प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी-
कश्मीर में युवाओं के हाथ में पत्थर क्यों हैं ॽ
श्रीनगर के डाउनटाउन इलाके में जाइए और आम लोगों से बातें कीजिए,अधिकतर लोग आतंकियों के खिलाफ हैं,वे बार -बार एक ही सवाल कर रहे हैं कश्मीर में इतनी सेना –सीमा सुरक्षा बलों की टुकड़ियां चप्पे-चप्पे पर क्यों तैनात हैं ॽ हमने क्या अपराध किया है ॽवे यह भी कहते हैं अधिकांश जनता आतंकियों की विरोधी है,पृथकतावादियों के साथ नहीं है।सामान्य लोगों से बातें करते हुए आपको यही लगेगा कि कश्मीर के लोग सामान्य जिन्दगी जीना चाहते हैं।वे यह भी कहते हैं निहित स्वार्थी लोगों ने कश्मीर का मसला बनाकर रखा हुआ है,ज्योंही सामान्य स्थिति होने को आती है कोई छोटी सी घटना होती है और आम लोगों के घरों पर सेना-पुलिस के छापे पड़ने शुरू हो जाते हैं।
मैं जब डाउनटाउन की प्रसिद्ध हमदान मसजिद को देखने पहुँचा तो वहां पर एकदम भिन्न माहौल था, लोग वहां प्रार्थना करने आ-जा रहे थे। बहुत ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी।हमदान मसजिद इस शहर की सबसे बेहतरीन मसजिद है।इसका इतिहास भी है,उसे लेकर अनेक विवाद भी हैं।इस मसजिद में बैठे रहने वाले लोगों से जब बातें कीं तो पता चला कि वे विकास पर बातें करना चाहते हैं।उनका मानना है कश्मीर को अमन-चैन चाहिए।जो भी विवाद हो,वो बातचीत से हल हो,वे खून-खराबे के खिलाफ हैं।मसजिद के अहाते में केन्द्रीय सुरक्षाबल के कमांडो एके47 के साथ पहरा दे रहे थे.हमने इन जवानों से पूछा क्या मसजिद में कोई खतरा है ॽ वे बोले कोई खतरा नहीं है।मसजिद के पास ही एक छोटा सा घाट है जिस पर जाना इन दिनों प्रतिबन्धित है।वहां एक जगह दीवार पर सिन्दूर के पूजा के निशान बने हुए हैं,एक जमाने में उस स्थान पर लोग पूजा करने जाते थे।यह वह जगह है जहां कभी पुराने जमाने में हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन कराकर जनेऊ जलाए गए ,मैंने बहुत कोशिश की जनेऊ जलाने की बात के प्रमाण जुटा सकूँ लेकिन मैं प्रमाण नहीं जुटा पाया।लेकिन यह तो सच है कि बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने धर्म परिवर्तन करके एक जमाने में इस्लाम धर्म स्वीकार किया था,यह मध्यकाल में हुआ था।
मध्यकाल के धर्म परिवर्तन के सवालों और घटनाओं को आधुनिककाल में उठाकर साम्प्रदायिक घृणा फैलाने का काम संघ के संगठन करते रहे हैं।यह सच है आज भी कश्मीर में ऐसे मुसलमानों की संख्या बहुत बड़ी है जो पहले हिन्दू थे और बाद में धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बन गए,इन मुसलमानों के नाम का पहला नाम मुसलिम है और अंत में हिन्दू जाति लिखी मिलती है,जैसे ,मुश्ताक रैना।
हमदान मसजिद के ठीक सामने सफेद मसजिद है,जो सफेद संगमरमर के पत्थरों की बनी है।इन दोनों के बीच में झेलम वह रही है।दोनों ही मसजिदों का इतिहास और उनके साथ जुड़ी राजनीतिक कहानियां अलग अलग हैं। मैं दोनों मसजिदों में गया।हमदान मसजिद में तुलनात्मक तौर ज्यादा लोग आ जा रहे थे,सफेद मसजिद में सन्नाटा पसरा हुआ था।इस सन्नाटे का कारण मैं अभी तक समझ नहीं पाया। दोनों ऐतिहासिक मसजिद हैं लेकिन एक में आने-जाने वाले लोगों का प्रवाह बना हुआ है,दूसरे में इक्का-दुक्का लोग दिखे।यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से हमें स्थानीय मुसलिम समाज की कई परतें नजर आती हैं।हमदान मसजिद में आने वाले तुलनात्मक तौर परंपरागत,रूढ़िवादी मान्यताओं में विश्वास करने वाले लोग हैं वहीं सफेद मसजिद में आने वाले उदार-धर्मनिरपेक्ष मुसलमान हैं।यह संख्या उस मनोदशा में बदलाव का संकेत है जो कश्मीर में जमीनी स्तर पर दिख रही है।
कश्मीर में आतंकियों-पृथकतावादियों का व्यापक दवाब है कि मुसलिम युवा फंडामेंटलिज्म की ओर आएं लेकिन अधिकतर युवाओं में इस्लाम के रूढ़िगत रूपों,मूल्यों और संस्कारों को लेकर अरूचि साफ नजर आई। इस अरूचि को मुसलिम युवाओं के आधुनिक ड्रेससेंस,बालों की कटिंग आदि में सहज ही देख सकते हैं। मैं कईबार हमदान मसजिद गया,सफेद मसजिद भी गया।लेकिन वहां युवा नजर नहीं आए।वयस्क औरतें ज्यादा दिखाई दीं।सफेद मसजिद में तो सन्नाटा पसरा हुआ था।इससे एक बात का अंदाजा जरूर लगता है युवाओं में इस्लाम धर्म के प्रति रूझान कम हुआ है।शिक्षित मुसलिम युवाओं में उदार पूंजीवादी मूल्यों के प्रति आकर्षण बढा है। वे कश्मीर की आजादी के सवाल पर कम और अपनी बेकारी की समस्या,कैरियर की समस्याओं पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।
अधिकांश कश्मीरी युवाओं में मुख्यधारा के मीडिया के प्रति गहरी नफरत है,उनका मानना है कश्मीरी युवाओं को सुनियोजित ढ़ंग से आतंकी और पत्थरबाज के रूप में पेश किया जा रहा है।कुछ सौ पत्थरबाजों या पृथकतावाद समर्थकों को सभी कश्मीरी युवाओं के प्रतिनिधि या आवाज के रूप में पेश किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि मैं कश्मीर विश्वविद्यालय में अनेक छात्रों से मिला,डाउनटाउन में भी अनेक युवाओं से अचानक रूककर बातें कीं,सभी ने कहा कि पत्थर चलाने वालों में वे कभी शामिल नहीं रहे।सभी उम्र के युवा कश्मीर में चल रहे मौजूदा तनावपूर्ण माहौल के कारण शिक्षा संस्थानों,खासकर स्कूल-कॉलेजों में फैल रही अव्यवस्था और अकादमिक क्षति को लेकर सबसे ज्यादा चिन्तित मिले।
युवाओं का मानना है कश्मीर के मौजूदा हालात ने समूचे शिक्षातंत्र को तोड़ दिया है।ज्यों ही कोई घटना होती है तो इलाके में बीएसएफ,सीआरपीएफ और सेना की टुकड़ियां आ जाती हैं और वे तुरंत स्कूलों-कॉलेजों की इमारतों पर कब्जा कर लेती हैं।इससे लंबे समय तक पढ़ाई-लिखाई बंद हो जाती है। सन् 1990-91 में जिस तरह के हालात पैदा हुए उससे समूचा शिक्षातंत्र टूट गया ।
फिलहाल श्रीनगर में अर्द्ध सैन्यबलों ने 20 स्कूलों की इमारतों को कब्जे में लिया हुआ है।स्कूलों पर कब्जा करके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढ़ंग से बच्चों को आतंकित करने की कोशिश की जाती है।इसका बच्चों की मनोदशा पर बुरा असर पड़ रहा है।बच्चों में सैन्यबलों के प्रति घृणा बढ़ने का यह बहुत बड़ा कारण है। कायदे से सरकार को स्कूलों की इमारतों का इस तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। मुश्किल यह है कि सामान्य स्थिति बहाल होने के बाद भी लंबे समय तक स्कूल की इमारतों पर अर्द्ध सैन्यबलों का कब्जा बना रहता है,शहर में सामान्य हालात पैदा हो जाते हैं लेकिन स्कूल नहीं खुलते।इस क्रम में जहां एक ओर स्कूल का फर्नीचर आदि नष्ट हो जाता है वहीं दूसरी ओर छात्र पढाई में पिछड़ जाते हैं और पुलिस वाले उनको आतंकित करते रहते हैं। स्कूलों में सैन्य बलों की मौजूदगी से वहां काम करने वाले कर्मचारियों को भी अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
इस समय हम सबकी आंखों में कश्मीर के जिस युवा की इमेज है यह वह युवा है जिसे मुंबईया सिनेमा और न्यूज टीवी चैनलों ने बनाया है।इसका जमीनी हकीकत से कोई संबंध नहीं है।जेएनयू के 9फरवरी के प्रसंग के बाद टीवी चैनलों ने कश्मीरी युवाओं के बारे में जिस तरह की घृणित इमेज वर्षा की है और जिस तरह सोशल मीडिया के जरिए प्रचार अभियान चलाया गया उसने असली कश्मीरी युवावर्ग को हम सबकी चेतना से खदेड़कर बाहर कर दिया है। इस इमेज वर्षा ने जहां एक ओर कश्मीरी युवाओं के प्रति पूर्वाग्रह बनाए हैं वहीं उनको आतंकी-पृथकतावादी और भारत विरोधी बनाकर पेश किया है।
कश्मीर से आ रही इमेजों में कश्मीरी जनता और युवाओं का दुख-दर्द एकसिरे से गायब है।इसमें इस्लामिक उन्माद,भारत विरोधी उन्माद,सेना की कुर्बानी आदि का स्टीरियोटाइप अहर्निश प्रक्षेपित किया गया है,इस तरह की टीवी प्रस्तुतियां शुद्ध निर्मित यथार्थ का अंग हैं।कश्मीर की इमेजों में सैन्यबलों को भारत के रक्षक,भारत विरोधी ताकतों को कुचलने वाले के रूप में पेश किया गया है वहीं दूसरी ओर कश्मीर की जनता को आतंकी,देशविरोधी,राष्ट्रविरोधी करार दे दिया गया है। जो लोग प्रतिवाद कर रहे हैं उनको टीवी तुरंत आतंकी-समर्थक घोषित कर रहा है,टीवी वाले जानना नहीं चाहते कि आखिर कश्मीर में जनता किस मसले पर प्रतिवाद कर रही है।वे जनता के पास नहीं जा रहे,वे कश्मीर के मुहल्लों-गांवों और शहरों में नहीं जा रहे,वे सीधे फोटो लगा रहे हैं और स्टूडियो में बैठे बैठे जनता को आतंकियों का हमदर्द घोषित कर रहे हैं। सबसे त्रासद पहलू यह है कि कोई भी व्यक्ति यदि टीवी टॉक शो में कश्मीरी जनता की समस्यों की ओर ध्यान खींचने की कोशिश करे या फिर कश्मीर में विभिन्न तबके के द्वारा उठायी जा रही राजनीतिक मांगों में से किसी मांग का ज्योंही जिक्र करता है तुरंत उस पर हमले शुरू हो जाते हैं,यह वस्तुतः टीवी फासिज्म है।