विनीत कुमार
जनता और मीडिया से सीधे मुंह बात नहीं करने औऱ उन्हें लगातार इग्नोर करके कैसे नयी मीडिया स्ट्रैटजी बनती है, इसे आप नरेन्द्र मोदी के संदर्भ में बेहतर समझ सकते हैं.
नरेन्द्र मोदी ने मीडिया के लिए अपने को इस तरह एक्सक्लूसिव बनाया कि कोई लाख कोशिश कर ले, अगर चैनल का मालिक स्वयंसेवक( रजत शर्मा जैसे) नहीं है तो उससे बात ही नहीं करेंगे. ऐसे में अच्छा-खराब, क्रिटिकल सवाल करने से कई गुना ज्यादा पूरा मामला इस बात पर आकर टिक गयी कि जो बात कर ले वही सबसे बड़ा पत्रकार. अब देखिए स्ट्रैटजी.
जब नरेन्द्र मोदी मीडिया के लिए इतने दुर्लभ हो जाते हैं और दूसरी तरफ मीडिया को किसी भी तरह दिखाने की तलब बनी रहती है तो किसी एक चैनल को इंटरव्यू देने के बजाय एक एजेंसी को इंटरव्यू देते हैं और बाकी चैनल उस एजेंसी के इंटरव्यू को दबाकर दिन-रात ऐसे चला रहा है जैसे कि उसके लिए भी राजनीतिक विज्ञापन की तरह पैसे दिए गए हों. आप ये नहीं कह सकते कि ये पेड न्यूज है लेकिन इंटरव्यू है, ये भी कहीं से नहीं लगता. ब्रांड बनने की प्रक्रिया में आपको ऐसे ही निरुत्तर किया जाता है.
नरेन्द्र मोदी के इस इंटरव्यू में अब एक नए पैटर्न का जन्म दे दिया है और नेताओं के आगे बिछने की जो कवायद अब तक चैनलों तक सीमित थी, अब उसमे न्यूज एजेंसी भी शामिल हो गए. कल को राहुल गांधी का इंटरव्यू भी इसी तरह आए और सब चैनलों पर विज्ञापन की तरह धुंआधार चले तो कोई आश्चर्य नहीं.
उपर से चैनल छाती चौड़ी करके कहेंगे- लो जी हमने तो फेकू, पप्पू दोनों को बराबर मौका दिया. 70 मिनट के इस इंटरव्यू में मोदी ने बीजेपी का कितना पैसा बचा लिया और विज्ञापन की एवज में चैनलों का कितने का चूना लगा, अंदाजा है आपका. 10 सेकण्ड के विज्ञापन की एवरेज कीमत चालीस हजार यहां सत्तर मिनट जोड़ लीजिए.