जनसत्ता के संपादक ओम थानवी गए बिहार और वहां से लाये चीनिया केला

यात्रा संस्मरण : बिहार का जो क्षेत्र सरसरी नजर से ही देखा, उसमें हरियाली बहुत थी। चंडीगढ़ दस साल रहा और पंजाब खूब घूमा। वहां भी चौतरफा हरियाली दिखाई देती है। लेकिन अधिकांशतः खेत ही खेत हैं, पेड़ उनके गिर्द नगण्य हैं। बिहार की हरियाली निरी खेतों की हरियाली नहीं है। उसमें पेड़ों की अपनी गरिमा है। लीची, केले और आम के पेड़ सरे राह देखे जा सकते हैं। और पुराने उम्रदराज पेड़ भी, जिनकी तनों से लिपटी जटाएं जड़ों की ओर जाती हैं।

हाजीपुर से पहले चक सिकंदर में एक हाट देखकर रुक गया। लघु केले केरल के बाद यहीं खाए। बल्कि कहूँ कि उनकी महक कुछ खास थी तो गलत न होगा। दस रुपए में अत्यंत छोटे-छोटे बारह केले। छोटी ही ढेरी थी सो लदवा ली; कहा कि ठीक से बांधना, दिल्ली ले जानी है। थड़ी वाले का सरोकार देखिए, सौदा देते-देते रुक गया। बोला, दिल्ली? वहां तक तो केले नहीं टिक पाएंगे! वह केले वापस निकालने लगा: उसे बिक्री की नहीं, मेरी खरीद के फिजूल होने की परवाह थी। जब बताया कि तीन घंटे में अपने घर पहुँच जाऊंगा, तब केले छोड़े!

कल कवयित्री Savita Singh ने बताया कि लघु केलों को बिहार में चीनिया केला भी कहते हैं। सुनते हैं (चाय की तरह) इन केलों की पौध शायद चीन से आई हो। पर हमारे राजस्थान में तो छोटे के लिए चीना/चिन्ना शब्द वैसे ही चलन में है। हो सकता है उस विशेषण का स्रोत भी चीनी लघु मानव रहा हो! बहरहाल।

हाँ, चक सिकंदर की हाट से कुछ कच्चे केले भी ले लाया जिन्हें देखकर प्रेमाजी चौंकी। पूछ-ताछ कर सब्जी बनाई, पर उन्हें जमी नहीं। आज सुबह उन्होंने कमाल कर दिया: नाश्ते में कच्चे केलों के कबाब बना दिए। वाह, कितने लजीज। पूछे बिना रहा नहीं गया कि यह विधि कहाँ से? जवाब मिला कि अपनी तरकीब से: केलों को छीलकर कद्दूकस पर घिस दिया; हासिल को बाँधने के लिए उसमें थोड़ा मैदा, घिसी हुई गाजर और पनीर मिला दिया; फेंटन में नमक, जीरा, हरी और काली मिर्च डाल कर टिकिया बनाकर तवे पर सेंक दिया, और क्या? आखिर इतनी दूर से लाए हो! … वाह, तो बिहार का फल दिमाग को भी, देखिए, कितना उर्वर बना देता है! समझ आया कि (हर क्षेत्र में) बिहार का बुद्धि से करीबी रिश्ता क्यों है!

(जनसत्ता के संपादक ओम थानवी के एफबी वॉल से साभार)

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