जब मौका मिलता है, यशोगान कर बैठते हैं। इनकी समझ में यह बात नहीं आती कि दलित समाज में जारकर्म के आधार पर पत्नी से तलाक लेने का प्रावधान सदा से रहा है। तब इसमें ये लोग अकल्पनीय नैतिकता कैसे ढूंढ़ सकते हैं, उलटे जारकर्म से नैतिकता चकनाचूर होती है। बताइए, इस कुकर्म को आधुनिकता कह रहे हैं कि विधवाओं को गर्भिणी कर दो।

प्रेमचंद के समय में ही 1927 में लिखी स्फुरना देवी की पुस्तक ‘अबलाओं का इंसाफ’, जिसका नैया के संपादन में इसी वर्ष राधाकृष्ण प्रकाशन से पुनर्प्रकाशन हुआ है, में विधवाओं की मुख्य समस्या गर्भधारण और गर्भपात की है। कहीं कोई बलात्कारी ब्राह्मण है, कहीं कोई जारकर्मी महंत है, कहीं लालाजी और कहीं कोई और वैष्णव। तीन-चार बार गर्भपात कराने से शरीर की रौनक लुप्त हो गई है तो एक स्त्री को गर्भ गिराने के लिए मथुराजी जाना जरूरी हो गया है। एक पुरुष ने धर्म-भाई बन कर एक स्त्री गर्भिणी कर दी तो उसे पुष्कर में जाकर गिराया। किसी को हरदम गर्भ ठहर जाने का भय सताता रहता है। कोई गर्भपात का बंदोबस्त करने के लिए पांच सौ रुपए मांग रहा है। किसी को मूर्ख से गर्भपात करवाने में जीवन भर के लिए बीमारी लग गई है। कोई सुनार से गर्भवती हो रही है तो किसी को डॉक्टर ही गर्भिणी कर रहा है। एक की वैश्य से घनिष्ठता हो गई, जिससे छह महीने बाद ही उसे दूसरा गर्भ रह जाता है। एक का सेठ के लड़के से दो वर्ष तक संबंध रहा जिससे उसे गर्भ रह गया, जिसे उसने एक दाई की सहायता से निकलवा कर पास ही के एक तालाब के नाले में गिरवा दिया। एक अपने बयान में कहती है कि उसे पंडितजी से गर्भ रह गया। बंदोबस्त करने के लिए पंडितजी से कहा तो पंडितजी ने कह दिया कि मैं कुछ नहीं जानता। इस प्रेमचंद कालीन पुस्तक में लिखा गया है कि अबलाएं अपने खोटे नसीबों पर रोती हुर्इं चोरीछिपे गर्भपात के प्रयत्न कर महाविपत्ति उठाती हैं, कभी-कभी उसमें प्राण भी दे बैठती हैं, आत्महत्या भी कर लेती हैं।

तब, क्या कमल किशोर गोयनका और उनके प्रेमचंद को इन ब्राह्मणों, पंडितों, महंतों, वैष्णवों, संन्यासियों, डॉक्टरों, सुनारों और सेठों को पकड़ कर जिम्मेदार ठहराने में आधुनिकता के दर्शन नहीं होते? यह आधुनिकता की कौन-सी परिभाषा है जो निरक्षर नायक के मुंह से प्रेमचंद कहलवा रहे हैं- ‘‘यह बच्चा मेरा बच्चा है। मेरा अपना बच्चा है।’’ झूठ, सौ प्रतिशत झूठ- और इसे नैतिकता और आधुनिकता कह कर बघारा जा रहा है। प्रेमचंद के रंग में रंग कर गोयनका को अपनी बात कहनी थी, कह देते, पर उसे नैतिकता और आधुनिकता से जोड़ कर पेश क्यों कर रहे हैं? नैतिकता और आधुनिकता को हमारे हवाले करो- जारकर्म को ढंकने के लिए इन्हें हथियाने की जिद क्यों है? पूरी कहानी में जार का जिक्र नहीं, जार का अता-पता नहीं, जार को दंड नहीं, जार की जिम्मेदारी नहीं, जार की भर्त्सना नहीं- और नैतिकता और आधुनिकता के ठेकेदार बन रहे हैं।

जहां नैतिकता की झलक तक नहीं वहां नैतिकता खोजना, जहां आधुनिकता का नामोनिशान नहीं, वहां आधुनिकता का आरोपण करना- साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में यह कितना बड़ा फरेब है? यह किंवदंती को इतिहास और प्रक्षिप्त को मूल रचना मनवाने के बराबर उलटफेर है। क्या नैतिकता और आधुनिकता की परिभाषाएं नहीं हैं, जिससे इनके नाम पर कुछ भी बोल देने पर लगाम लगे? अगर पराए मर्दों की संतान को इस प्रकार पलवाने में प्रेमचंद के विशेषज्ञ विद्वान को नैतिकता और आधुनिकता दीख रही है तो दासता अलग से क्या चीज है? कुछ भी हो, हमारे घीसू-माधव जमींदारों की इस दासता के लिए तैयार नहीं हैं।

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