1. ‘छोटा-सा ब्रेक’: जब देश शोक में डूबा हो, टीवी चैनल हर दामिनी पर हुए दमन के खिलाफ मोमबत्तियों की रोशनी और बेहतर न्याय पर चर्चाएं हम तक पहुंचा रहे हों — क्या उस गंभीर घड़ी में उन विज्ञापनों का रेला वहां थोड़ी देर के लिए थम नहीं सकता, जिनमें औरत को सामान बेचने के लिए जिंस की तरह इस्तेमाल किया गया हो? ऐसे शोक की घड़ी में समूचा देश, एक समान जज्बे के साथ, रोज तो नहीं डूबा होता!!
2. मैंने जिम्मेवार टीवी अधिकारी से बात कर ही कहा है। अनुबंध में बगैर सूचना तबदीली का भी प्रावधान रहता है। आज अर्णब गोस्वामी दिन में जब जंतर मंतर के प्रदर्शन पर कार्यक्रम कर रहे थे, दो घंटे लगातार कोई विज्ञापन नहीं था। मैंने खुद देखा, सुना नहीं है। यह मेरी दलील के समर्थन में काफी होगा। (ओम थानवी के फेसबुक वॉल से साभार )
ओम थानवी अपनी दुकान ठीक तरह से चला लें यही बहुत है। जनसत्ता नाम का सबसे घटिया अखबार निकालते हैं जिसे पढ़ता कौन है पता नहीं…फेसबुक पर जब देखो तब नसीहतों का पिटारा लेकर घूमते रहते हैं। सब लोग अर्नब की तरह हो जाएं इससे कहां किसी को गुरेज है लेकिन थानवी जी आप भी तो कुछ कीजिए…काला सफेद अखबार लेकर कब तक दूसरों को कोसते रहेंगें।।।