अखिलेश कुमार
चुनाव आयोग के मुताबिक देश के संसदीय राजानीति में 16वीं लोकसभा चुनाव सबसे बड़ा चुनाव था। लंबे अरसे के बाद,पिछली सरकार के कानूनी व्यवस्था और मंहगाई से त्रस्त लोगो ने एनडीए को उम्मीद से परे जनादेश दिया जिसकी कल्पना शायद बीजेपी समेत एनडीए के घटक दलों ने भी नहीं किया होगा। इसलिए सरकार बनने के दो महीने बाद भी नेतागण उस रोमांचकारी हनीमुन बधाई समारोह से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। इस बीच देश के हताश मध्यम वर्ग जिस लालसा और अपनी बेवसी को दूर करने के लिए सपने बेचने वाले बादशाह को अपना हीरो माना। वह बादशाह सेवन रेस कोर्स के उस जादूई कमरा में प्रवेश करने के बाद से चुप हो गए हैं।
दरअसल, सरकार बने ढ़ाई महीने होने को है। इस बीच देश में राजनीतिक उथल-पुथल समेत कई ज्वलनशीन मुद्दों को लेकर खींचातानी अभी भी चल रही है जिसमें एक युपीएसी से जुड़ा मसला भी है जिस पर सरकार मीन मेख कर मामले को और पेचीदा बना दिया यानि सीसैट को पूरी तरह समाप्त न कर राजनीतिक गेंद को अपने पाले में कर लिया है। ध्यान देने वाली बात ये है कि छात्रों ने सीसैट के विरोध में आंदोलन किया, लांठिया खाई, जेल तक गए लेकिन आम लोगों का प्रधानमंत्री कहने वाले मोदी जी ने एक शब्द बोलना उचित नहीं समझा। दूर्भाग्य है कि एक स्पष्ट बहुमत वाली सरकार के प्रधानमंत्री ने चुप्पी साध ली है। इससे स्पष्ट है कि एक नायक के रूप में गंभीरता दिखाने के लिए मौन रहना या कुछ नहीं बोलने का गुढ़ रहस्य वर्तमान राजनीतिक मुद्दों पर कन्नी काटकर सहमति देना भी है। जरा गौर कीजिए कि दीनानाथ बत्रा की महाभारत पर शोध करने वाली बात और दुसरी तरफ भारतीय इतिहास शोध संस्थान के नये निदेशक के. सुदर्शन राव की नियुक्ति के पीछे सरकार की मंशा क्या है। जाने माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने इस मसले पर हिन्दुस्तान समाचार पत्र में आलेख लिखकर सरकार की मंशा को जगजाहिर किया।
सवाल ये है कि आदर्श,सुचिता नैतिकता और सुशासन की राजनीति का जुमला रटने वाली स्पष्ट बहुमत की सरकार के पास ऐसी कौन सी मजबूरी है जिससे वह किसी भी गंभीर विषय पर निर्णय लेने में बौना साबित हो रही है। विदेश नीति से लेकर घरेलू राजनीति में मोदी सरकार शुरूआती पावर प्ले में ही में ही रन आउट होती दिख रही है।
बहरहाल. एक ठोस प्रधानमंत्री की खामोशी की चादर को परत दर परत खोला जाए तो नई सरकार की राजनीतिक चाल और चेहरा को भांपा जा सकता है। शपथ ग्रहण समारोह के बाद से ही कैबिनेट मंत्री स्मृति के मानव संसाधन मंत्री बनाए जाने का मुद्दा जोर-शोर से उठा लेकिन बादशाह प्रधानमंत्री ने चूं तक नहीं किया। टीवी वाले पीएम का बाइट लेने के लिए तरसते रह गए। इसमें कोई नई बात नहीं है कि गोधरा दंगा के बाद यही स्मृति ईरानी ने मोदी जी खिलाफ धरना पर बैठी थी। अपने संसदीय सीट से हार जाने के बाद भी ईरानी को कैबिनेट में शामिल किया गया। कभी मोदी की कट्टर विरोधी मानी जाने वाली मधु किश्वर जो अब मोदी भक्त के रूप में भी ईरानी का विरोध कर अपनी नाराजगी जाहिर कर दी है। खैर जो भी हो, दो महीनों में विरोधियों को तो दूर की बात है, अपने घनघोर समर्थक को भी मोदी सरकार सूध लेने में भला नहीं समझती है। इसका ताजा उदाहरण मीडिया से बढ़ती दूरी बनाना। हलांकि इस मुद्दे पर अखबार के कॉलम भरे जा चुके हैं। लेकिन जो बुद्दिजीवी दिन-रात एक-एक कर मोदी पत्रकारिता में गंगा नहा रहे थे, वे सदमा से बाहर नहीं निकल पा रहे है।
उल्लेखनीय है कि चुनाव प्रचार दौरान जिस तेवर में बादशाह प्रधानमंत्री लोगो को सपने दिखा रहे थे वो अब धाराशाही होता जा रहा है। ये सच है कि मंहगाई और भ्रष्ट्रचार से जुड़ी समस्याओं पर अमल दो महीने में नहीं हो सकता लेकिन इसकी शुरूआती झलक तो दिखनी चाहिए थी। लेकिन खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। व्यवस्था से त्रस्त लोग सरकार की तरफ टकटकी लगाए बैठे हैं। इतना ही नहीं बीते ढ़ाई महीने में बजट से लेकर कई अहम फैसले लिए गए हैं जिसमें कुछ नया नहीं है। इस बाबत अखबारों में लगातार कमोवेश सुगबुगाहट तो हुई जिसमें सरकार की तरफदारी करने वाले पत्रकार बंधु ने ही धीरे से ही सही लेकिन नई नवेली सरकार पर अपनी चुप्पी तोड़ी है।
गौरतलब है कि हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार और भाजपा प्रवक्ता एमजे अकबर ने ‘संडे गार्डियन’ में के अपने कॉलम में ‘जुलाई इज़ अ वोलेटाइल मंथ ’ शीर्षक के तहत महाराष्ट्र सदन में रोज़ेदार मुस्लिम कर्मचारी का मामला उठाया। इसमें उन्होंने उदारता पूर्वक सरकार के नीति पर प्रश्न चिन्ह लगाया। दुसरी तरफ स्वप्न दास गुप्ता का नाम वाम-विरोधी बुद्धिजीवियों में होता है। वे भाजपा के क़रीबी माने जाते हैं और मोदी के प्रशंसक भी। उन्होंने हाल में केंद्रीय बजट और सरकार की पश्चिम एशिया नीति को लेकर आलोचनात्मक टिप्पणियां की हैं। अंग्रेज़ी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के अपने कॉलम ‘राइट एंड रॉंग’ में स्वप्न दास गुप्ता लिखते हैं कि संसद से इसराइल विरोधी प्रस्ताव पास न करने और फिर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में प्रस्ताव के पक्ष में वोट देने के बीच सरकार की नीति में काफी विरोधाभाष की स्थिति है। स्वप्न लिखते हैं कि भारत को जेनेवा में मानवाधिकार आयोग की बैठक में अनुपस्थित रहना चाहिए था। गुप्ता की राय है कि विदेश नीति के मामले में ब्रिक्स सम्मेलन तक भी भारत का रुख़ परंपरागत नीति के अनुरूप था।
अपने आलेख के दुसरे पैराग्राफ में गुप्ता लिखते हैं यदि मोदी सरकार ने तय किया है कि विदेश नीति के बुनियादी सिद्धांत बदले नहीं जाएंगे। नेहरू और इंदिरा गांधी ने जो प्राथमिकताएं तय की थीं, उन पर ही चला जाएगा तो फिर कहने को कुछ रह नहीं जाता। राजनीतिक दिशा विदेश नीति की पहली दरकार होती है, जो अभी तक नज़र नहीं आती। विदेश नीति ही नहीं उन्होंने अरुण जेटली के बजट की भी पर्याप्त खिंचाई की है। ये बात कुछ और है कि नई सरकार के खिलाफ इसी बहाने स्वप्न दास गुप्ता भी अपना भड़ास निकाल लिए। एक तरफ स्वामीनाथन अंकलेसरैया अय्यर ने भी मोदी सरकार के बजट को कांग्रेसी बजट बताया। दुसरी तरफ अरविंद पनगरिया मोदी सरकार के बजट पर कहते हैं कि राजकोषीय घाटे को 4.1 फ़ीसदी पर रखने की चिदंबरम योजना पर चलना ग़लत है। गौरतलब है कि ये सभी प्रतिक्रिया कोई बाहरी लोग नहीं दे रहे हैं बल्कि ये वही लोग हैं जो चुनाव से पहले नई सरकार के लिए विकास की नई कहानी लिख रहे थे। इतना कुछ होने के बाद प्रधानमंत्री जी चुप हैं।
उल्लेखनीय है बादशाह प्रधानमंत्री की चुप्पी पर हिन्दुस्तान टाईम्स के कॉलम ‘एनदर डे’ में वरिष्ठ पत्रकार नमिता भंडारे लिखती हैं कि मोदी जी को अपने
को साबित करने के लिए देश की जनता ने अच्छा मौका दिया है लेकिन उनकी चुप्पी ठीक नहीं है। इस चुप्पी में और भी सवाल छुपे हैं। मसलन मोदी जी आर्थिक समृद्धि पर जोर देना। जबकि उनकी सरकार नौकरशाही की किलेबंदी में फंसती जा रही है ।इतना ही नहीं खाद्य सुरक्षा से लेकर कृषि जैसी मामले में भी सरकार की नीति स्पष्ट नहीं हो पा रही है। जहां तक खाद्य सुरक्षा की बात है उसके लिए सरकार गंभीर नहीं दिख रही है क्योंकि 13वें वित्त आयेग के सिफारिशों में सब्सीडी घटाकर 2.5 फीसदी करने को कहा गया है जबकि खाद्य सूरक्षा के लिए सरकार को अतिरिक्त सब्सीडी देनी होगी। अनाजो के भंडारण और रखरखाव, बाढ़ सूखा होने की स्थिति में खाद्य सुरक्षा खानून को अमल में लाना गले की हड्डी साबित हो सकती है। बहरहाल ऊर्जा, द्विपक्षीय संबंधों पर जिस अंदाज में मोदी सरकार काम कर रही है उससे भारतीय विविधतापूर्ण समाज का समेकित विकास संभव हीं नहीं असंभव है। आर्थिक रुप से समृद्ध देश में सभी नागरिकों को सुरक्षा उतना ही महत्वपूर्ण है।
एक तरफ मोदी सरकार अभी भी अल्पसंख्यकों को लेकर घबराहट में है। दुसरी ओर चारों तरफ चर्चा इस बात का भी है भारत में ऐसा कोई प्रधानमंत्री नहीं हुआ जिसने रमजान में इफ्तार पार्टी नहीं दिया हो, लेकिन प्रधानमंत्री जी का इफ्तार पार्टी नहीं देना व्यक्तिगत मामला हो सकता है लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष देश के प्रधानमंत्री जी अल्पसंख्यक का वोट पाने के लिए सेकूलर जैसी शब्दों को ढ़ो सकते हैं जबकि सार्वजनिक रूप में इफ्तार पार्टी देने से डरते हैं ताकि उनका हिंदुत्ववादी छवि खराब न हो जाए। शुरूआती समय से ही सरकार सबको साथ ले जाने की जुमले को बार-बार दोहरा रही है। लेकिन सरकार के काम काज से कुछ दिख नहीं रहा है। कुलमिलाकर मोदी सरकार का कार्य-कलाप ठीक पिछली युपीए सरकार की पटरी पर ही चलती दिख रही है। मनमोहन सिंह पर तंज कसने वाले एनडीए के नेताओं को एक बार तो जरूर सोचना चाहिए। हमेशा अपने को आम जनता का प्रधानमंत्री कहने वाले मोदी जी की चुप्पी रास नहीं आ रहा है।
उल्लेखनीय है कि गरीबी, जेंडर सेनसेटाइजेशन, धर्मनिरपेक्षता और समेकित विकास जैसे मुद्दों को सुनते सुनते हमलोग पक गए हैं, इन सभी मुद्दों पर नारा देने वाली स्पष्ट बहुमत की सरकार के प्रधानमंत्री खामोशी का पूल क्यों बनाने में लगे हैं। सोशल मीडिया ट्वीटर के जरिए प्रधानमंत्री जी पूणे भूस्खलन और कारगिल के शहीदों के प्रति सुहानूभूति जताया। लेकिन एक टेनिस खिलाड़ी पर अपने ही पार्टी सांसद द्वारा की गई टिप्पणी पर कुछ बोलना नहीं चाहते। नमिता कहती हैं कि गोवा के भाजपा विधायकों के हिन्दु राष्ट्र बनाने संबंधी बयान पर प्रधानमंत्री जी मंत्रमुग्ध होते हैं लेकिन प्रतिक्रिया देने से बचते हैं।
बहरहाल, समय रहते प्रधानमंत्री जी चुप्पी तोड़ लें और जनता के उम्मीदों पर खड़ा उतरकर एक स्थाई और स्पष्ट बहुमत वाली सरकार का एहसास कराएं नहीं तो आगामी राज्य विधानसभा चुनावों में अच्छे दिन का एसीड टेस्ट होने में देर नहीं लगेगी।
(लेखक पत्रकार हैं)