आलोक कुमार,वरिष्ठ पत्रकार
“माल महाराज का मिर्जा खेले होली” : बिहार दिवस
कभी ‘खींचो न कमान न तलवार निकालो,जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो’ कहनेवाले अकबर इलाहाबादी ने अख़बारों से मोहभंग होने के बाद उन पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि ‘मियां को मरे हुए हफ्ते गुजर गए,कहते हैं अख़बार मगर अब हाले मरीज अच्छा है’. अकबर इलाहाबादी को मरे सौ साल पूरे होने को हैं मगर हमारे प्रदेश बिहार के अख़बारों की स्थिति अब भी वैसी ही है.
आज बिहार बदहाली की कगार पर है और नीतीश जी से ‘मंत्र-मुग्ध’ बिहार के अखबारों ने जनहित से जुड़े मुद्दों से तो मानो तौबा ही कर ली है . पिछले चंद दिनों से बिहार के अखबारों में सिर्फ और सिर्फ आज से पटना में शुरु हुए “बिहार-दिवस” की ही धूम है . अखबारों के पन्ने बिहार की गौरव-गाथा से तो कम नीतीश जी और उनकी सरकार के महिमा-मंडन से ज्यादा पटे पड़े हैं … ऐसा दिखाया जा रहा है मानों पूरे बिहार में जश्न का माहौल कायम है और बिहार अपने स्वर्णिम – काल से ऊपर उठ कर अब दूसरी नई उचाईयों की ओर आगे बढ़ रहा है .!!
बिहार में मूलभूत समस्याएँ यथावत हैं , बेबाकी से कहूँ तो परिस्थितियाँ दिनों – दिन बद से बदतर ही होती जा रही हैं , ऐसे में सिर्फ अपने अंह की पूर्ति और दिखावे के लिए किए जाने वाले ऐसे आयोजनों से क्या सधने वाला है ? ये एक आम बिहारी की समझ से परे है . जनता जूझ रही है और बिहार के अखबार ‘सरकारी – न्योते पर सरकारी-चश्मा’ लगा कर पूरी तरह से ‘फ़ेस्टिव –मूड’ में हैं, ये तो जले पर नमक छिड़कने जैसी बात ही हुई ना ? पिछले दस सालों में बिहार – दिवस के आयोजन और अखबारों में बिहार- दिवस के विज्ञापनों के नाम पर सरकारी – कोष से जितना पैसा बहाया गया वो पैसा किसका पैसा है ये ‘आत्म-बोध’ शायद ही बिहार के अखबारों को होने वाला है . “माल महाराज का मिर्जा खेले होली” यहाँ पूर्णत: चरितार्थ होती है . क्या बिहार के अखबार ये भूल गए हैं कि लोकतन्त्र में ‘असली महाराज’ ‘कौन’ होता है ? मैं नहीं समझता की यहाँ किसी को ये बताने -समझाने की जरूरत है कि ‘मिर्जा’ की भूमिका में कौन-कौन है ?
क्या बिहार की सरकार और बिहार के अखबार ये बता सकते हैं कि ऐसे आयोजनों से आम जनता का भला किसी भी दृष्टिकोण से कैसे होने वाला है ? क्या ऐसे आयोजनों में जन-भागीदारी उन्हें दिखती है ? क्या पटना के गाँधी – मैदान में बनाए गए बिहार-मंडप में बने फूड-कोर्ट में परोसे और बेचे जाने वाले व्यंजनों से भूख से बिल-बिलाते एक आम बिहारी का पेट भरने वाला है या व्यंजनों की जैसी फेरहिस्त है उसका नाम कितने बिहारियों ने सुना होगा ? क्या यहाँ बेचे जाने वाले व्यंजनों का स्वाद चखने की इज्जात हरेक बिहारी की जेब देती है ? एक तरफ सरकार सरकारी-खजाने के लगभग खाली होने का रोना रो रही है दूसरी तरफ ऐसे आयोजनों पर पैसा पानी की तरह बेदर्दी से बहाया जा रहा है , क्या ये सरकार का विरोधाभासी चरित्र उजागर नहीं करता है ? क्या ऐसे आयोजनों के निर्णय सरकार की नीयत पर सवालिया निशान नहीं हैं ?
आलोक कुमार ,
वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक ,
पटना .