हमारे एक संपादक होते थे। अब भी कहीं होंगे। एक बार उनके पास एक लेख पर तब के गृहमंत्री पी. चिदंबरम के पीए का फोन आ गया। पेज मैं देखता था तो लेख भी मैंने ही संपादित किया और छापा था। लिखने वाले अपने एक पत्रकार मित्र थे। चिदंबरम ने इस लेख पर संपादकजी को तलब कर लिया। संपादक जी ने बदले में मुझे केबिन में बुलवा भेजा। माजरा पता चलने पर मैंने उन्हें बधाई दे डाली कि चलिए, किसी बहाने तो हिंदी के अख़बार के संपादकीय पन्ने की सरकार ने सुध ले ली। इस बात पर वे भड़क गए और अपनी पत्रकारिता के स्वर्णिम दिनों को गिनवाने लगे। साल भर में पांचवीं बार स्वर्णिम दिनों के उनके तजुर्बे सुनने पड़े।
उनसे छोटे एक और संपादक थे। जब कभी पत्रकारिता पर बात होती, तो अपनी कुर्सी के पीछे दोनों हाथ फेंक कर, चश्मा माथे पर चढ़ा कर थोड़ा ब्लश करते हुए वे नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों को याद करने लगते जब उनकी टीम ने उदारीकरण के खिलाफ़ अपने अख़बार में कोई अभियान चलाया था। इन दोनों संपादकों की पत्रकारिता के स्वर्णिम दिन न्यूनतम बीस और अधिकतम तीस साल पुराने थे। करन जौहर का भी यही हाल है गोकि उनकी उम्र संपादकों वाली अभी नहीं हुई है।
उनकी फिल्मों को देखना अब लगातार ‘ऐ दिल है मुश्किल’ होता जा रहा है। जेपी आंदोलन के ज़माने के पत्रकारों की तरह वे भी अपनी पुरानी रचना के सिन्ड्रोम में शाश्वत फंस गए हैं। दोस्ती और प्रेम के बीच उनके जीवन में ऐसा कनफ्यूज़न हुआ पड़ा है कि उनकी हर अगली फिल्म इसी विषय को खोदती नज़र आती है। नोस्टेल्जिया का हाल ये है कि धर्मा प्रोडक्शंस का मोन्टाज भी ”कुछ-कुछ होता है” की धुन पर ही बजता है। एक फवाद खान के मसले पर जिस तरह करन जौहर ने काले कपड़े पहन कर स्यापा मचाया, वैसे ही अपने संपादकजी ने गृहमंत्री के सामने जाने कितने डिग्री पर अपनी रीढ़ को साधा कि अगले ही महीने वे राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य बन बैठे।
हिंदी के संपादक करन जौहर से अलग नहीं हैं, बल्कि एक मामले में ज्यादा पतित हैं। करन जौहर तो फिर भी पुराने फॉर्मूले की लकीर को जैसे-तैसे पीट रहा है, लेकिन संपादकजी लोग केवल नए लड़कों को आतंकित करने के लिए अपने स्वर्णिम आर्काइव को बचाए हुए हैं। इन लोगों में अब कुछ देने को बचा नहीं है। इनका सारा रस निचुड़ चुका है। चुसे हुए गन्ने पर केवल मक्खियां भिनभिनाती है।
(पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से साभार)