जनसत्ता की संपादकीय को लेकर प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी की एक टिप्पणी :
ओम थानवी किस तरह के साहित्यविवेक को जनसत्ता के जरिए प्रमोट कर रहे हैं,इसकी बानगी देखें और विचार करें कि आखिरकार हिन्दी के ये स्वनामधन्य संपादक-लेखक-प्रोफेसर किस तरह के नजरिए का प्रचार कर रहे हैं,यहां कुछ बानगी देखें- ये अंश हैं उस लेख के जो कल जनसत्ता के संपादकीय पन्ने पर छपा है,लेखक हैं शंभुनाथ,इन विचारों को देखकर आप वाह-वाह ही कर सकते हैं,यहां अंश दिए जा रहे हैं। यह बनागी है उस खतरे की जो हमारे बीच में मौजूद है। पढ़ें और आज की शाम मजा लें-
1. “अभिव्यक्ति की आजादी आज सिर्फ उनके पास है, जिनके पीछे विदेशी पूंजी खड़ी है। कोई बढ़े तो, कोई मिटे तो सब विदेशी पूंजी की लीला है।”
2. विदेशी पूंजी ही आज हर आजादी की गंगोत्री है।
3. आज जब सलमान रुश्दी, अरुंधति राय, कमल हासन, आशीष नंदी आदि की अभिव्यक्ति की आजादी छिनने की बात उठती है तो समझ में नहीं आता कि अगर इन्हें ही अभिव्यक्ति की आजादी नहीं मिली हुई है, तो किन्हें मिली हुई है।
4. ये सभी खूब खाए-पीए और अघाए लेखक हैं, कलाकार हैं, जो अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्यावसायिक इस्तेमाल करना जानते हैं।
5. इन सभी के चेहरों पर अभिजात भद्रता और चिकनाई है, गुस्से की जरा-सी बदसूरती नहीं है। ऐसे ही लेखकों और बुद्धिजीवियों का बाजार है, इन्हीं के लिए भीड़ इकट्ठी होती है
6.एडवर्ड सईद ने विस्तार से बताया है कि यूरोपीय लेखक मुसलमानों के बारे में क्या-क्या कहते थे। सलमान रुश्दी, अरुंधति राय, आशीष नंदी जैसे बुद्धिजीवी पौर्वात्यवादियों के ही वंशज हैं। कोई बताए, ये उनसे भिन्न क्या कह रहे हैं?
7.आशीष नंदी अपना मौलिक सबाल्टर्नवाद दिखाने के झोंक में लगभग यह कह गए कि अब भ्रष्टाचार से ही लोकतंत्र आएगा, समाजवाद आएगा। इसलिए ‘कुछ के द्वारा भ्रष्टाचार’ से ‘सबके द्वारा भ्रष्टाचार’ तक बढ़ो। दलित और जनजातीय लोग घूस लेकर दुनिया बरोब्बर करें। दलितों का भ्रष्टाचार ‘इक्वलाइजिंग फोर्सेस’ है।
8.दिल्ली और कुछ खास महानगरों में पिछले कुछ दशकों में समाज विज्ञान के ऐसे केंद्र बने हैं, जो नव-उपनिवेशवाद के घोंसले हैं। इनमें ऐसे ही अंडे फूटते हैं और सिद्धांत निकलते हैं। इन केंद्रों में अमेरिका और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जम कर पैसा आता है। यह जरूर देखना चाहिए कि प्रमुख सबाल्टर्नवादी समाज विज्ञानियों ने अपने जीवन के कितने साल अमेरिका में बिताए। अब ये यूरोप नहीं जाते, इनका ठिकाना अमेरिका है।
9.सबाल्टर्नवादी समाज विज्ञानीया रुश्दी समर्थक अंग्रेजी लेखक कभी प्रत्यक्ष विदेशी पंूजी निवेश का विरोध नहीं करेंगे। वे हिंसक अमेरिकी जीवन-ढंग पर नहीं बोलेंगे, दुनिया के एक सौ पचास से अधिक देशों में अमेरिकी फौज की उपस्थिति पर टिप्पणी नहीं करेंगे। साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक उन्मूलन पर उनकी कलम नहीं चलेगी। वे ‘मधुशाला’ का पाठ करके काव्य-प्रेम दिखाने वाले अमिताभ बच्चन के नरेंद्र मोदी के ब्रांड एंबेसडर बन जाने पर चुप रहेंगे। वे संक्रामक वंशवाद और मनमोहन सिंह से सम्मोहित रहेंगे।
10.महाराष्ट्र और असम में हिंदीभाषियों के विरुद्ध घृणा-प्रचार पर बिल्कुल नहीं बोलेंगे, क्योंकि वे ‘भारतीय राष्ट्रीयता’ की धारणा से ही प्रस्थान कर चुके हैं और दरअसल, यथास्थितिवादी वाग्विलासी हैं। ये आम आदमी की पहुंच के बाहर जा चुकी अच्छी शिक्षा और चिकित्सा के बारे में अनजान बने रहेंगे। ये अंबानी के तिरपन मंजिलों के मकान को अश्लील न कह कर दलितों से कहेंगे, तुम भी ऐसे मकान बना लो। सबाल्टर्नवादियों की कुछ अपनी चुप्पियां हैं, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल न करना इस स्वतंत्रता को किसी न किसी के हाथ बेच देना है।
11.जयपुर साहित्य समारोह अंग्रेजी वर्चस्व वाला समारोह बन जाएगा तो वहां से सांस्कृतिक प्लेग के चूहे निकलेंगे।
12. सांस्कृतिक महामारी के चूहे सिर्फ इसलिए बढ़ रहे हैं कि हिंदी लेखकों और प्रकाशकों में आत्मविश्वास की कमी है, एकजुटता की कमी है।
(फेसबुक से साभार)