अखिलेश कुमार
अऱावली की गोद में बसे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक बार फिर चुनावी हलचल शुरु हो गया है नियमानुसार नए सत्र शुरू होने के आठ हफ्तों के अंदर ही चुनाव कराए जाने का प्रावधान है। इसलिए चुनाव 12 सितंबर से पहले होने की संभावना बताई जा रही है। हलांकि चुनाव से पहले ही कैंपस में छात्र संगठन ज्यादा सक्रिय दिख रहे हैं। ढ़ाबा से लेकर हॉस्टल में खाना खाते समय छात्र कैंपेन में व्यस्त हैं। इस बार जेएनयू छात्रसंघ सुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण है। दरअसल जो जेएनयू कभी अपनी अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक सरगर्मी के लिए जाना जाता था आज वह अपनी ही घरेलू राजनीति के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई है। पिछला छात्रसंघ चुनाव कैंपस के आंतरिक मुद्दे पर लड़ा गया था। हलांकि इस बार भी हॉस्टल, एमसीएम और यौन उत्पीड़न का मुद्दा छाए रहने की पूरी संभावना है। इसके अलावा और भी कई मुद्दे हैं जिस पर रस्म अदायएगी के लिए ही सवाल उठाए जाते है। मसलन लिंगदोह कमिटी की सिफारिशों को लेकर एक बार सभी लेफ्ट पार्टियां एक सुर में आवाज बुलंद कर रही हैं।
गौरतलब है कि 2005 में छात्रसंघ चुनाव के लिए जीएम लिंगदोह की अध्यक्षता में सरकार ने कमिटी गठित की थी जिसके सिफारिशों को पुरे देश में लागू किया गया था लेकिन जेएनयू छात्रसंघ ने लिंगदोह कमिटी के सिफारिशों को नहीं माना था।शुरु में छात्रों ने प्रदर्शन किया। भूख हड़ताल पर बैठे। अंत में 2011 में संगठनों ने लिंगदोह को मानकर चुनाव में कूदे। ध्यान रहे कि देश भर में बैन कैंपस में राजनीतिक रूप से सक्रिय डीएसयू ने लिंगदोह को पूरी तरह विरोध किया था। उसी समय लेफ्ट के सभी पार्टियों ने समूह स्वर में कहा था कि लिंगदोह के खिलाफ हमारी लड़ाई जारी रहेगी। लेकिन जब-जब चुनाव नजदीक आता है तब लेफ्ट ओरिएंटेड सभी पार्टियां एक सुर में लिंगदोह के खिलाफ त्योहार मनाने के जैसे बोलकर चुप हो जाते हैं। दरअसल गंभीर सवाल ये है कि इसी लिंगदोह कमिटी में जेएनयू की प्राध्यापिका जोया हसन और मोना दास भी थी लेकिन छात्रों ने उनके खिलाफ एक शब्द भी बोलना उचित नहीं समझा। फिर चुनाव के समय लिंगदोह कमिटी के इर्द-गिर्द माहौल बनाना वर्षगांठ मनाने के अलावा और कुछ नहीं है।
बहरहाल देश भर में 16 दिसबंर गैंगरेप के बाद बलात्कार रूपी सामाजिक विकलांगता के खिलाफ आंदोलन करने वाले छात्र संगठन अब खुद ही सेक्सूवल ह्रासमेंट के आरोपों में घिर चुके हैं। बता दें कि हाल ही में छत्रसंघ के अध्यक्ष अकबर चौधरी और संयुक्त सचिव सरफराज पर यौन शोषन मामला ने पूरे राजनीतिक गलियारे को स्तब्ध कर दिया है। हलांकि मामला जीएस कैश कमेटी में चल रहा है। सवाल है कि जिन लोगों ने लोग इंडिया गेट से लेकर जंतर-मंतर तक 16 दिसबंर गैंगरेप को राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन का नेतृत्व किया था आज वे खूद संगीन आरोपों में फंसे है। ये महज एक मुद्दा नहीं है बल्कि पूरी छात्र राजनीति पर सवालिया निशान है।
एक तरफ काफी लंबे अरसे के बाद कैंपस की राजनीति में एबीवीपी उम्मीदों के साथ चुनौती देने की कवायद में जुट गई है। दूसरी तरफ आइसा को मात देने के लिए अन्य लेफ्ट पार्टियों के छोटे-बड़े छात्र संगठन एकजूट होकर गोलबंदी करने में लगे हैं।
(लेखक पत्रकार हैं)