लेकिन अब सवाल योजना आयोग से नाम बदलकर नीति आयोग का है तो फिर सिर्फ अरविन्द पानागढ़िया का ही नहीं बल्कि मुक्त व्यापार के समर्थक रहे अर्थशास्त्री डॉक्टर बिबेक देवराय का भी सवाल है जो आर्थिक मुद्दों पर मनमोहन सिंह के दौर में सुझाव देते आये है और इन अहम सुझावों को कभी बीजेपी ने सही नहीं माना। या कहे कई मौको पर खुलआम विरोध किया । दरअसल डा बिबेक देवराय स्थायी समिति के सदस्य चुने गये है। और डा देवराय इससे पहले की सरकार में विदेशी व्यापार, आर्थिक मसले और कानून सुधार के मुद्दों पर सलाहकार रह चुके हैं। यानी मनमोहन सरकार के दौर की नीतियों का चलन यहा भी जारी रहेगा तो सवाल है बदलेगा क्या। वैसे भी जमीन अधिग्रहण से लेकर मजदूरों के लिये केन्द्र सरकार की नीतियों से संघ परिवार में भी कुलबुलाहट है। जिस तरह मुआवजे के दायरे में जमीन अधिग्रहण को महत्व दिया जा रहा है और मजदूरों को मालिकों के हवाले कर हक के सवाल को हाशिये पर ढकेला जा रहा है उससे संघ के ही भारतीय मजदूर संघ सवाल उठा रहा है। सवाल यह भी है कि खुद नरेन्द्र मोदी ने पीएम बनने के बाद संसद के सेन्ट्रल हाल में अपने पहले भाषण में ही जिन सवालों को उठाया और उसके बाद जिसतरह हाशिये पर पड़े तबकों का जिक्र बार बार यह कहकर किया कि वह तो छोटे छोटे लोगों के लिये बडे बडे काम करेगें तो क्या नयी आर्थिक नीतियां वाकई बडे बड़े काम छोटे छोटे लोगों के लिये कर रही है या फिर बड़े बड़े लोगों के लिये।
क्योंकि देश की एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, जो कम होगी कैसे इसकी कोई योजना नीतिगत तौर पर किसी के पास नहीं है। बड़े पैमाने पर रोजगार के साधनों को उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी राज्य पर है, लेकिन रोजगार कारपोरेट और उङोगपतियो के हाथ में सिमट रहा है और पहले ना मनमोहन सिंह कुछ बोले और ना ही अब कोई बोल रहा है। गरीबों के लिए समाज कल्याण की योजनाएं सरकार को बनानी हैं। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में सारी योजना तो अब सारी नीतिया कल्याणकारी पैकेज में सिमट रही हैं। ऐसे में नीति आयोग क्या अपने उद्देश्यों पर खरा उतरेगा-ये बड़ा सवाल है।और खास कर तब जब देश को एक तरफ घर वापसी में उलझाया गया है और दूसरी तरफ आर्थिक सुधार की नीतियों की रफ्तार मनमोहन सिंह
से भी ज्यादा रफ्तार वाली हो चली है।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)