प्रेस विज्ञप्ति
जीवन संघर्ष नहीं, आनंद है: मुकुल कानिटकर
एमसीयू के सत्रारंभ कार्यक्रम में विशेषज्ञों ने अलग-अलग विषयों पर विद्यार्थियों को दिया प्रबोधन
भोपाल, 05 अगस्त। हम सबने यह समझ रखा है कि जीवन संघर्षमय है, जीवन स्ट्रगल है जबकि असल में जीवन आनंद है और जीवन का आनंद देने में है, लेने में नहीं। हम देने की चिंता करना भूल गए इसीलिए समस्याएं हैं। पाने की होड़ में दौड़ रहे हैं। जब हम देना शुरू करेंगे तो ‘पाना’ अपने आप हो जाएगा। रामचरितमानस में तुलसीदास ने लिखा है कि उन्होंने इसकी रचना ‘स्वांत सुखाय’ के लिए की है। आप जब अपने आनंद के लिए काम करेंगे तो फिर जीवन में संघर्ष नहीं रह जाएगा। यह विचार भारतीय शिक्षण मण्डल के अखिल भारतीय सह संगठन मंत्री मुकुल कानिटकर ने व्यक्त किए। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय (एमसीयू) के सत्रारंभ कार्यक्रम में दूसरे दिन ‘हमारे सामाजिक दायित्व’ विषय पर बोल रहे थे।
श्री कानिटकर ने कहा कि यह देश देवताओं (देने वालों) का देश रहा है लेकिन अब यह देश मंगताओं (मांगने वालों) का देश हो गया है। उन्होंने प्रेरक प्रसंग सुनाते हुए बताया कि जब तक आपके परिवेश में सब सुखी न हो जाएं तब तक आपके जीवन की सार्थकता क्या है? आपके मन में यह भाव आना ही चाहिए कि आपके प्रयास से किसी रोते हुए चेहरे पर मुस्कान आ सके। श्री कानिटकर ने कहा कि संवेदनाएं नहीं तो मनुष्य है क्या? संवेदनाएं ही तो मनुष्य बनाती हैं। आज भारतमाता के मस्तिष्क और भुजाओं को चूहे कुतर रहे हैं और हम अपने में खोये हुए हैं क्योंकि हमारी संवेदनाएं खत्म हो गईं हैं। 15 करोड़ भारतवासियों को दो जून का भोजन नहीं मिल रहा है और हमारी थाली में इतना भोजन है कि वह बाद में फेंका जाता है। यदि हम अपने को भारतमाता की संतान मानते हैं तो समाज को देना सीखना होगा। इस सत्र का संचालन न्यू मीडिया विभाग के सहायक प्राध्यापक पवन मलिक ने किया।
फिल्म का उद्देश्य सकारात्मक होना चाहिए:
‘एनीमेशन की दुनिया में प्रवेश एवं गंगा फिल्म के बहाने एक संवाद फिल्मों पर’ विषय पर आयोजित पहले सत्र में फिल्मी दुनिया के विकास और उनके उद्देश्य पर बात की गई। रिलायंस एनीमेशन, पुणे के एकेडमिक डायरेक्टर सतीश नारायणन ने पावर पाइंट प्रजंटेशन के जरिए फिल्मों के इतिहास के विषय में बताया। उन्होंने एनीमेशन की दुनिया में करियर की संभावनाओं को भी बताया। इसी सत्र में मुम्बई से आए फिल्म निर्देशक डॉ. राजीव श्रीवास्तव की फिल्म ‘गंगा’ का प्रदर्शन किया गया। डॉ. श्रीवास्तव ने बताया कि गंगा के प्रति लोगों को जागरूक करना जरूरी है। जब तक समाज जागरूक नहीं होगा गंगा को साफ कर पाना मुश्किल है। उन्होंने बताया कि कोई भी विषय नीरस नहीं होता, सारा दारोमदार प्रस्तुति पर निर्भर करता है। फिल्म का उद्देश्य सदैव सकारात्कता होना चाहिए। फिल्म निर्माण से पहले तथ्यों की पड़ताल और शोध जरूरी है। फिल्म में कोई भी गलत तथ्य नहीं होना चाहिए। इस सत्र का संचालन न्यू मीडिया विभाग के सहायक प्राध्यापक सुरेन्द्र पाल ने किया।
जीना सिखाते हैं उपनिषद:
‘विज्ञापन की दुनिया: अवसर और चुनौतियां’ विषय पर आयोजित तीसरे सत्र में विज्ञापन के क्षेत्र में ख्यातनाम सुशील पंडित ने अपने विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं और व्यक्ति के स्वभाव को जोड़ते हुए विज्ञापन के प्रभाव, असर और जरूरत को बताया। इसके अलावा श्री पंडित ने कहा कि उपनिषद हमें जीना सिखाते हैं। जीविका को लेकर समाज में भ्रम है। उपनिषद में इसका सही अर्थ मिलता है। उपनिषदों में जीविका के साथ एक और शब्द है उपजीविका। जिससे आपका खाना-पीना, रहना-पहनना चलता है, वह उपजीविका है। जबकि जीविका वह है जिसके उद्देश्य के कारण आप जीवित रहते हैं।
उन्होंने कहा कि विज्ञापन की दुनिया में मीडिया के जरिए पहले लोगों के मन में हीन भावना पैदा की जाती है, फिर आपको सामान बेचा जाता है। विज्ञापन के क्षेत्र में काम करने के कई अवसर हैं। कंटेन्ट और स्क्रिप्ट के क्षेत्र में अभी भी बहुत गुंजाइश है। विज्ञापन की दुनिया लगातार बड़ी होती जा रही है। सत्र का संचालन जनसंचार विभाग की गरिमा पटेल ने किया।
संवाद का सशक्त माध्यम है टीवी:
‘सामाजिक संवाद और टीवी पत्रकारिता’ विषय पर आयोजित सत्र में आजतक न्यूज चैनल्स के एंकर सईद अंसारी ने कहा कि अपने आंख और कान खुले रखकर ही आप अच्छे पत्रकार बन सकते हैं। न्यूज चैनल्स में सिर्फ एंकर और रिपोर्टर ही नहीं होते हैं बल्कि कई और भी मौके हैं। पत्रकारिता में आने से पहले स्वयं का मूल्याकंन करना चाहिए और फिर तय करना चाहिए कि क्या बनना है।
इस मौके पर न्यूज-24 के मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ ब्यूरो प्रमुख प्रवीण दुबे ने कहा कि टेलीविजन को लेकर लोगों में एक धारणा है कि टीवी गंभीर नहीं होती है। जबकि टीवी हमेशा समाज के संवाद को समझकर अपनी बात कहता है। संवाद की सफलता तभी है जब वह अपनी बात लोगों तक पहुंचा सके। उन्होंने कहा कि टीवी की कोशिश यही होती है कि वह आम जनता के मन की बात कहे। हालांकि यह बात भी सही है कि टीवी कई बार अपनी सीमाएं लांघ जाता है। अपने बचाव में टीवी से जुड़े लोग अमूमन कहते हैं कि लोग जो देख रहे हैं हम वही तो दिखा रहे हैं। जबकि सच यह है कि टीवी जो दिखाएगा, लोग उसे ही देखना शुरू कर देंगे। उन्होंने बताया कि सामाजिक संवाद का सबसे सशक्त माध्यम है टीवी। सत्र का संचालन जनसंचार विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ. सौरभ मालवीय ने किया।
(डॉ. पवित्र श्रीवास्तव)
निदेशक, जनसंपर्क प्रकोष्ठ