आज अख़बार के जिस ख़बर की तसवीर मैं चस्पाँ कर रहा हूँ, उसके ज़रिये हिन्दीवालों का अपनी ही भाषा के प्रति अज्ञान और अँग्रेज़ी को श्रेष्ठ मानने की उनकी मानसिकता, दोनों की ही शिनाख़्त आप कर सकते हैं।
शीर्षक में एक शब्द है—लॉन्ग-कोविड। पूरी ख़बर में कई बार ‘लॉन्ग’ शब्द इस्तेमाल हुआ है। सोचिए कि लिपि की ध्वन्यात्मक विशिष्टता के स्तर पर देवनागरी के हिसाब से यह ‘लॉन्ग’ क्या है। इसी तरह से सॉन्ग, रॉन्ग वग़ैरह भी लोग लिखने लगे हैं।
‘महाजनो येन गतः स पन्थाः’ के अनुसार धीरे-धीरे आम लोग भी ऐसा ही लिखना शुरू कर देंगे। यह मूर्ख मीडिया के अज्ञान की विजय होगी। कई शब्द-प्रयोगों में मीडिया का सिखाया अनाप-शनाप सिर चढ़कर आजकल बोलने भी लगा है।
ख़बरों में अँग्रेज़ी के Long, Song, Wrong जैसे शब्दों के लिए लॉन्ग, सॉन्ग, रॉन्ग लिखने का जिसने भी आदेश जारी किया होगा, ज़ाहिर-सी बात है कि उसे देवनागरी लिपि की बुनियादी बातें पता नहीं रही होंगी और वह अँग्रेज़ी उच्चारण की शुद्धता बनाए रखने का ज़बरदस्त हिमायती भी रहा होगा। मैं भी इस बात का समर्थन करता हूँ कि भाषा अँग्रेज़ी हो या देशी-विदेशी दूसरी कोई और, अगर हम उसका कोई तत्सम शब्द प्रयोग में लाते हैं, तो बेहतर है कि उस शब्द का मूल उच्चारण भी अधिकतम शुद्ध रूप में बचाकर रखें, लेकिन सवाल यह है कि अन्य किसी भाषा का उच्चारण शुद्ध रखने के लिए क्या अपनी ही भाषा का उच्चारण बिगाड़ देना चाहिए?
दुनिया की किसी और भाषा में ऐसा नहीं हो रहा है, जैसा हिन्दी में हो रहा है। हमारी ही तरह अँग्रेज़ों के गुलाम रहे पाकिस्तानी तक ऐसा नहीं करते। विडम्बना तो यह है कि अगर हमारे जैसे कुछ लोग साफ़-सुथरी हिन्दी सीखने-सिखाने की बात करते हैं तो मानसिक गुलामों की एक पूरी फ़ौज है, जो एक सुर में गाने लगती है कि आप हिन्दी को कठिन बनाना चाहते हैं। मज़ा यह कि हिन्दी को साफ़-सुथरी और व्याकरणसम्मत बनाने के विरोधी ऐसे ही लोग अँग्रेज़ी को ज़रा भी बिगाड़ना पसन्द नहीं करते और बड़ी ज़िम्मेदारी से उसे साफ़-सुथरी, शुद्ध और व्याकरणसम्मत बनाए रखने की वकालत करते हैं।
अब सोचिए कि रोमन में लिखे Long को देवनागरी में क्या ‘लॉन्ग’ लिखा जाना चाहिए? रोमन में 26 अक्षरों से काम चलाया जाता है, तो क्या देवनागरी वर्णमाला में भी वर्णों की सङ्ख्या घटाकर 26 कर दी जाए? सच्चाई यही है कि रोमन बेहद कमज़ोर लिपि है। हमारी मानसिक गुलामी इसे महान् बनाती है। यह तकनीकी वर्चस्व का युग है। अँग्रेज़ीवालों का तकनीकी वर्चस्व हमारे ऊपर ज़्यादा है तो अँग्रेज़ी हमें महान् लगती है, पर किसी दिन हिन्दीवालों का तकनीकी वर्चस्व दुनिया पर बढ़ जाए तो हर कहीं हिन्दी महान् दिखाई देने लगेगी। बहरहाल, भाषा-विज्ञान के संसार के सारे अध्येता स्वीकार करते हैं कि देवनागरी में मानवीय अभिव्यक्ति की दृष्टि से ज़रूरी ध्वनियों के लिए सर्वाधिक समर्थ प्रतीक मौजूद हैं। बात बस इतनी है कि हम हिन्दीवाले क्या अँग्रेज़ियत की मानसिकता से बाहर निकलकर हिन्दी का गौरव महसूस कर पाएँगे या अँग्रेज़ी में जगह न बना पाने की विवशता में ही जैसे-तैसे हिन्दी की पूँछ पकड़कर घिसटते रहेंगे?
वास्तव में Long को ‘लॉन्ग’ के बजाय देवनागरी में लिखा जाना चाहिए ‘लॉङ्ग’। रोमन में ङ्, ञ्, ण् और न् के लिए सिर्फ़ एक प्रतीक N से काम चलाया जाता है, जबकि इन सभी ध्वनियों का देवनागरी में महीन विश्लेषण है और अलग-अलग वर्ण निर्धारित करने के ध्वनि-वैज्ञानिक कारण हैं। ये सभी ध्वनियाँ अल्पप्राण घोष हैं, पर ङ् कोमल तालव्य, ञ् तालव्य स्पर्श-घर्षी, ण् मूर्धन्य प्रतिवेष्ठित स्पर्श, तो न् दन्त्य-वर्त्स्य। रोमन में विकल्प नहीं तो सबका काम N से चलाना पड़ता है। हमारे पास जब सही उच्चारण को व्यक्त करने के लिए समाधान मौजूद है तो हम हर कहीं N = न् क्यों बनाएँ? याद रखने की बात है कि उच्चारण की दृष्टि से हमेशा N का मतलब न् नहीं होता। Long, Song, Wrong जैसे शब्दों में N का उच्चारण स्पष्ट रूप से अल्पप्राण घोष कोमल तालव्य स्पर्श वाला है, जिसको व्यक्त करने के लिए देवनागरी में ‘ङ्’ मौजूद है। यह बात ज़रूर है कि टाइपराइटर के चलन के बाद उसके सीमित कीबोर्ड में टाइप की सुविधा को देखते हुए ङ् के स्थान पर अनुस्वार की बिन्दी का ज़्यादा प्रयोग किया जाने लगा। बावजूद इसके यह एकदम विलुप्त नहीं हुआ और ‘वाङ्मय’ जैसे शब्दों में प्रयोग किया जाता रहा। वर्तमान में कम्प्यूटर की सुविधा ने टाइपिङ्ग को एकदम आसान बना दिया है, इसलिए अब फिर से नासिक्य ध्वनियों को सही रूपों में प्रचारित किए जाने की ज़रूरत है। संसार की सबसे महान् लिपि की वैज्ञानिकता की रक्षा इसी तरीक़े से हो सकती है। यह निहायत ग़लत है कि आप अँग्रेज़ी के अर्धविवृत स्वर ‘ऑ’ के सही उच्चारण को बचाने के लिए हिन्दी के कोमल तालव्य ‘ङ्’ को दन्त्य-वर्त्स्य स्पर्श ‘न्’ बनाकर बिगाड़ दें। यदि ‘ङ्’ आपके कीबोर्ड पर नहीं बनता या आप इसे पूरी तरह से बेदख़ल ही कर देना चाहते हैं, तो भी कम-से-कम एकदम से ग़लत चीज़ का प्रचार तो मत कीजिए। रोमन के Long, Song अथवा Wrong के लिए बेहतर है कि देवनागरी में ‘लांग’, ‘सांग’ अथवा ‘रांग’ लिखिए, लोग अँग्रेज़ी के हिसाब से समझ ही जाएँगे। अगर अँग्रेज़ी के ‘ऑ’ को बचाने के लिए हिन्दी के ‘ङ्’ और ‘न्’ को बिगाड़ने की ज़िद ठान रखी हो, तो बात दूसरी है।
यह भी समझने की बात है कि जब हमारे यहाँ नचिकेता, याज्ञवल्क्य के संवाद चल रहे थे तो पश्चिम में लोग भेड़-बकरियाँ चराया करते थे या लूटमार करके अपना पेट भरते थे। विकास की जो धारा पश्चिम में चली, भारत में उससे अलग थी। उन्होंने प्रकृति के शोषण को अपने जीवन का आधार बनाया, पर हमारे पुरखे प्रकृति के पोषण को जीवन-मूल्य बनाकर आगे बढ़े। उनके यहाँ जीवन खण्ड-खण्ड होकर चलता रहा है, पर हमारे यहाँ जीवन को समग्रता में देखने का पुरुषार्थ किया जाता रहा है। यह विशेषता भारतीय जीवन-दर्शन की अन्यान्य विधाओं में कहीं भी देखी जा सकती है। चिकित्सा, सङ्गीत, योग से लेकर पाक-कला तक में। भाषा के विकास में भी यही चीज़ मौजूद है। अँग्रेज़ों के कोड़े हमारे शरीर पर इतने पड़े हैं कि आँखें जैसे आज भी पथराई हुई हैं और हम अपनी भाषाओं में मौजूद समग्रता का यह तत्त्व आसानी से नहीं देख पा रहे हैं। सवाल बस इतना है कि जो उनकी मजबूरी है, क्या उसे हमें अपनी भी मजबूरी बना लेनी चाहिए?
( संत समीर के सोशल मीडिया वॉल से साभार )