मीडिया-स्वामित्व सबसे अहम चुनौती

दिलीप ख़ान

news_channels_भारत में मीडिया को लेकर हाल के वर्षों में जो चिंता जताई गई है उस पर मीडिया के बाहर और भीतर लगातार चर्चा हुई, लेकिन उसे दुरुस्त करने की दिशा में कदम न के बराबर उठे। पिछले पांच-छह वर्षों में बड़े निगमों ने जिस स्तर पर मीडिया में निवेश किया है उसकी वजह से इसका चरित्र भी तेजी से बदला है। बिल्कुल नई किस्म की चुनौतियां इसके सामने खड़ी हुर्इं जो पहले या तो नहीं थीं, या थीं भी तो सतह पर नहीं दिखती थीं। लेकिन इसके सूक्ष्म चारित्रिक बदलाव को अगर छोड़ भी दें तो तीन-चार ऐसे विचलन हैं जो असल में मीडिया की संरचना के साथ सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। इनमें मीडिया के मालिकाने में आया बदलाव, निजी समझौते और पेड न्यूज सबसे अहम हैं। इन तीन समस्याओं के इर्दगिर्द ही बाकी मुश्किलें डेरा डालती हैं। इन तीनों के आपसी संबंध को तलाशें तो मीडिया-स्वामित्व सबसे अहम चुनौती के तौर पर दिखता है।

अब सवाल यह है कि जब मीडिया में हुए और हो रहे इन बदलावों को साफ तौर पर चौतरफा महसूस किया जा रहा है तो इस पर लगाम कसने की कोई ठोस रणनीति क्यों नहीं बन पा रही? क्या सरकार और संसद की तरफ से कोताही बरती जा रही है या फिर मीडिया नाम के उद्योग की संरचना को लेकर यह पसोपेश कायम है कि इसे बाकी उद्योगों से किस रूप में अलगाया जाए? ज्यादा पीछे न जाएं तो पिछले छह साल में संसद, सरकार और इसके अलावा कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण संस्थाओं ने मीडिया को लेकर दर्जन भर से ज्यादा रिपोर्टें जारी की हैं, पचासों टिप्पणियां की हैं और सैकड़ों बार चिंता जताई है।

अभी हाल में, 12 अगस्त को ट्राइ यानी भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण ने मीडिया-स्वामित्व पर अपनी सिफारिशें सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सौंप दीं। इस मसले पर ट्राइ का यह तीसरा अध्ययन है। सबसे पहले साल 2008 में मंत्रालय ने ट्राइ को मीडिया-स्वामित्व के ढांचे का अध्ययन कर सुझाव देने को कहा था। 25 फरवरी 2009 को ट्राइ ने मीडिया पर चंद लोगों के नियंत्रण से उपजे हालात और क्रॉस मीडिया स्वामित्व पर अपने सुझाव सौंप दिए। इसमें खासतौर पर क्रॉस मीडिया स्वामित्व के खतरों से मंत्रालय को अवगत कराया गया था और बताया गया था कि देश के भीतर इसके चलते खबरों और विचारों की बहुलता किस तरह प्रभावित हो रही है। साथ ही विदेशों में इस पर बने नियम-कायदों से भी मंत्रालय को अवगत कराया गया था।

सोलह मई 2012 को मंत्रालय ने ट्राइ को अपने इन सुझावों का पुनरवलोकन करने को कहा, जिसमें कुछ तकनीकी मसलों पर विस्तार देने की बात अंतर्निहित थी। मिसाल के लिए ‘होरिजेंटल ओनरशिप’ और ‘वर्टिकल ओनरशिप’। ‘होरिजेंटल क्रॉस मीडिया ओनरशिप’ का मतलब है एक ही समूह का प्रसारण के अलग-अलग माध्यमों पर कब्जा होना। यानी अखबार, टीवी, रेडियो और पत्रिका अगर एक ही मालिक निकाल रहा हो तो ये होरिजेंटल ओनरशिप है। इसी तरह वर्टिकल ओनरशिप उसको कहेंगे जिसमें प्रसारण और वितरण के अलग-अलग व्यवसाय एक ही मालिक के कब्जे में हों। यानी अगर एक ही समूह का टीवी चैनल भी है और उसके वितरण के लिए डीटीएच और केबल प्रसारण भी, तो यह वर्टिकल ओनरशिप है। इन दोनों मसलों की तहकीकात करते हुए 15 फरवरी 2013 को ट्राइ ने मंत्रालय को एक परामर्श-पत्र सौंपा, जिसमें कुछ अंतिम टिप्पणियां की गई थीं।

परामर्श-पत्र सौंपने के बाद पिछले साल 22 अप्रैल से लेकर 29 अप्रैल तक ट्राइ ने मीडिया-मालिकों के अलग-अलग पक्षों से पूरे मामले पर राय मांगी। पक्ष में तैंतीस और विपक्ष में छह टिप्पणियां आई थीं जो ट्राइ की वेबसाइट पर चस्पां कर दी गर्इं। यही नहीं, इसके बाद देश के अलग-अलग पांच शहरों में खुली बहस भी कराई गई। इसमें ट्राइ के नजरिए से असहमति जताते हुए जो तर्क आए उनमें सबसे प्रमुख स्वर यह था कि भारत दुनिया के अन्य मुल्कों से कुछ महत्त्वपूर्ण अर्थों में भिन्न है। यहां पर जितनी भाषाओं में और जितनी तादाद में अखबार और टीवी चैनल हैं उतने कहीं और मुमकिन नहीं, लिहाजा विचारों और खबरों की बहुलता यहां प्रभावित नहीं हो रही है। लेकिन ट्राइ ने इस महीने की बारह तारीख को जो अंतिम सिफारिश सौंपी है उसमें ऐसे तमाम तर्कों के जवाब दिए गए हैं। देश में अखबारों, टीवी चैनलों और रेडियो स्टेशनों की बड़ी तादाद के बावजूद यह महसूस किया गया है कि असर और प्रसार के मामले में सब बराबर नहीं हैं।

प्राधिकरण ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया है। रिपोर्ट में दिल्ली से निकलने वाले अखबारों के उदाहरण से बताया गया है कि भले ही यहां दर्जन भर से ज्यादा अखबार निकलते हों, लेकिन दो-तीन अखबार यहां के बाजार पर वर्चस्व बनाए हुए हैं, इसलिए उनकी तुलना छोटे-मझोले अखबारों से करना खबरों की विविधता के अर्थ में बेमानी है। विविधता के मसले और कॉरपोरेट के मालिकाने के साथ-साथ धार्मिक व्यक्तियों और संस्थाओं तथा राजनीतिकों के स्वामित्व पर विस्तार से टिप्पणी की गई है।

यह अब काफी शिद्दत से महसूस किया जा रहा है कि अगर किसी खास राजनीतिक पार्टी से जुड़े किसी व्यक्ति के हाथ में मीडिया हो तो वह उसका इस्तेमाल अपनी छवि चमकाने या फिर विरोधी पार्टी के खिलाफ प्रचार के लिए करता है। आंध्र प्रदेश में दो-तीन महीने पहले टीवी चैनलों और केबल प्रसारण पर राजनीतिक पार्टियों के बीच तकरार इतनी तेज हो गई थी कि तेलंगाना और आंध्र के कुछ इलाकों में हिंसक झड़पों के साथ-साथ यह मसला संसद में भी उठा। राजनीतिक मालिकाने को आमतौर पर दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर के साथ लोग जोड़ कर देखते हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह अखिल भारतीय चलन के तौर पर उभरा है।

पार्टी-मुखपत्र को लोग उसी राजनीतिक दायरे और पार्टी लाइन का मानते हुए पढ़ते हैं, लिहाजा मुखपत्र में छपी बातों पर वे अपने तर्कों के जरिए राजनीतिक विभेद ढूंढ़ लेते हैं। लेकिन सामान्य समाचार मीडिया ने जो अपनी साख स्थापित की है, उसमें सियासी सेंधमारी के जरिए अगर खबरें तोड़ी-मरोड़ी जाती हैं तो एक दर्शक या पाठक के लिए उसको नकार पाना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन यह सब न सिर्फ जारी है, बल्कि लगातार विस्तार पा रहा है। ट्राइ की सिफारिश में इसको तत्काल प्रभाव से बंद करने की बात कही गई है।

रिपोर्ट में क्रॉस मीडिया स्वामित्व पर भी एक हद तक पाबंदी की बात कही गई है, चाहे वह स्वामित्व ‘होरिजेंटल’ हो या ‘वर्टिकल’। इसमें दो-तीन फॉर्मूलों के जरिए नियंत्रण की बात कही गई है और सुझाया गया है कि अगर प्रसारण और वितरण दोनों में किसी समूह का बत्तीस प्रतिशत से ज्यादा शेयर है तो किसी एक में उसे घटा कर बीस प्रतिशत के स्तर तक लाना होगा। इसी तरह अगर एक से अधिक मीडिया संस्थान में उसका निवेश है तो उसे ‘प्रासंगिक बाजार में उसके असर’ को देखते हुए कतरा जाना चाहिए। प्रासंगिक बाजार की परिभाषा इस तरह की है कि अगर कोई मीडिया तेलुगू माध्यम का है तो गैर-तेलुगू लोगों के लिए उसका कोई महत्त्व नहीं है, क्योंकि वह उन्हें प्रभावित नहीं कर सकता।

इसलिए भाषावार और क्षेत्रवार ऐसे प्रासंगिक बाजार तलाशे गए हैं। इसमें हिंदी बाजार के दायरे में दस राज्यों को रखा गया है। लेकिन ट्राइ की इस सिफारिश से छोटे बाजार में सक्रिय मीडिया उद्यमियों पर तो लगाम लग जाएगी, लेकिन जो बड़े समूह हैं और जिनका एक साथ हिंदी, अंगरेजी से लेकर दो-तीन भाषाओं के बाजार में दखल है उनके लिए कोई खास मुश्किल पेश नहीं आएगी क्योंकि उनके लिए हर बाजार में अलग-अलग हिस्सा तय होगा।

मीडिया में जिस तरह गुपचुप तरीके से निवेश का चलन बढ़ा है उससे कई दफा असली मालिक का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। इसे देखते हुए भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने रिलायंस के मीडिया समूह इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट का उदाहरण देते हुए दो साल पहले कहा था कि मीडिया उद्योग में ‘नियंत्रण’ को भी स्वामित्व की तरह देखा जाना चाहिए। अगर अध्ययनों का ही जिक्र किया जाए तो भारतीय प्रेस परिषद की 2009 में आई पेड-न्यूज संबंधी रिपोर्ट के बाद संसद की स्थायी समिति ने पिछले साल इसी मसले पर विस्तृत रिपोर्ट सौंपी।

विधि आयोग ने मई 2014 में इस पर एक परामर्श-पत्र दिया। एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज आॅफ इंडिया ने अपने अध्ययन के जरिए इस पर रोशनी डाली। भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने इस चलन पर नए तौर-तरीके अपनाने की वकालत की। लेकिन इन तमाम अध्ययनों के बावजूद कोई ठोस रूप-रेखा अब तक तैयार नहीं हो पाई है।

हाल में ट्राइ ने सूचना प्रसारण मंत्रालय को अपनी जो सिफारिशें सौंपी हैं, उसके बाद दो तथ्यों को देखते हुए उम्मीद जगती है। पहला, जब पहली दफा मीडिया-स्वामित्व पर ट्राइ ने 2008 में सुझाव दिए थे तो उस वक्त उसके अध्यक्ष नृपेंद्र मिश्र थे, जो अब मोदी सरकार में प्रधान सलाहकार हैं। दूसरा, संसद की स्थायी समिति ने पिछले साल जो पेड-न्यूज पर रिपोर्ट दी थी उस समिति के तत्कालीन अध्यक्ष राव इंद्रजीत सिंह कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हो चुके हैं, जो अब सत्ताधारी पार्टी है।

लेकिन मीडिया पर किसी भी तरह की कार्रवाई न करने के पिछले कई साल के रिकार्ड को देखते हुए यही लग रहा है कि यह सरकार भी बिल्ली के गले में घंटी बांधने का काम आगे के लिए टाल देगी। टीवी में स्व-नियमन के तमाम निकाय बुरी तरह विफल रहे हैं और प्रिंट मीडिया की बाबत भारतीय प्रेस परिषद कितना कारगर है यह मीडिया से जुड़ा हर व्यक्ति अच्छी तरह जानता है। ट्राइ की रिपोर्ट के बाद गेंद अब सरकार के पाले में है। लिहाजा, यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या उस गेंद पर शॉट भी लगाए जाते हैं या फिर पाले में आई हुई गेंद रखे-रखे पुरानी हो जाएगी।

(मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित.जनसत्ता से साभार)

(लेखक पत्रकार हैं और राज्यसभा टीवी से जुड़े हुए हैं.)

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