मिथक और यथार्थ के बीच नरेंद्र मोदी

गांधी की मीडिया से दूरी देखो और अपना मीडिया ऑब्शेसन देखें मोदी

पवन के वर्मा, सांसद एवं पूर्व प्रशासक

दिल्ली में मोदी की रैली के बहाने
दिल्ली में मोदी की रैली के बहाने

मोदी कहते हैं कि वे लोगों को काम की जिम्मेवारी देना पसंद करते हैं, लेकिन इस बात के ढेरों सबूत हैं कि सच इसके ठीक विपरीत है. लग रहा है कि सारी ताकत प्रधानमंत्री कार्यालय में केंद्रित हो गयी है, और कुछ रिपोर्टो के अनुसार, वहां फाइलों का अंबार लग गया है. ये फाइलें प्रधानमंत्री द्वारा देखे जाने के इंतजार में हैं, क्योंकि सिर्फ वे ही हर मामले में निर्णय लेने के अधिकारी हैं, यहां तक कि बिना उनकी शाही मंजूरी के कैबिनेट मंत्री अपने निजी सचिवों की नियुक्ति भी नहीं कर सकते हैं.

मोदी का प्रचार तंत्र कहता है कि वे टीम के साथ काम करनेवाले व्यक्ति हैं, लेकिन उनके कई मंत्री और अधिकारी ही इस बात से सहमत नहीं हैं, जिनसे मैंने गुजरात में बात की है. दरअसल, गुजरात में अपने वास्तविक या संभावित प्रतिद्वंद्वियों का उनके द्वारा किया गया सुविचारित ‘सफाया’ मोदी के साथ लेकर चलने की क्षमता को नकारता है.

मोदी अपनी छवि को विस्तार देने के लिए मीडिया का पुरजोर उपयोग करते हैं, लेकिन पत्रकारों का कहना है कि वे तात्कालिक या पहले से बिना तय बातचीत की अनुमति नहीं देते हैं तथा बातचीत के लिए सिर्फ उन्हीं अवसरों को चुनते हैं, जहां वे आश्वस्त रहते हैं कि कोई अप्रत्याशित प्रश्न नहीं पूछा जायेगा.

मोदी के व्यापक और बड़े व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द रहस्यों का घेरा है. किसी को भी मालूम नहीं है कि वास्तविक मोदी कौन हैं. तो क्या उनके चारों ओर बहुत सोच-समझ कर तैयार किया गया विस्तृत प्रचार तंत्र वास्तविक नरेंद्र मोदी से बिल्कुल भिन्न आवरण खड़ा करने में कामयाब हो गया है?

मौजूद सबूत तो यही संकेत कर रहे हैं. देश को यह बताया जाना बहुत जरूरी है कि उसके प्रधानमंत्री हकीकत में कैसे हैं. कभी-न-कभी मिथक और यथार्थ अवश्य ही अलग-अलग होंगे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि छवि गढ़नेवाले कितने शक्तिशाली हैं.

@पवन वर्मा

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