ओम थानवी,वरिष्ठ पत्रकार
सुबह अख़बार ख़रीदता हूँ, मिलता है विज्ञापनों का ढेर। उन्हीं के बीच धंसी ख़बरें ढूँढ़ कर पढ़ लीजिए। देश में विज्ञापनों के अनुपात का सर्वमान्य क़ायदा क्यों नहीं है? पूरे पन्ने पर चार-छः ख़बरें? कहीं-कहीं पूरा पन्ना (आवरण सहित) विज्ञापन को समर्पित! लगातार दो-चार पन्ने भी। अख़बार मालिकों और सरकार की यह मिलीभगत पाठक पर एक विचित्र बोझ है।
घर में बाज़ार से कोई परचा फेंक जाय, लोग उसे शायद आगे फेंक देंगे। इसलिए उसे अख़बार में गूँथकर, सजाकर, छापकर दे दिया जाता है। इसमें अरबों-खरबों की कमाई अख़बार करते हैं। लगभग मुफ़्त में गट्ठर-सा अख़बार दे जाते हैं; मक़सद (धन बरसाने वाले) विज्ञापनों को ज़्यादा से ज़्यादा घरों में पहुँचाना है, न कि ख़बरें। कहना न होगा, यह बड़ी पूँजी वाले बहुरंगी अख़बारों की कहानी है।
सही है कि बिना विज्ञापन अख़बार नहीं चल सकते। लेकिन मुख्यतः वे अख़बार ही हैं, इसे कैसे भुलाया जा सकता है। मुझे ख़याल है पहले मालिक ख़ुद इस बात का लिहाज़ करते हुए ख़बर/विज्ञापन का अनुपात (70/30 से 60/40 तक) तय कर रखते थे। अब विज्ञापन के लिए एक मैनेजर अच्छी-ख़ासी ख़बर हटवा देता है; आजकल का सम्पादक इस हरकत पर कुछ नहीं कर सकता।
(ओम थानवी के एफबी वॉल से साभार)