वेद उनियाल,वरिष्ठ पत्रकार
विश्व भर की राजनीति को समझना आसान है पर जिन्हें उप्र वाले नेताजी कहते हैं उन्हें भाांपना मुश्किल है। बेशक उत्तराखंड आंदोलन के समय से उनसे मन में एक तकरार है कडी नाराजगी है, लेकिन यह स्वीकारने में संकोच नहीं है कि अपने ढंग के एक नेता हैं। उत्तराखंड के नेताओं को अपने जिले गांव का ढंग से पता नहीं होता, मंत्री बन जाते हैं । ये गांव कस्बे की राजनीति से बाहर नहीं निकल पाते हैं। कई ऐसे कि बुढापा आ गया, मुख्यमंत्री भी बन गए पर पहाडी भाषा में एक वाक्य नहीं बोल सकते।
लेकिन मुलायम सिंह यादव को उप्र जैसे विशाल राज्य के चप्पे चप्पे का पता है। हवाओं को भापंने में उनका कोई सानी नहीं।
मुझे याद है 1993 के आसपास मुंबई के प्रेसिडेंट होटल में प्रेस कांफ्रेस में थोड़ी बहस, सवाल जवाब, तुनुकमिजाजी के बाद इसी नेता ने कहा था पहाड के नेताओं को मैं जानता हूं। उत्तराखंड बन जाएगा तो ये संभाल नहीं पाएंगे। एक जिला नहीं संभाल पाएंगे ये , आप राज्य की बात करते हैं। नौकरशाह इन्हें खेल जाएंगे। इसलिए आपके राज्य के बडे नेता ( शायद इशारा नारायण दत्त तिवारी की तरफ था ) भी खुल कर अलग राज्य की मांग नहीं कर पा रहे हैं।
उस दिन मुलायम सिंह यादव से यह सुनना बुरा लगा था। सोचा था अलग राज्य बनेगा तो इन्हें बताएंगे कि एक आदर्श राज्य क्या होता है। मगर अफसोस मुलायम सिंह यादव की बात ही सही निकली …..।
उत्तराखंड एकता मंच पहाड के लोगों को जागृत करने और संगठित करने के उद्देश्य से 20 नवंबर को रामलीला मैदान में रैली का आयोजन करने जा रहा है। इसमें पहाडों के सवाल उठेंगे और गीत संगीत भी होगा। रैली के आयोजक अभी इतना ही कह रहे हैं। एक कसौटी में है यह रैली भी। उत्तराखंड का नई दिशा दे सकती है और भटकाव का नया परिचय भी बन सकती है। रैली में हजारों लोग आ सकते हैं लेकिन उनकी उम्मीदों को बनाए रखना और उन्हें विश्वास में लेना बहुत बड़ी चुनौती हैं। आसान नहीं है ये सब। लेकिन अगर इरादों में सच्चाई है, कुछ वास्तव में पहाड़ों के लिए मन में संकल्प है तो रैली का महत्व होगा।
रैली का होना इतना महत्वपूर्ण नहीं। रैली के बाद इसके आयोजकों की दिशा और दशा क्या होगी यह अहम बात है। व उत्तराखंड के सवालों के साथ होंगे या किसी का मोहरा बनेंगे , लाइजनिंग करेंगे यह समय बताएगा। लेकिन लोग अब चौकस है।
सवाल यही है कि फिर हम ठगे गए हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि पहाडी दिल्ली में इतनी संख्या में नहीं कि इन्हें इनकी भाषा में अकादमी दी जाए।
अरविंद केजरीवाल की पार्टी से ठगे जाएं समझ में आता है, मुलायम सिंह की पार्टी से नफरत पाएं समझ में आता है, लेकिन अगर पहाड की कोई भी संस्था पहाड़ियों से ही खेल करेगी तो फिर कुछ नहीं बचेगा। इसलिए कहा है कि 20 नवंबर की रैली की कसौटी बडी है। रैली नेता बनने के लिए नहीं , रैली हित साधने के लिए नहीं, रैली पहाडों के लिए होगी तो इसका संदेश दूर तक जाएंगा। पहाड बिलख रहा है।
हमारा ध्यान इस तरफ है कि 20 नवंबर की रैली में कितनी सच्चाई है। क्या पहाड़ों के साथ न्याय करेगी ये रैली। उम्मीद तो यही है। बाकी भगवान बद्रीनाथ जाने। भगवान केदारनाथ तो आजकल व्यस्त हैं। उन्हें इतना सजाया जा रहा है कि वो खुद दिग्भ्रमित हो रखे हैं।
सुनने में आया है कि माता मंगलाजी का कहना है कि रैली में कोई राजनीतिक बात नही होनी चाहिए। फिर इस रैली का उदेदश्य क्या है। यह रैली मंगलाजी की मन की खुशी के लिए है या उत्तराखंड के लोगों की विपद्दा को दूर करने के लिए है।
सारे सवालो को पहले तय किया जाना चाहिए। मंगलाजी को भी विश्वास में लेना चाहिए कि अगर राजनीति से सवाल नहीं करेंगे तो फिर रैली का मतलब क्या है । क्या फोटो खिचंवाना, क्या टीवी में दिखना ,क्या अखबार की न्यूज बनना। प्लीज कठिन समय है इन सब बातों को हल्के में न लें। हम सब पर लोगों की नजर हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)