खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे ये कहावत बसपा सुप्रीमो मायावती पर एकदम फिट बैठती है।उनके द्वारा चुनाव आयोग,इवीएम की निष्पक्षता पर सवाल उठाना बिलकुल तथ्यों से परे, आधारहीन,निंदनीय है।एक राजनीतिक विश्लेषक होने के नाते पूरी जिम्मेदारी से तथ्यों के आधार पर मायावती के आरोपों की सच्चाई पर विश्लेषण करूँगा-
1-यूपी 2017 के चुनाव में मायावती को 1 करोड़ 93 लाख वोट मिले जो कुल मतो का 22.4℅है ये मत 2014 के लोकसभा चुनावों में मिले मत प्रतिशत(19.5%) से भी अधिक है इसलिए मायावती के आरोप स्वतः खरिज हो जाते है की इवीएम पर सारे मत बीजेपी को पड़े।साथ ही यदि सपा बसपा कांग्रेस के कुल मत %को जोड़ दिया जाय तो ये आंकड़ा 50%से अधिक होगा यानी प्रदेश की आधी जनता ने विपक्ष को वोट दिया।
2– वर्ष 2007 के यूपी विधान सभा चुनावों में मायावती को पूर्ण बहुमत मिला था जो कई राजनीतिक पंडितों ,नेताओ के गले नहीं उतरा तब मायावती ने इवीएम पर सवाल क्यों नहीं उठाया था ।क्या अपने सियासी फायदे,नुक्सान के आधार पर चुनाव आयोग पर प्रश्नचिन्ह लगाना जायज है।
3-यूपी के साथ पंजाब,गोवा,मणिपुर में भी चुनाव हुए लेकिन पंजाब, गोवा,मणिपुर में बीजेपी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली क्या मायावती इसपर भी कोई सवाल उठाएँगी या चुप्पी साध लेंगी।
4-वर्ष 2015 में दिल्ली विधान सभा चुनाव में मतगणना से पूर्व आप नेताओं ने बीजेपी पर ऐसे ही आरोप लगाये थे की उन्होंने इवीएम मशीनों में फेरबदल क्र दिया है लेकिन मतगणना के बाद जब उन्हें 70 में से 67 सीट मिली तो उनके मुँह सिल गए और उनके भी आरोप मायावती की तरह औंधे मुँह गिरे।
मायावती पर तानाशाही, पैसे लेकर टिकट देने के आरोप हमेशा से लगते रहे है।नोट बंदी के दौरान दिल्ली की करोलबाग शाखा से 103 करोड़ रुपयों का जमा होना,उनके भाई की नोएडा में अरबों की अकूत संपत्ति मायावती पर कई सवाल खड़े करता है।
कुल मिलाकर 5 साल से सत्ता दूर मायावती को दोबारा अपनी करारी हार बिलकुल हजम नहीं हो रही है।मुस्लिम दलित वोटों के सहारे सत्ता का ख्वाब देखने वाली मायावती के इस समीकरण के बुरी तरह फेल होने से सत्ता पर दुबारा काबिज होने की उम्मीदों को करारा झटका लगा है।इसलिए अपनी कुंठा चुनाव आयोग ,इवीएम् पर फोड़ रही है।बेहतर तो यही होगा की वे EVM की बजाये आत्ममंथन पर ध्यान दे.
(अभय सिंह- लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)