अब पतंजलि की दवाइयों पर लिखे शब्दों का अर्थ कौन से आधुनिक शब्दकोष में जोड़ा जाये। क्योंकि बाबा रामदेव अगर पुत्रजीवक को बेटा न मानें, अश्वगंधा को घोडा न कहें, गौदंती को गाय के दांत से ना जोडें तो यह सवाल उठ सकता है कि क्या भारतीय मन के करीब प्राकृतिक इलाज को रखने भर के लिये इन शब्दों का इस्तेमाल बाबा रामदेव कर रहे हैं। तो फिर यह सवाल भी होगा कि कहीं यह प्रोडक्ट बेचने के सांस्कृतिक नुस्खे तो नहीं। यानी प्रचार प्रचार के लिये हर कंपनी जैसे अपने प्रोडक्ट के लिये उन शब्दों का इस्तेमाल करती है जो लोगों की जुबां पर चढ़ जायें उसी तर्ज पर बाबा रामदेव भी आस्था और सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े शब्दों के इस्तेमाल कर अपना माल बेच रहे हैं। हो जो भी लेकिन भारत को भ्रटाचार मुक्त करने के बाबा रामदेव के अभियान के छांव तले पतंजलि या भारत स्वाभियान ट्रस्ट को उड़ान मिली, वह ना सिर्फ मार्केटिंग के तौर पर बल्कि राजनीतिक तौर पर भी कमाल का है। क्योंकि मनमोहन सिंह के दौर में योग गुरु राजनीति का पाठ पढ़ाते हुये रामलीला मैदान से आगे जिस राजनीतिक मकसद के लिये निकले उसने दिल्ली की सत्ता भी बदली और दिल्ली की सत्ता बदलते ही बाबा को भी बदल दिया। योग से भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष और सत्ता बदलाव के बाद खुद के विस्तार के लिये दिल्ली की सत्ता के लिये हथियार बनते बाबा रामदेव पर मोदी सरकार की कृपा के पीछे कौन से सियासी मंसूबे हो सकते हैं, यह भी कम दिलचस्प नहीं है । क्योंकि दिल्ली की सत्ता के लिये बाबा रामदेव या तो आने वाले वक्त में सबसे बडे हथियार साबित होंगे। या फिर दिल्ली की सत्ता 2019 तक बाबा रामदेव को इस हालात में ला खड़ा करेगी जहां राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ भी बाबा के स्वाभिमान ट्रस्ट के सामने कमजोर दिखायी देने लगे। इस खेल की डोर और कोई नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के हाथ में ही होगी। वैसे यह सवाल कोई भी कर सकता है कि जब प्रधानमंत्री मोदी खुद संघ के प्रचारक रह चुके हैं और संघ परिवार प्रधानमंत्री मोदी के पीछे खड़ा है तो फिर बाबा रामदेव को खड़ा करने की जरुरत है क्यों।
तो सियासत की उस बारीक लकीर को भी समझना होगा कि बाबा रामदेव अब भ्रटाचार के मुद्दे पर खामोश क्यों हो गये। बाबा रामदेव जिस भारत स्वाभिमान आंदोलन की अगुवाई करते है जब उसका नारा ही विदेशी कंपनियो के सौ फीसदी बायकाट है तो फिर वह मोदी सरकार के खिलाफ हल्ला बोल के हालात में क्यों नहीं आते। और प्रधनमंत्री मोदी जब दुनिया में घूम घूम कर शिक्षा और स्वास्थ्य सेक्टर को भी विदेशी हाथों में देने की वकालत करते हैं तो फिर बाबा रामदेव जो स्वदेशी शिक्षा और स्वदेशी चिकित्सा का नारा लगाते हैं तो सरकार का विरोध क्यों नहीं कर पाते। असल में बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के पन्नों को खोल कर देखे तो विचारों के लिहाज से आरएसएस की सोच के काफी करीब नजर आयेगा। यानी अधिकतर क्षेत्रों में तो संघ और स्वाभिमान ट्रस्ट एक सरीखा लगेंगे। दोनों के बीच अंतर सिर्फ हिन्दुत्व को लेकर ही है। संघ हिन्दुत्व को हिन्दु राष्ट्र के तौर पर भी देखता समझता है और बाबा रामदेव का स्वाभिमान ट्रस्ट हिन्दुत्व के बदले राष्ट्रीयता का ही प्रयोग करता है। जिसमें सभी धर्म की जगह है। इस्लाम की भी। असल खेल यही से शुरु होता है। बाबा रामदेव की अपनी ताकत है और योग के जरीये देश भर में लोकप्रिय बाबा रामदेव जिस स्वदेशी और राष्ट्रीयता का सवाल उठाते है उससे संघ को परहेज नहीं है। लेकिन संघ कभी नहीं चाहता है कि उसके सामानांतर राष्ट्रीयता का नारा लगाते हुये कोई संगठन बड़ा हो। याद कीजिये तो अन्ना आंदोलन के वक्त भी आरएसएस अन्ना के संघर्ष को सफल बनाने के लिये साथ खड़ा हो गया था। लेकिन रामलीला मैदान में जब भारत स्वाभिमान मंच तले बाबा रामदेव भ्रटाचार को ही लेकर संघर्ष करने उतरे तो संघ ने खुद को पीछे कर लिया। जबकि मुद्दा अन्ना के सवाल को आगे ले जाने वाला था। राजनीतिक तौर पर रामदेव भी अन्ना की तर्ज पर उस वक्त किसी सियासी पार्टी बनाने या चुनाव में संघर्ष करने का कोई एलान नहीं कर रहे थे। लेकिन रामदेव की लोकप्रियता रामलीला मैदान में ही दफन हो जाये इसका प्रयास संघ ने बखूबी किया। और शायद रामलीला मैदान हादसे के बाद बाबा रामदेव भी संघ की इस लक्ष्मण रेखा को समझ गये। लेकिन अब देश की सत्ता पर काबिज प्रधानमंत्री मोदी की जरुरत और आने वाले वक्त में खुद को कही ताकतवर बनाने के लिये बाबा रामदेव की उपयोगिता या संघ से टकराव ना हो इसकी व्यूह रचना को समझना जरुरी है। प्रधानमंत्री मोदी आरएसएस को बाखूबी समझते है। ठीक उसी तरह जैसे प्रधानमंत्री बनने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी समझ रहे थे। संघ से कितनी दूरी और कितनी निकटता रहनी चाहिये इसे बीजेपी के जिस भी राजनेता ने समझा वह झटके में देश की राजनीति में सर्वमान्य बनने लगता है। और इस सच को हर कोई समझता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में संघ परिवार जिस ताकत के साथ मोदी के हक में खड़ा हुआ उसने चुनाव का मिजाज ही बदल दिया। और बीजेपी इस सच को भी जानती है कि 2004 में जब हिन्दू ताकतें घर पर बैठ गई तो वाजपेयी को हार मिली। यानी नरेन्द्र मोदी को ने वाले वक्त में सियासत उस तलवार की धार पर करनी है जहां उनके आर्थिक विकास की डोर का परचम भी लहराये। राष्ट्रवाद आहत भी ना हो । हिन्दुत्व के रंग भी दिखायी दें। और मोदी की पहचान सर्वमान्य नेता के तौर पर बनती चली जाये। ध्यान दें तो नीतियों को लेकर हर मोड पर मोदी सफल हो रहे हैं। मसलन विदेशी निवेश पर अब संघ खामोश है। आर्थिक नीतियों को लेकर भारतीय मजदूर संघ चुप है चाहे मजदूरों के खिलाफ नीतियों को खुले तौर पर अपनाया जा रहा हो । किसान विरोधी सरकार का ठप्पा खुले तौर पर मोदी सरकार पर लग रहा है लेकिन किसान संघ कही बिल में जा घुसा है। और यह सब हो इसलिये रहा है क्योंकि संघ को लग रहा है कि अगर केन्द्र में मोदी सरकार का विरोध वह करने लगे तो फिर सरकार ही ना रहेगी तो आरएसएस जिस विस्तार की कल्पना अपने लिये किये हुये है, वह कैसे होगा ।
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी इस सच को वाजपेयी से कहीं आगे की समझ से समझने लगे है कि सवाल अब यह नहीं है कि संघ को कितनीढील दी जाये। सवाल यह है कि संघ के सामानांतर कैसे कोई बडी लकीर खींच दी जाये। दरअसर बाबा रामदेव का बढ़ता कारोबार और भारत स्वाभिमान ट्रस्ट का विस्तार इसी की कडियां है । क्योंकि बाबा रामदेव के विस्तार के दौर में घर वापसी और अल्पसंख्यक मसलों पर प्रधानमंत्री मोदी को दुनिया के मंचों पर वैसी सफाई देनी नहीं होगी जैसे संघ परिवार को लेकर देनी पड़ रही है। इसलिये सवाल सिर्फ यह नहीं है कि मोदी सरकार के आने के बाद बाबा रामदेव का टर्नओवर 67 फीसदी बढकर 2000 करोड तक जा पहुंचा। सवाल यह है कि संघ के सामांनातर बाब रामदेव का विस्तार हो कैसे रहा है और इस विस्तार का उपयोग मोदी की सियासत करेगी कैसे। असल में आरएसएस का कैडर स्वयंसेवक है। जबकि बाबा रामदेव का कैडर स्वयंसेवक और नौकरी करने वाले इन्सेन्टिव पर टिका है । कारपोरेट को लेकर दोनो का नजरिया स्वदेशी है। दोनों ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ है। आज की तारीख में संघ के देश भर में करीब 15 करोड़ स्वयंसेवक हैं। जबकि भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के साथ पांच करोड़ लोग जुड़े हैं । संघ की देश भर में 50 हजार शाखायें लगती हैं। जबकि बाबा रामदेव के पतंजलि स्टोर पांच हजार हैं। संघ अपने विस्तार को ब्लाक स्तर पर ले जा रहा है। यानी ब्लाक स्तर पर ही स्वयंसेवक सारी जरुरतों की व्यवस्था करेगा । जबकि स्वाभिमान ट्रस्ट हर गांव मनें पांच व्यक्ति को तैयार कर रहा है। जो स्टोर खोलकर उसके सामानो को बेचेंगे। संघ के विस्तार में सिर्फ विचार मायने रखते हैं। लेकिन भारत स्वाभिमान ट्रस्ट हर गांव में एक इमारत ले रहा है। जिसमें कम्पयूटर भी होगा और सामानो को लाने या बांटने के लिये मोटरसाइकिल भी रखी जायेगी । स्वाभिमान ट्रस्ट के साथ अभी 15 लाख लोग सक्रिय हैं। यानी वह गांव में सामानो को ला ले जा रहे हैं। संघ वैचारिक तौर पर हिन्दुत्व का जिक्र कर हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को मूर्त देने में लगे है। जबकि वावा रामदेव राष्ट्रीयता का सवाल उठा कर अपने प्रोडक्ट को बेचते हुये योग को ही विस्तार का जरीया बना रहे है। दोनों का मंशा सौ फिसदी मतदान की है। यानी संघ मोदी सरकार के रहहते हुये विस्तार को अमली जामा पहना पा रहा है। लेकिन जहां उसे लगता है कि उसके विचारों को सरकार महत्व देना बंद कर रही है तो उसकी सक्रियता केन्द्र सरकार के खिलाफ भी एक वक्त के बाद हो सकती है। लेकिन बाबा रामदेव के साथ अमूर्त विचार नही बल्कि मूर्त धंधा है। योग है। और विस्तार के लिहाज से समझे तो संघ 2004 से 2014 के दौरान इस हद तक सिमटा कि उसकी शाखाये घटकर 30 हजार हो गई थी। वहीं बाबा रामदेव के पंतजलि का टर्नओवर मनमोहन सिंह के दौर में धीरे धीरे रफ्तार से बारस सौ करोड ही पहुंचा लेकिन मोदी सरकार के आते ही टर्न ओवर दो हजार करोड हो गया । यानी मोदी सरकार के आसरे संघ भी विस्तार कर पा रहा है और बाबा रामदेव भी । लेकिन संघ से टकराना मोदी के वश में नहीं है और रामदेव को कभी भी आईना दिखाना मोदी के हाथ में है । फिर रामदेव का कैडर राजनीति से कही नहीं जुडा है जबकि संघ का कैडर तो बीजेपी को ना सिर्फ प्रभावित करने के हालात में रहता है बल्कि बीजेपी में उसकी इंन्ट्री भी होती है । तो बाबा रामदेव 2019 के चुनाव में देश के छह लाख गांव तक या तो मोदी के लिये काम करेगें या फिर उनके धंधों पर अंकुश लगना शुरु हो जायेगा । यानी रामदेव का बढता कुनबा संघ परिवार के विस्तार पर भी भारी कैसे पड़ेगा। और आने वाले वक्त में बाबा रामदेव के जरीये देश में स्वदेशी बनाम बहुराष्ट्रीय कंपनी से ज्यादा भारत स्वाभिमान बनाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ होगा कैसे। इसका इंतजार कीजिए क्योंकि संसद के भीतर बाबा रामदेव को लेकर उठे सवाल कोई मायने नहीं रखते है क्योकि बाबा रामदेव की डोर तो प्रधानमंत्री मोदी के हाथ में है ।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)