देश की आतंरिक सुरक्षा की शायद कोई बहुत अहमियत नहीं है इस सरकार के एजेण्डे में भी ??
बम धमाकों के तुरंत बाद प्रधानमंत्री, केन्द्रीय गृहमंत्री और कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने संवेदनाएँ तो व्यक्त कर दीं, मुआवज़े का ऐलान तो कर दिया लेकिन किसी ने भी आंतरिक सुरक्षा की खामियों की ना तो बात की ना ही किसी ने सुरक्षा-तंत्र की नाकामियों को स्वीकार किया। आखिर क्यूँ ? क्या इनकी कोई जवाबदेही नहीं बनती ?
इस में कोई संदेह नहीं कि केन्द्र की पूर्ववर्ती यू.पी.ए. सरकार ने आंतकवाद , सीमापार से संचालित घुसपैठ, नक्सलवाद , उत्तर-पूर्व के राज्यों में पनप रहे उग्रवाद जैसे मुद्दों पर अपने पूरे कार्यकाल में कभी गंभीरता नहीं दिखाई थी , जिसके कारण देश में आंतकवादी व उग्रवादी गतिविधियां बढ़ीं ,लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी सबसे अहम समस्या आतंकवाद के प्रति केन्द्र की वर्तमान सरकार का रवैया भी अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं ही दिखता है l
आतंकवाद निश्चित रूप से मानवता और देश का दुश्मन है और इसके उन्मूलन या नियंत्रण के लिए एक दृढ़ राजनीतिक इच्छा-शक्ति की आवश्यकता है l वर्तमान केन्द्र सरकार की नीतियों और कार्य-शैली में भी आतंकवाद के ‘किसी भी स्वरूप’ से निपटने हेतू प्रभावकारी व असरदार प्रयासों का अभाव ही दिख रहा है l वर्तमान केंद्र सरकार के अब तक के लगभग सात महीने के कार्यकाल में इस अहम व संवेदनशील मुद्दे पर बयानबाजी तो काफी हो चुकी है लेकिन सख्त व ठोस कदम उठाए जाने एवं सीधी – कारवाई अभी भी प्रतीक्षित हैं l आतंकवाद – उग्रवाद के खिलाफ़ सख्ती बरतने के रास्ते में कहीं कोई निहित राजनीतिक स्वार्थ तो आड़े नहीं आ रहा है या देश की आतंरिक सुरक्षा की शायद कोई बहुत अहमियत नहीं है इस सरकार के एजेण्डे में भी ??
बेंगलूरू धमाकों के बाद इस आलेख के संदर्भ में मैं ने जब एक सेवा –निवृत वरिष्ठ नौकरशाह से उनके विचारों को जानने की कोशिश की तो उनका जवाब था “निःसन्देह ऐसे धमाके और आतंकी घटनाएँ राष्ट्रीय शर्म और दुख की घटनाएँ है, लेकिन अगर आप सोचते हैं कि इस हमले के बाद हमारे मुल्क में बहुत कुछ बदलेगा, तो ये उम्मीदें कतई नहीं पालें। धर्म, राजनीति और सरकार के लोगों की हमदर्दी आज भी दहशतगर्दों के साथ हैं, उनकी पूरी संवेदना आतंकियों के साथ थी और आगे भी रहेगी, भले ही आप जैसे पत्रकार व विश्लेषक इसके राजनीतिक कारणों की तलाश में रहें । फिलहाल, भले ही वे घटना की निंदा कर रहे हों लेकिन कुछ ही दिनों में उनका असली रंग फिर सामने आ जाएगा,इसलिए बेहतर कल की कोई उम्मीद मत ही बांधिए।”
आतंकवाद के नाम पर भारत की पूर्ववर्ती सरकारों का रवैया बहुत स्पष्ट कभी नहीं रहा है और वर्तमान सरकार की नीति भी इस मुद्दे पर पूर्ववर्ती सरकारों से कुछ अलग नहीं दिख रही है । पिछले कुछ दशकों में पूरे एशिया में आतंकवाद की सबसे ज्यादा मार भारत ने ही झेली है और दु:ख इस बात का है कि हमारी सरकारें भविष्य के लिए कुछ नहीं कर रहीं । एक पुरानी उक्ति है “जो केवल अपने बचाव में लगे रहते हैं और कभी आक्रमण नहीं करते वे कभी जीत नहीं सकते।“ हमारी वर्तमान सरकार भीइसी ढर्रे पर चलती दिख रही है। शायद वर्तमान सरकार भी ‘वोट बैंक’ के खेल से खुद को अलग करने में सहज नहीं है !! इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े अहम मुद्दे पर अभी तक इसका रुख नरम ही है l राजनीतिक तबके और सरकारों की नीति हमेशा से ऐसे (उग्रवादी /आतंकवादी ) तत्वों को पुचकारने की रही है l सरकार का उदासीन या नरम रवैया क्या आतंकवादी तत्वों के लिए प्रोत्साहन का कारण नहीं बनेंगे ? ऐसे में ये सवाल प्रासांगिक हो जाता है कि भारत सरकार आतंकवाद , कट्टरवाद , उग्रवाद को समाप्त करना चाहती है या प्रोत्साहन देना चाहती है ?
आतंकवाद/उग्रवाद/ अलगाववाद का खात्मा करने के लिए सरकार को सेना का इस्तेमाल करने के साथ-साथ अन्य विकल्पों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। आतंकवाद का खात्मा करने के लिए आज हमारे देश में राजनीति को हाशिए पर रखकर दृढ़ इच्छा –शक्ति वाली सरकार की जरूरत है । देश की वर्तमान सरकार के संचालकों को यह साबित करना होगा कि आतंकवाद के खिलाफ उनकी कारवाई में राजनीति आड़े नहीं आएगी l
आलोक कुमार ,
( वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक ),
पटना.