आपको चिंता हो रही है कि पानी की तरह जो करोड़ों रूपये बहाए जा रहे हैं, उससे किसका भला हो रहा है ? अब भी ये बताने की जरूरत है कि चुनाव के बाद बेकारी, फसल चौपट होने के आसार जो इधर बने हैं तो कंगाली और मंहगाई जब बढ़ेगी तब भी मीडिया बम-बम करेगा. आपकी बैंगन और दियासलाई, गैस और दवाई पर जो कीमतें बढ़ेंगी, उसकी तैयारी पूरी हो चुकी है.
आप तो जानते ही होंगे कि साल 2007-08 में जब विश्व आर्थिक मंदी का दौर आया था तो हिन्दुस्तान में भी इसका सीधा असर पड़ा. कई उद्योग चौपट हो गए और मुद्रा स्फीति( money inflation) का संकट अलग से लेकिन दिलचस्प था कि इस दौरान मीडिया को इस मंदी से उबारने का काम 2009 के लोकसभा चुनाव ने किया था. मीडिया हाउस को इतने विज्ञापन मिले कि उसने न केवल नए वेन्चर शुरू किए बल्कि आगे दो साल तक मौज करता रहा.
दूसरी तरफ मंदी का रोना रोकर कागजों में रियाअत और बाकी साधनों परछूट के दवाब सरकार पर लगातार बनाते रहे. इधर मीडियाकर्मियों की बेतहाशा छंटनी शूरू कर दी.. आपको जानकर हंसी आएगी और गुस्सा भी. पिछले लोकसभा चुनाव के बाद पता है नेटवर्क 18 ने खर्चे में कटौती के लिए क्या किया था, डिस्पोजल ग्लास की जगह पानी पीने के लिए स्टील और कांच के गिलास रख दिए थे. इसी तरह कुछ संस्थान ने चाय की सुविधा बंद कर दी थी.अबकी बार भी देख लीजिएगा, ऐसा ही होगी. मीडिया संस्थान आर्थिक रूप से मजबूत होंगे, देश कमजोर होगा और मीडियाकर्मियों पर सीधी मार पड़ेगी.. तभी स्ट्रिंगर से लेकर मीडियाकर्मियों के बीच अभी से पेड न्यूज से लेकर फेवरिटिज्म की मार-काट मची है. लूट लो, जितना लूट सको.
[box type=”info”]साल 2010 की फिक्की-केपीएमजी की “मीडिया एंड एन्टरटेन्मेंट इन्डस्ट्री रिपोर्ट” बताती है कि जहां देश के बाकी उद्योग विश्व आर्थिक मंदी की चपेट में बुरी तरह फंसे थे, वही मीडिया को इससे उबारने का काम लोकसभा चुनाव 2009 ने किया. इस दौरान मीडिया को दूसरे सेक्टर से विज्ञापन कम मिले लेकिन कांग्रेस, बीजेपी, बसपा जैसी पार्टियों से इतने विज्ञापन मिले कि मीडिया बम-बम कर उठा.
अब आप देख रहे होंगे कि मीडिया चुनाव से दो साल पहले से ही माहौल बनाना शुरू कर देता है जिसका लाभ ये होता है कि विज्ञापन के लिए राजनीतिक पार्टियों की रणनीति खिसककर पीछे की तरफ बढ़ती चली जाती है और धीरे-धीरे ऐसी स्थिति बनती है कि आपको लगता है देश में पांचों साल चुनाव है. ऐसा इसलिए कि जो घोषित रूप से उद्योग नहीं होते हैं, उन्हें इसी तरह उद्योग के रूप में विकसित किया जाता है. ये क्रिकेट के अलग-अलग रूपों के विकास की तर्ज पर पनप रहा है.
ऐसे में ये आपको भले ही करोड़ों रूपये पैसे की बर्बादी लगे लेकिन क्रिकेट पर जो पैसे खर्च होते हैं उससे किसका भला हो जाता है लेकिन उद्योग का एक स्ट्रक्चर तो है ही. चुनाव ठीक उसी तरह बेकार और गैरजरूरी लगनेवाले विज्ञापन के बीच एक उद्योग की शक्ल में विकसित हो रहा है. आखिर भारत निर्माण क्या है ? गौर करें तो पंचवर्षीय चुनावी विज्ञापन.[/box]
(स्रोत-एफबी)