दुर्गेश उपाध्याय
( लेखक पूर्व बीबीसी पत्रकार और स्तंभकार हैं)
बहुचर्चित एवं विवादास्पद भूमि अधिग्रहण विधेयक संशोधनों के साथ लोकसभा में भारी बहुमत से पास हो गया है. बिल के विरोध में खिलाफत को थामने के लिए केंद्र ने अपनी ओर से खुद 9 संशोधन रखे, इसके बावजूद वह विपक्षी दलों को मनाने में नाकामयाब रही.
केंद्र सरकार में शामिल शिवसेना ने मतदान में बिल पर सरकार का साथ नहीं दिया. जहां कांग्रेस, बीजद, सपा और तृणमूल कांग्रेस ने बिल को किसान विरोधी बताते हुए सदन से वॉक आउट किया, वहीं जदयू और वाम दलों ने बिल का जमकर विरोध किया.
इससे पहले ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी बीरेंद्र सिंह द्वारा 9 मार्च को पेश भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2015 पर लगभग नौ घंटे की लंबी चर्चा हुई उसके बाद इस बिल को 10 मार्च को मतदान के जरिये लोकसभा में पारित किया गया. सरकार के सामने अब बड़ी चुनौती इसे राज्यसभा में पास करने की है जहां उसके पास संख्या बल नहीं है.
भूमि अधिग्रहण विधेयक पर पिछले कुछ समय से काफी हंगामा होता रहा है. एक तरफ जहां किसानों के हिमायती माने जाने वाले किसान संगठनों ने इसका विरोध किया तो वहीं विपक्षी कांग्रेस के थके हारे नेताओं ने भी भरसक इसका विरोध करने के लिए जंतर मंतर पर इकट्ठा होने में देर नहीं लगाई. तमाम विपक्षी दलों ने इस मुद्दे पर सरकार को घेरने में एकजुटता दिखाई है और आरोप लगाया है कि यह अध्यादेश पूरी तरह से किसान विरोधी और कॉरपोरेट सेक्टर के फायदे के लिए बनाया गया है. बात साफ है कि विपक्ष सरकार पर इस बिल के जरिए कुछ खास बिजनेस घरानों को फायदा पहुंचाने का आरोप लगा रहा है. लेकिन यहां ये समझना जरुरी हो जाता है कि आखिर कौन सी बातें हैं जिस पर सरकार और विपक्ष में आम राय नहीं बन पा रही है .
नए संशोधनों के मुताबिक सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहण नहीं किया जाएगा, किसानों की बहुफसली जमीन नहीं ली जाएगी, निजी अस्पताल और शिक्षण संस्थाओं के लिए सरकारी अधिग्रहण नहीं किया जाएगा, किसानों को अपील का अधिकार, परिवार के एक सदस्य को नौकरी मिलेगी, इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के लिए सीमित जमीन का प्रावधान होगा, संशोधन के बाद कॉरिडोर के दोनों तरफ एक-एक किमी की जमीन का अधिग्रहण किया जाएगा और बंजर जमीनों का अलग से रिकॉर्ड रखा जाएगा, कानूनी समय को बाहर करते हुए 5 साल के बाद भूमि वापस करने का प्रावधान और धारा 105 में एक साल के बाद शामिल किए जाने वाले एक्ट के 13 प्रावधानों को शामिल किया गया है.
ये तो रही सरकार की तरफ से किए गए संशोधनों की बात लेकिन विपक्ष इस मुद्दे को खासा भावनात्मक रुख देने पर लगा हुआ है. उसका कहना है कि किसान के लिए उसकी जमीन बहुत मायने रखती है और सरकार जिस जोर जबरदस्ती से जमीनों का अधिग्रहण करना चाहती है उससे देश का किसान बदहाल हो जाएगा, उसकी रोजी रोटी छिन जाएगी और खेती योग्य भूमि जिस पर फसलें उगाई जाती हैं वो बर्बाद हो जाएंगी. ऐसा भी नहीं है कि विपक्ष के सारे आरोप बेबुनियाद हैं. सरकार को ये समझना होगा कि जो संशोधन उसने इस अध्यादेश में किये हैं कहीं उससे वास्तव में किसानों का हित प्रभावित तो नहीं हो रहा, कहीं सरकार जल्दबाजी में तो ये कदम नहीं उठा रही. जमीनों का अधिग्रहण करके विकास की रफ्तार को तेज करने का सपना देख रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहीं इसे अपनी जिद का विषय तो नहीं बना चुके हैं. इस बिल को पास कराने की जितनी तेजी उनकी सरकार दिखा रही है कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके दूरगामी अच्छे परिणाम सामने न आएं. मेरी समझ से इन सभी बातों पर विचार करने के बाद ही आगे कदम बढाना चाहिए.
हांलाकि ये दुखद है कि इतने गंभीर विषय पर भी राजनैतिक दल अपनी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं. जिन दलों ने कांग्रेस द्वारा लाए गए इस मूल कानून का उस समय समर्थन किया था, वे अब इसका विरोध क्यों कर रहे हैं क्यों कि वे अब सत्ता में हैं. अब उनके तर्क बदल गए हैं. उनके दोहरे चरित्र से ये साफ हो जाता है कि या तो वे तब गलत थे या अब गलत हैं. बहरहाल एक ही मुद्दे पर किस तरह से राजनैतिक दलों की राय समय समय पर बदलती रहती है उससे आम जनता ये नहीं समझ पाती कि दरअसल सही राय क्या है.
मोदी सरकार पर यह आरोप है कि वह ऐसा इसलिए कर रही है कि वह उद्योगपतियों को जबरदस्त फायदा पहुंचाना चाहती है, इस आरोप को सच भी माना जा सकता है क्यों कि किसान के लिए उसकी जमीन उसकी जान से भी ज्यादा प्यारी होती है तो फिर सहमति की सीमा को बढाकर 90 फीसदी क्यों नहीं किया जा रहा है. जब उसकी जमीन का मुआवजा आप 4 गुना दे रहे हैं तो कोई भी किसान अपनी सहमति क्यों नहीं देगा तो फिर सहमति लेने में गुरेज क्यों. जहां तक सामाजिक परिणामों के मूल्यांकन का सवाल है वह कौन करेगा? जाहिर सी बात है सरकारी अफसर तो फिर इसमें भी शक की गुंजाइश कहां बचती है. सबसे पहले देश में भारी संख्या में बंजर पड़ी जमीनों के उपयोग के बारे में क्यों विचार नहीं किया जा रहा. उनका सदुपयोग कैसे हो सबसे बड़ा मुद्दा तो ये होना चाहिए. उन बंजर जमीनों पर इंडस्ट्रियल कॉरिडोर खोलने में इस्तेमाल क्यों नहीं किया जा सकता और कहीं बहुफसली जमीनों का अगर अधिग्रहण करना आवश्यक ही हो तो किसानों की सहमति लेने में इतनी परेशानी क्यों. क्या देश के किसान को आप देश की प्रगति में हिस्सेदार बनाएंगे तो उसको खराब लगेगा. मेरे ख्याल से बिल्कुल नहीं. वो तो बस इतना चाहता है कि उससे उसकी जमीनें जबरदस्ती न छीनी जाए और उसकी सहमति ली जाए और उसके परिवार का भविष्य सुरक्षित रहे.
मेरे ख्याल से अगर प्रधानमंत्री इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बनाएंगे तो घाटे में रहेंगे, उन्हें लचीला रुख अपनाते हुए भूमि अधिग्रहण पर ऐसा कानून लाना होगा जो किसानों और उद्योगपतियों दोनों के लिहाज से बेहतर हो और देश की प्रगति की रफ्तार तेज हो सके.