एन के सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
भारतीय इलेक्ट्रॉनिक न्यूज़ मीडिया एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है. इनमें कुछ स्थितियां इसकी बहबूदी और जनोपादेयता को मजबूत करेंगी तो कुछ कमजोर. इनमें तीन प्रमुख हैं. पहला : न्यूज़ चैनलों के प्रबंधन ने बाजारू ताकतों द्वारा संचालित और नितांत त्रुटिपूर्ण दस साल से चले आ रहे “टैम” (दर्शकों की पसंद नापने की प्रक्रिया) नामक जुए को उतार फेंकना. दूसरा, दर्शकों का रुझान घटिया मनोरंजन से हट कर कुछ-कुछ खबरों की तरफ बढना. तीसरा: कानून के अनुपालन के तहत सभी चैनलों को अपने विज्ञापन समय को १२ मिनट प्रति घंटे तक महदूद करना याने राजस्व में भारी गिरावट (या कुछ लोगों के अनुसार लाभ में कमी जबकि कुछ अन्य के अनुसार घाटे में).
इन तीनों स्थितियों के निरपेक्ष विश्लेषण की ज़रुरत है. पहली और दूसरी स्थितियां भारतीय इलेक्ट्रॉनिक न्यूज़ मीडिया को प्रेरित करती हैं कि अपने कंटेंट (विषय-वस्तु) को और बेहतर और विश्वसनीय करे ताकि लोग क्रिकेट मैच की तरह न्यूज़ बुलेटिन देखना अपना धर्म मान लें. अगर यह हो सका तो न्यूज़ चैनल सामजिक और तज्जनित राजनीतिक विकृतियों को दूर करने में संवाहक की भूमिका में होंगे और वह दिन शायद विश्व मीडिया के इतिहास का स्वर्णिम दिन होगा. तीसरे को व्यापक दृष्टिकोण से देखना होगा.
अमरीकी संविधान से अलग भारत में मीडिया के लिए संविधान में कोई अलग व्यवस्था नहीं है. यह नागरिक की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता से हीं अपने अस्तित्व का औचित्य हासिल करता है. यह अभिव्यक्ति कई तरह की होती है. सड़क पर डमरू बजा कर नट जो नाच करता है (अगर वह पैसे के लिए नहीं है और यातायात बाधित नहीं करता) भी इसी अधिकार की दुहाई देता है. मनोरंजन के टीवी शो जो भौंडे द्वैयार्थिक कॉमेडी के नाम पर कार्यकर्म होते हैं वह भी अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के अधिकार में आते हैं. जान पर खेल कर सत्ता से टकराते हुए भ्रष्टाचार का सत्य उजागर करने वाली खबर भी. डांस शो भी इसी अधिकार का भाग है और उत्तराखंड में शून्य तापमान पर रहते हुए अपनी खबरों से सरकार को मदद भेजने के लिए मजबूर करना भी उसी अधिकार के तहत होता है. लेकिन क्या दोनों कीं जनोपादेयता में व्यापक अंतर नहीं है? क्या मनोरंजन चैनल भी उसी स्तर पर रखे जाने चाहिए जिन पर न्यूज़ चैनल? क्या यह खबर कि किस दिन कोई मंत्री का निकट का रिश्तेदार किसी व्यवसायी से टेंडर खुलने के एक दिन पहले किस होटल के गुप्त कमरे में मिलता है और कैसे उसके अकाउंट में कुछ करोड़ रुपये ट्रान्सफर हो जाते हैं या कैसे एक सरकार का मंत्री अविश्वास प्रस्ताव के दो दिन पहले कुछ निर्दलियों के साथ बैठक करता है और उनमें से एक निर्दलीय सदस्य के घर अगले दिन एक नयी महंगी कार आ जाती है वही जनोपादेयता रखती है जो सास – बहू का कार्यक्रम ? कैसे सरकार का मंत्री सी बी आई को बुलाकर प्रधानमंत्री कार्यालय और सम्बंधित मंत्रालय के अधिकारियों की मौजूदगी में कोयला घोटाले की जांच रिपोर्ट का मजमून बदलवाता है यह खबर किसी भी “डांस नाइट” से ज्यादा महत्वपूर्ण है. एक विकासशील समाज में जिसमें मनोरंजन मात्र चंद अभिजात्य वर्गीय लोगों का, जो रोटी जीत चुके हों, शगल हो, क्या खाद्य सुरक्षा, महंगाई, भ्रष्टाचार या या बेरोजगारी जैसे गंभीर मुद्दों पर न्यूज़ चैनलों द्वारा जनमत का दबाव बनाना ज्यादा जरूरी नहीं है?
अभावग्रस्त, विकासशील समाज में नयी तकनीकि पर पहला हक उन गरीबों का होता है जो जीने की मूल समस्याओं से जूझ रहे हैं. अगर मुफ्त शिक्षा, गरीबों के होनहार बच्चों के लिए आई आई टी की कोचिंग, किसानों के लिए कृषि तकनीकी के ज्ञान को लेकर अगर चैनल आते हैं तो एक बड़े वर्ग का भला होगा और देश रोटी जीत कर भविष्य में उपयोगी और स्वस्थ नागरिक पैदा करेगा. इसी तरह न्यूज़ चैनल प्रजातंत्र की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से अपने फैसलों में कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं रहेगा अगर वह अभिव्यक्ति संचारित ना हो. सरकार के एक अच्छे प्रयास से यह तो हुआ है कि धीरे-धीरे नयी तकनीकी के ज़रिये सभी चैनलों को उस अनाप-शनाप खर्च से बचाया जा रहा है जो डिस्ट्रीब्यूशन (घर तक पहुंचाने के लिए केबल ऑपरेटरों को दिया जाता था). यह खर्च कुल खर्च का लगभग ४० प्रतिशत होता था या यूं कहें कि न्यूज़ लेन के मद में होने वाले खर्च का चार गुना. क्या यह बेहतर नहीं होगा कि कानून बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाये कि जनोपादेयता के हिसाब से चैनलों का वर्गीकरण किया जाये और यह सुनिश्चित किया जाये किसानों के लिए चैनल , शिक्षा के प्रसार के लिए चैनल या न्यूज़ चैनल ऐसे वर्ग में हों जिनका खर्च कंटेंट में ज्यादा लगे.
एक और दिक्कत है. आज भी खबर और मनोरंजन के दर्शकों के बीच १ और ७ का अनुपात है. यही वजह है कि विज्ञापन (जो चैनलों के आय का मुख्य श्रोत है) देने वाला अपना माल बेंचने के लिए मनोरंजन चैनलों का रुख करता है. नतीजा यह कि जहाँ न्यूज़ चैनलों में विज्ञापन का औसत दर ६०० रुपये प्रति दस सेकंड भी नहीं है वहीं मनोरंजन चैनलों में यह दर औसतन ३० गुना ज्यादा है. कुछ मनोरंजन चैनल अपना समय एक लाख रुपये प्रति दस सेकंड से ज्यादा में बेंच रहे हैं. न्यूज़ के कुछ बड़े चैनलों को छोड़ कर क्षेत्रीय चैनल बुरी तरह घटे में चल रहे हैं. कमो-बेश यही हालत अधिकांश तथाकथित राष्ट्रीय चैनलों की है. बड़े चैनल भी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं हैं.
एक सुखद परिवर्तन यह है कि जनता का रुझान पिछले कुछ समय से न्यूज़ की तरफ बढा है. न्यूज़ चैनलों ने भी इस चिर-अपेक्षित परिवर्तन का खैर-मकदम करते हुए अपने कंटेंट (विषय-वस्तु) अधिकाधिक जनोपादेय बनाने की कोशिश की है. लगभग हर न्यूज़ चैनल शाम को या दिन में देश के प्रमुख मुद्दों पर स्टूडियो से डिस्कशन करता है जिसमें मुद्दे के जानकार लोगों के अलावा राजनीतिक दलों के लोग शिरकत करते हैं. समृद्ध प्रजातंत्र की प्रमुख शर्त है जनता को तथ्यों से अवगत कराना, तर्क क्षमता बढ़ना और उन्हें अपनी राय बनाने के लिए हर पक्ष की बात उनतक पहुँचना. न्यूज़ मीडिया यह काम बखूबी कर रहा है हालांकि कई बार यह डिस्कशन तू-तू-मैं-मैं से ऊपर नहीं बढ़ पाता और जनता को सिर्फ यह पता चल पाता है कि किस नेता की गले में कितनी ताकत है और कौन नेता अपने शीर्ष नेता को खुश करने के लिए दूसरे पक्ष की बोलती बंद करने का हौसला रखता है. पर आने वाले दिनों में यह और बेहतर होगा.
तीसरा मुद्दा ज्यादा गंभीर है. कानून का अनुपालन करते हुए न्यूज़ चैनलों को . अपने विज्ञापन की समय सीमा को १२ मिनट करना होगा. अब अगर ये चैनल अपना रेट बढ़ाते है तो विज्ञापनदाता मनोरंजन चैनलों की तरफ रुख करेगा और अगर नहीं बढ़ाते तो आय का अन्य कोई साधन नज़र नहीं आता. यह बात सही है कि यूरोप के देशों में चैनलों के लिए 12 मिनट की विज्ञापन सीमा है लेकिन वहां विज्ञापन से मात्र 30 प्रतिशत राजस्व आता है, बाकी 70 प्रतिशत दर्शकों से। भारत में इसके विपरीत चैनलों को 90 प्रतिशत आय विज्ञापनों से होती है। एक अन्य साधन है दर्शकों से पैसे लेने का लेकिन अगर यह किया गया तो उससे गरीब दर्शक न्यूज़ से वंचित हो सकता है क्योंकि वह ज्यादा पैसे देने की क्षमता नहीं रखता.
बहरहाल जहाँ सरकार को प्रजातंत्र की गुणवत्ता के लिए न्यूज़ चैनलों को स्वस्थ आर्थिक हालत में रखने के लिए कानून बनाकर उनका वितरण बगैर किसी खर्च के होना सुनिश्चित करना होगा जैसा कि लोक सभा और राज्य सभा चैनलों के लिए किया गया वहीं न्यूज़ चैनलों को भी कमर कस कर कंटेंट को इतना मजबूत बनाना होगा कि मनोरंजन से हट कर दर्शक न्यूज़ बुलेटिन देखना अपना धर्म समझने लगे.
(मूलतः दैनिक भास्कर में प्रकाशित)