अब्दुल रशीद
साल के आख़िर में ३१ दिसम्बर को जारी आध्यादेश से सरकार ने २०१३ भूमि अधिग्रहण अधिनियम में कई अहम बदलाव किए हैं. कहने को किसानों का देश और उन से जुड़े कानून में अध्यादेश से के जरिए किए गए परिवर्तन से देश भर में बहस छिड़ गया है कि क्या अध्यादेश किसान के हित में है या कारपोरेट जगत के लिए?
१८९४ में ब्रिटिश काल में बना भूमि अधिग्रहण कानून के अनुसार भूमिअधिग्रहण कि प्रक्रिया में न तो छोटे किसान और आदिवासियों के साथ इन्साफ होता था न हीं पुनर्वास जैसा कोई प्रावधान था. उद्योग जगत के विस्तार से इस कानून के दुष्प्रभाव भी व्यापक रूप से नज़र आने लगा.
राजनैतिक दल चाह के भी इस कानून का समर्थन नहीं कर सकती थी क्योंकि ऐसा करने से जनता में जनविरोधी कानून के समर्थन करने जैसा सन्देश जाने का भय था.यूपीए सरकार ने जनता का रुख भांप कर हड़बड़ी में २०१३ भूमि अधिग्रहण बिल पास कर दिया, लेकिन इस बिल में देश के औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के लिए अनिवार्य जरूरतों को तवज्जो कम दिया गया. वहीं किसानों के लिए बेहतर प्रावधान किए गए.इस बिल के अनुसार गाँव की जमीन अधिगृहित किए जाने पर बाज़ार रेट से ४ गुना क्षतिपूर्ति और शहरी जमीन के लिए २ गुना अधिक क्षतिपूर्ति का प्रावधान है.
पीपीपी प्रोजेक्ट के लिए जमीन लेने पर ७०% किसानों/भू-स्वामियों तथा निजी क्षेत्र में ८०% किसानों कि सहमति जरुरी है.पुनर्वास और विस्थापितों को नौकरी की शर्त भी थी. हड़बड़ी में लाए गए २०१३ भूमि अधिग्रहण बिल में संसोधन कि उम्मीद कामो बेस सभी को था लेकिन इस अधिनियम में इतने बड़े परिवर्तन बगैर संसद में व्यापक बहस के अध्यादेश के माध्यम से करना लोकतंत्र में लोक के मूल्यों को नज़रंदाज़ करने जैसा प्रतीत होता है.