जयललिता की राजनीति का न तो मैं कोई जानकार रहा हूं, न उनका फैन और न ही विरोधी. एक पाठक की हैसियत से अखबार-टेलिविजन पर उनसे जुड़ी जो खबरें आती रहीं हैं, देखता-पढ़ता रहा हूं. मेरी जमात में ऐसे शायद लाखों लोग हों. लेकिन देख रहा हूं कि कल तक जो हिन्दी-पट्टी की राजनीति से एक कदम तक आगे नहीं बढ़े वो लगातार उनकी बीमारी-मौत को लेकर अपडेट किए जा रहे हैं. आप उन लिखे स्टेटस से गुजरेंगे तो लगेगा उनके मरने से कहीं पहले हमारे-आपके भीतर का काफी कुछ तेजी से मर रहा है. ये मौजूदा परिवेश का असर है या फिर हमारे भीतर की हताशा कि एक बेहद गंभीर बीमारी की चपेट में आयी और अब कहें कि गुजर चुकी शख्सियत( जो न्यूज चैनल आपको बता रहे हैं) को लेकर वो सबकुछ लिख रहे हैं जो हमारे जिंदा होने के सबूत नहीं हैं.
वो काले-धन पर नकेल कसे जाने के सदमे से गुजर गईं. मरने के बाद उनकी साड़ी-सैंडिल का क्या होगा..एक के बाद एक ऐसी टिप्पणियों की कल से भरमार है. आपके आराध्य ने किसी की गर्लफ्रेंड की कीमत लगा दी तो आप भी उसी रास्ते चल पड़े और आपने तो बल्कि फॉर्मूला ही बना लिया कि चाहे कोई भी परिस्थिति हो, वो सब लिखो-बोला जिससे कि हमारी किसी खास के प्रति प्रतिबद्धता और बाकी के प्रति हिकारत साबित होती रहे. लेकिन ठंडे दिमाग से सोचिए तो आपके जीवन का, भाषा का क्रम एकदम से उलट नहीं गया है. एक के प्रति नत होने के लिए बाकी के प्रति घृणा की हद तक चले जाना.. भक्तिकाल पढ़िए, कोई राम का अनन्य उपासक है, भक्त है तो कृष्ण के प्रति उतना ही सम्मान है. आपको जो ये भक्ति साबित करने के लिए बाकियों से हिकारत पैदा करने की ओवरडोज दिया जा रहा है, यकीन मानिए आपके जीवन से वो रस, वो अनुभूति, संवेदना की वो जमीन गायब हो जाएगी जिसके कारण आप-हम मनुष्य होने का दावा करते हैं.
किसी की मौत शोक का स्थायी भाव है. किसी के मरने पर आप अट्टहास करते हैं, खुश होते हैं, उपहास उड़ाते हैं तो समझिए कि आपके भीतर से जिंदा होने की शर्तें तेजी से खत्म हो रही है. मौत किसी से पूछकर नहीं आती है, दस्तक नहीं देती और कहती- मे आय कम इन सर/ मैम? वो बस आ जाती है. कुछ नहीं तो कम से कम इस संभावना की भाषा तो अलग होनी ही चाहिए.