एनडीटीवी विवाद: मजहबी राष्ट्रवाद बनाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

सी.पी.सिंह, मीडिया शिक्षक, आईपी युनिवर्सिटी
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-चन्द्रकान्त प्र सिंह-

सी.पी.सिंह, मीडिया शिक्षक, आईपी युनिवर्सिटी
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बड़े लोगों और संगठनों के निहित स्वार्थ बड़े होते हैं। उनसे किसी बदलाव की अपेक्षा क्या? यह लड़ाई एक चैनल और सरकार के बीच कत्तई नहीं है। सरकारें तो पिछले 25 सालों से इस चैनल को पालपोस रही हैं। हाँ सरकार और चैनल लड़ाई के प्रतीक बनकर जरूर उभरे हैं।

तो फिर लड़ाई है किसके बीच?
यह लड़ाई है पश्चिम से आयातित भारत-विरोधी मजहबी राष्ट्रीयता और नावजागृत सांस्कृतिक धार्मिक राष्ट्रीयता के बीच। पहले के वाहक हैं अंग्रेज़ियत से लबरेज़ अभिजात वर्ग के नकलची लोग जो अपने अपार्टमेंट और कुत्ते तक के देसी नाम से चिढ़ते हैं और जिन्हें 200 सालों से नौकरशाही, विश्वविद्यालयों और अब मीडिया में जमाया गया है।
इन्हीं की मदद से पंडित नेहरू नेताजी सुभाषचंद्र बोस को आम लोगों से ऑफिशियली दूर करने में सफल हो गए थे; और एक राष्ट्रीय पार्टी काँग्रेस को अपनी फैमिली पार्टी बना गए जिसका यह हाल है कि नेहरू-गाँधी परिवार के बिना इसकी परिकल्पना वे लोग भी नहीं करते जो लोकतांत्रिक और पुराने समाजवादी हैं। तभी तो 20 साल से इंतज़ार हो रहा है कि नेहरू वंशीय पप्पू कब समझदार हो जाए।

अब लड़ाई के दूसरे पक्ष यानी नवजागृत सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात आती है जिसका मोर्चा युवा वर्ग ने संभाला है और जो मोबाइल और इंटरनेट से उद्भूत सोशल मीडिया पर सवार है। यह वामपंथी और इस्लामिस्टों की तरह नफ़रत की बुनियाद पर नहीं टिका है लेकिन अपने तथ्य और तर्कों से लैश यह नावजागृत वर्ग अपने और अपने राष्ट्र के सम्मान पर कोई समझौता भी नहीं करना चाहता। इसे काँग्रेस-पोषित नक़ल और आत्म-घृणा बर्दाश्त नहीं है।

यह अकारण नहीं है कि 50 करोड़ लोगों के सोशल मीडिया में NDTV मुज़रिम साबित हो चुका है जबकि टीवी और अख़बार उसे शहीद बनाने पर तुले हैं। यह अलग बात है कि पठानकोट मामले में NDTV के समर्थक उनके साथ खड़े नज़र आ रहे हैं जिन्होंने याकूब मेमन और अफ़ज़ल गुरु की फाँसी को न्यायिक हत्या करार दिया था और जेएनयू में भारत की बर्बादी के नारे लगानेवालों का बचाव अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर किया था।

इसी का परिणाम है कि आज सेकुलर-वामपंथी लोग देशतोड़कों का पर्याय बन गए हैं और मोदी-समर्थक देशभक्ति का। कितना दिलचस्प है कि खुद सेकुलर-वामी ब्रिगेड अपने विरोधियों को ‘भक्त’ कहकर पुकारते हैं जबकि भारतीय जनमानस में भक्त का मतलब हमेशा पॉजिटिव होता है:
भगवान भक्त, रामभक्त, मातृभक्त, पितृभक्त, देशभक्त, राष्ट्रभक्त…

इस लिहाज से तो राष्ट्रीयता के इस अखिल भारतीय विमर्श में नक्काल पक्ष ने एक प्रकार का सेल्फ-गोल कर लिया है। उधर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का देसी पक्ष अपनी जड़ों से रस लेकर नित नई-नई बुलंदियाँ तय कर रहा है।

(लेखक आईपी युनिवर्सिटी में मीडिया शिक्षक हैं)

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