अमित राजपूत
अण्णा आन्दोलन के भ्रष्टाचार विरोधी ऐतिहासिक आंदोलन की नींव पर खड़ी आम आदमी पार्टी ने अपने आरम्भ में एक राजनैतिक दुंदुभी बजाई थी। इस दुंदुभी में फूंक मारने वालों में संस्थापक अरविन्द केजरीवाल के साथ तमाम अन्य प्रमुख चेहरे थे, जिन्होंने बीते दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जीत हासिल की और मंत्री भी रहे। आज जब आम चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी एक सशक्त और प्रभावी पार्टी के रूप में आम आदमी पार्टी के सामने खड़ी है तो ज़ाहिर है कि ‘आप’ को अपनी उस दुंदुभी में मिलकर तेज़ फूंक मारने की ज़रूरत है, किन्तु हो इससे बिल्कुल उलट चुका है। आम आदमी पार्टी का बड़ा चेहरा रहीं शाज़िया इल्मी अब बीजेपी का दामन थाम चुकी हैं, विनोद कुमार बिन्नी पहले ही पार्टी के बागी रहे हैं और आज न सिर्फ़ वो बागी हैं, अपितु भारतीय जनता पार्टी से ’आप’ के ख़िलाफ़ चुनाव भी लड़ रहे हैं। सबसे माकूल बात ये कि अण्णा के साथ केजरीवाल और किरण बेदी साथ-साथ आन्दोलन में रहे और दोनों की छवि जनता के सामने एक जैसी है, दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के एकदम बरक्स खड़ी हैं। ऐसी स्थिति में हम ‘आप’ की दुंदुभी की हालिया तीव्रता की स्थिति का जायजा लगा सकते हैं।
बीते नवम्बर-दिसम्बर तक बीजेपी अपनी स्थिति को दिल्ली में ठीक-ठाक आंक रही थी, जोकि उसका बड़ा भ्रम था। क्योंकि उसी दरमियां आम आदमी पार्टी ने घर-घर अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी और उसकी स्थिति में भी इजाफा हो रहा था। ‘आप’ की उपरोक्त स्थिति तो हालिया है, इससे पहले उस पर प्रहार स्वरूप कुछ न था बीजेपी के पास और बाजेपी आम आपमी पार्टी से कमज़ोर पार्टी थी दिल्ली में, वो अलग बात है कि उसने मनमानी ढंग से अपनी पार्टी की सीटों का आंकड़ा 50-60 का आंक लिया था। रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के बाद बीजेपी की कलई खुल गई। वहां अपनी एक लाख की अनुमानित भीड़ की बजाय उन्हे मात्र लगभग तीस हज़ार की भीड़ के दर्शन हो सके, इससे बीजेपी संगठन में खलभली मंच गई और पार्टी ने तुरन्त एक आन्तरिक सर्वे कराया गया। सर्वे में पाया गया कि बीजेपी की स्थिति एकदम से खस्ता है। मध्य-वर्ग का पूरा वोट ‘आप’ की तरफ जाएगा, युवाओं में तो आज भी केजरीवाल को लेकर भरोसा बना हुआ है तथा महिलाओं की सुरक्षा के मामले में पार्टी हमेशा अपना मत सामने रखती आयी है। ऐसी स्थिति में केजरीवाल की छवि के बरक्स कोई व्यक्तित्व सामने लाना बीजेपी की महान मज़बूरी बन गई, अब तक वो समझ चुकी थी कि दिल्ली में सिर्फ़ मोदी-फैक्टर नहीं चलने वाला है। ऐसी स्थिति में बीजेपी ने एक बड़ा दांव खेला, देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी को बीजेपी की तरफ़ से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया।
किरन बेदी को भारतीय जनता पार्टी द्वारा मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाना दरअसल, इस बात की ओर इंगित कर रहा है कि भाजपा को केजरीवाल का भूत जबर्दस्त तरीके से डरा रहा है। अब चुनावी ऊंट चाहे जिस भी करवट बैठे लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने भाजपा को उसकी अब तक की रणनीति बदलने को मज़बूर कर दिया। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय जनता पार्टी नें ये मान लिया है कि केवल मोदी लहर के ही सहारे केजरीवाल का मुकाबला नहींकिया जा सकता है। बाकायदा मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर किरन बेदी का नाम घोषित हो जाने के बाद ये पूरी तरह से साफ हो सका, कि दिल्ली का चुनावी-दंगल अण्णा-आंदोलन के पूर्व दो सहयोगियों के बीच होगा।
हलांकि किरन बेदी के बाद शाज़िया इल्मी और विनोद बिन्नी जैसे घर-भेदियों के बीजेपी में शामिल होने से ‘आप’ की स्थिति पर सेंध लगना हर हाल में स्वाभाविक है। साथ ही इसी क्रम में कांग्रेस की पूर्व केन्द्रीय मंत्री कृष्णा तीरथ और यूपी के पूर्व डीजीपी बृजलाल के बीजेपी में शामिल हो जाने से वो और मज़बूत हुई है,फिर से चमक बढ़ा रही है। बीजेपी का मज़बूत होना ‘आप’केलिए ही ख़तरा है, क्योंकि सीधे टक्कर इनमें ही है। अब दिल्ली की जनता के सानने दो ईमानदार नौकरशाह आमने सामने खड़े हैं और उन्हें दमदार निर्णय से गुजरना है। दिल्ली की होशियार जनता को निश्चय करना होगा कि आगामी विधानसभा चुनाव के कुरूक्षेत्र में वो किस पाले में खड़ी होगी, पाण्डवों की सेना में या फ़िर कौरवों की सेना के में…? किन्तु कौन पाण्डव है और कौन कौरव है इसका निर्णय जटिल है। सांकेतिक तौर पर सेना के रण-बिगुल या दुंदुभी की आवाज़ पहचान कर निर्णय लिया जा सकता है कि कौन क्या है, हलांकि ‘आप’ की दुंदुभी ने अपनी स्निग्धावस्था में भारतीय राजनीति के अन्दर हलचलें पैदा कर दी थी।
जानकारों का ये भी कहना है कि अरविंद केजरीवाल को जिन लोगों की वजह से नेगेटिव पब्लिसिटी का लोड उठाना पड़ता था, वो लोड शेडिंग करके अब बीजेपी की तरह जा चुके हैं, उम्मीद है कि उनका आचरण वहां भी वैसा ही रहेगा इसलिए उनको जाने दिया जाए। फिलहाल दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी से भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों को भयभीत होने की ज़रूरत है, और दोनों पार्टियां पर्याप्त भयभीत भी है, क्योंकि दिल्ली की बड़ी जनसंख्या केजरीवाल को पसन्द करती है। इनमें भी खासी संख्या मध्यम-वर्गीय परिवारों और ऑटो वालों की हैं। इसी भय का ही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी संयुक्त रूप से केजरीवाल के धरनों का एक स्वर में विरोध करते हैं।उन्होनें केजरीवाल पर वार करने के लिए धरनों को ही हंसी की चीज़ बना दिया है। ये सत्य है कि धरना धरना क्यों औपर कब करना है, वह राजनीतिक विवेक और राजनीतिक उद्देश्य पर निर्भर करता है। मगर धरना देना अपने आप में मज़ाक का विषय भी नहीं हो सकता है।
भाजपा भी केजरीवाल के धरनों पर सवाल खड़े कर रही है और कांग्रेस भी धरनों का ही मजाक उड़ा रही है, पर अभिव्यक्ति और विरोध कर सकने वाले लोकतांत्रिक देश में केजरीवाल के धरना देने पर कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। वास्तव में धरना, प्रदर्शन, जुलूस वगैरह किसी आंदोलन के तौर-तरीके हैं और जिन्हें आंदोलन से परहेज हो, वे ही धरना-जुलूस वगैरह से चिढ़ सकते हैं। यद्यपि केजरीवाल ने धरना दे कर कुछ ग़लत नहीं किया, तथापि ग़लत यह किया है कि वो जिस राजनीति को बदलने निकले थे, उसी राजनीति के रंग में ही रंग गये, जिसको शायद एक बौद्धिक वर्ग रेखांकित करता चल रहा है। उनका ये रेखांकन चुनावी निर्णय में असरकारक होगा। ऐसे में आम आदमी पार्टी की स्थिति इस चुनाव में करो या मरो की दशा में पहुंच चुकी है।
दिसंबर 2013 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी को कुछ वोट कांग्रेस के मिले थे और कुछ बसपा के भी। किन्तु इस बार कांग्रेस के कुछ वोट उसे वापस लौट जायेंगे, कुछ भाजपा के पास चले जायेंगे औरकुछ आम आदमी पार्टी के पास बचे रहेंगे। वहीं इस बार बसपा अपने वोटों पर दावा करने के लिए पूरे 70 सीटों पर मैदान में उतर रही है, जिसका सीधा नुकसान आम आदमी पार्टी को होगा। हलांकि दलित वोट बीजेपी की झोली में भी जाने की संभावना पूर्ण है। इस मामले में बीजेपी ने दलित नेता और बीजेपी सांसद डॉ. उदित राज की खूब उपयोग किया है।कांग्रेस के कुछ वोट उसके पास वापस लौटेंगे, मगर उसे दौड़ से बाहर मान कर दिसंबर 2013 में मिले कुछ वोट कटेंगे भी। इसलिए कांग्रेस का वोट प्रतिशत करीब-करीब पिछली बार जितना ही रह सकता है, या शायद थोड़ा कम भी हो जाये।
दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव में बसपा बिल्कुल साफ थी। उसके लगभग सारे वोट (आम तौर पर लगभग 8-9%) आम आदमी पार्टी को चले गये थे। इस बार बसपा सारी 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। अगर उसने अपने परंपरागत 8-9% वोटों में से 6-7% भी वापस ले लिये तो आम आदमी पार्टी का मत प्रतिशत क्या रहेगा इस बार…?
भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो जहां पिछले समय में तमाम हस्तियों के पार्टी में शामिल हो जाने से बीजेपी की स्थिति में काफी इज़ाफा हुआ था, वहीं टिकट वितरण के बादपार्टी में आन्तरिक असन्तोष की स्थिति बनी हुयी है। ऐसे में जब घर के अन्दर ही मतैक्य न हो तो फिर मतदाता को एक तरफ कैसे मोड़ा जा सकता है, जैसाकि भारतीय जनता पार्टी का प्रयास है। बीजेपी के आंतरिक ढांचे में आरोपों और आचरणों के बदलाव का दौर सा चल रहा है। ऐसी स्थिति में अक्सर आरोपों और आचरण में बदलाव के कारण कार्यकर्ताओं का मोहभंग होता है और साथी छिटक जाते हैं। यही स्थिति बीजेपी को कमज़ोर कर रही है, जिसका सीधा-सीधा फायदा आम आदमी पार्टी को हो सकता है और वो इसको भुनाने में कतई कसर नहीं छोड़ने वाली।
वास्तव में अरविन्द केजरीवाल का व्यक्तित्व स्वयं में ही बीजेपी से लड़ने केलिए काफी समझा जाता है, और इस बात को बीजेपी तुरन्त भांप भी गई कि आरविन्द केजरीवाल की राजनैतिक छवि पर, पर या परोक्ष रूप से कोई भी दाग़ नहीं है और ये दिल्ली की जनता के समक्ष आम आदमी पार्टी का एक मज़बूत पक्ष है। इसी के बरक्स भारतीय जनता पार्टी ने देश की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी को पार्टी की सदस्यता दिला कर सीधे मुख्यमंत्री पद की दावेदारी सौंप दी, जिसका आरविन्द केजरीवाल ने मुकाबले के लिए स्वागत भी किया।
अब जब दोनो पार्टियों ने निर्णय कर ही लिया है तो फिर दिल्ली की लड़ाई अरविन्द केजरीवाल बनाम किरन बेदी की हो गयी है। दोनों एनजीओ से वास्ता रखने के कारण एक ही मैदान के खिलाड़ी है। दोनो अन्नाअभियान में साथ रहे। दोनो समराशिक हैं, और दोनों ही ईमानदार छवि के नौकरशाह रहे हैं, जिन्होने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ लड़ाई के आन्दोलन में अण्णा हज़ारे का साथ दिया और उनके विश्वसनीय रहे। इस तरह दिल्ली का चुनाव अण्णा अभियान के दो झंडाबरदारों के बीच सिमट गया है, क्योंकि ये मान लेना चाहिए कि मोदी वाली बीजेपी ने तो पहले ही केजरीवाल के सामने नतमस्तक कर दिया है, तभी भीष्म की पराजय के लिए शिखण्डी को उसके सामने ला कर खड़ा कर दिया है। अब युद्ध की प्रकृति किरण बनाम केजरी की है, जो दिल्ली रूपी कुरूक्षेत्र में सात तारीख़ को होने जा रहा है। इस युद्द में भीष्म की शक्ति का अंदाज़ा सब को है, अतः वो विपक्षियों के साथ असली लड़ाई में जीत कर भी जीता है और हार कर भी जीता ही हैं।