IBN7 के रिपोर्टर को बेसिक समझ भी नहीं ?

ibn7-reporter-लगता है IBN7 जैसे चैनल साख के साथ-साथ रिपोर्टिंग की बेसिक समझ भी धो-पोछकर पी गए हैं. जेएनयू की घटना पर IBN7 की रिपोर्ट और इसके संवाददाता की पीटूसी देखकर गहरी हताशा से मन भर गया. पूरी रिपोर्ट में इस घटना को सुरक्षा के मामले से जोड़कर दिखाया गया. एंकर संदीप चौधरी ने भी अपने अतिनाटकीय अंदाज में सुरक्षा के सवाल को पूरे दमखम से उठाने की कोशिश की और इधर रिपोर्टर ने रही-सही कसर पूरी कर दी. अब जानिए कि उन्होंने क्या कहा-

उन्होंने कहा कि ये घटना जेएनयू की सुरक्षा और चेकिंग व्यवस्था पर सवाल खड़ी करती है. यहां पर सुरक्षा के बैरिकेट लगे होते हैं और सुरक्षाकर्मी भी तैनात होते हैं, ऐसे में ये कैसे संभव है कि एक छात्र क्लासरुम में इतने सारे हथियार( कट्टा,कुल्हाडी,चाकू आदि) लेकर घुस जाए और सुरक्षाकर्मी को पता न चले. अब आप ही सोचिए कि एक तरफ तो ये रिपोर्ट गला फाड़-फाड़कर बताती है कि ये छात्र और जिस छात्रा पर हमला किया, दोनों क्लासमेट थे और एक समय दोनों के बीच गहरी दोस्ती थी और दूसरी तरफ इसके रिपोर्टर इसकी चेकिंग की बात कर रहे हैं. अब आप ही बताइए कि ये संभव है कि जेएनयू या किसी भी विश्वविद्यालय में छात्र क्लासरुम में जाते हैं तो उसके पहले सुरक्षाकर्मी सबकी तलाशी लें और पता करें कि कौन क्या लेकर क्लासरुम में घुस रहा है ? फिर जिस रिपोर्ट में बैरिकेट और चेकिंग की बात की गई है वो मेनगेट पर होती है और बाकी एक-एक,दो-दो सुरक्षागार्ड जो कि मेनगेट पर बाहरी लोगों को बिना आइडी या अंदर रहनेवाले छात्रों के परिचितों से बिना सहमति के जाने नहीं देते और जहां-तहां फैले सुरक्षागार्ड छात्रों को जंगलों आदि में अंदर जाने से रोकते हैं. मैंने ये तो कभी नहीं देखा कि हर स्कूल के आगे सुरक्षाकर्मी तैनात हैं और वो चेकिंग कर रहे हैं. ऐसी कल्पना करना सिरे से पागलपन है. तो फिर रिपोर्टर को इतनी सी बेसिक बात क्यों समझ नहीं आ रही है कि ये सुरक्षा का मामला नहीं बल्कि जेएनयू कैंपस के भीतर खुलेपन,आपसी साझेदारी और व्यक्तित्व के विकास को लेकर जो दावे होते आए हैं, ये घटना उसमें सेंधमारी करती है न कि सुरक्षा व्यवस्था पर. ऐसे ही रिपोर्टर और चैनल मामले को रिड्यूस करते हैं और रिपोर्टिंग के नाम पर मुनिरका के सवाल को अमेरिका पर जाकर पटक आते हैं. अब इससे होता ये है कि पूरा मामला सुरक्षा व्यवस्था और उसके सवाल पर जाकर अटक जाता है और कार्रवाई के नाम पर कुछ और सुरक्षाबल पुलिसिया गश्त बढ़ा दी जाती है. मीडिया में बाइटबाजी शुरु हो जाती है जबकि इस तरह की घटना जेएनयू क्या किसी भी दूसरे शिक्षण संस्थान के संदर्भ में व्यापक चिंतन और सुलझे तरीके से समस्याओं की तह में जाने और उसे कम करने की मांग करता है.

आइबीएन7 और उसके रिपोर्टर को इस पर खबर करने के पहले इस परिसर की संस्कृति के बारे में बुनियादी समझ होनी चाहिए कि ये पूरे देश के उन गिने-चुने कैंपस में से है जहां रात जितनी गहरी होती है, माहौल उतना ही गुलजार और रौशन होता है. दर्जनों बार डीयू के हॉस्टल से रात के तीन बजे गंगा ढाबा पर परांठे खाने के लिए जाते वक्त मुझे कभी भी इस कैंपस में असुरक्षा बोध महसूस नहीं हुआ. सुरक्षा को लेकर रिपोर्टिंग तब जायज होती जबकि कोई बाहर का शख्स आकर कट्टा-कुल्हाडी मार जाता. यहां तो पूरा मामला क्लासमेट के बीच का है और ऐसे में सवाल ही बेतुका है कि चेकिंग क्यों नहीं हुई ? चैनल जरा बताएगा क्या कि ऐसी कौन सी व्यवस्था हो कि क्लास जाने के पहले सारे छात्रों को क्राइम पेट्रोल दस्तक के चश्मे से देखकर सबकी तलाशी ली जाए. है संभव ?

चैनलों के भीतर समझदारी और रिपोर्टिंग के नाम पर कैसी दालमखनी पकती है और हमारे न्यूज चैनल कितने भोथरे होते जा रहे हैं, ऐसे ही मौके पर दिख जाता है. मामला पूरी तरह इस कैंपस की तेजी से बदलती आवोहवा और परिवेश को लेकर है और जाकर अड़ा दिया सुरक्षा पर. उन बारीकियों,अन्तर्विरोधों पर एक लाइन बात नहीं कि आखिर ऐसे कौन से रेशे इस विश्वविद्यालय में पसर रहे हैं जो 16 दिसंबर की दिल्ली सामूहिक बलात्कार की घटना पर जंतर-मतर पर प्रतिरोध में सक्रिय होते हैं, खुद जेएनयू के भीतर शहर के हजारों लोंगों को अपने में समेटकर लाता है,वो प्रतिरोध का प्रतीक विश्वविद्यालय बनकर मीडिया में पहचान कायम करता है और छह महीने बाद उसी विश्वविद्यालय में इसके ठीक विपरीत रेशे नजर आते हैं जो उसी के आसपास खतरनाक घटना को अंजाम देता है.

ये तो एक घटना है जो हमें लड़के की आत्महत्या और लड़की के उपर जानलेवा हमले के रुप में दिखाई दे गया लेकिन ऐसे कई आंशिक मौत, सरोगेट मर्डर एटेम्प्ट भीतर पल रहे हों और जिसे हम और आप ब्रांड जेएनयू के आभामंडल के कारण नहीं देख पा रहे हैं. आज से कोई कुछेक साल पहले संत जेवियर्स कॉलेज,रांची में दिनदहाड़े कैंपस में एक छात्र ने चाकू मारकर हत्या ही कर दी थी और उस वक्त भी मीडिया ने सुरक्षा का मामला ऐसा बनाया कि ब्रांड जेवियर के भीतर दूसरे संदर्भों में इस घटना के देखे जाने की व्याख्या नहीं हो सकी.

जेएनयू एक ऐसा विश्वविद्यालय रहा है जो किसी लड़की के मना करने, किसी लड़के के संबंध टूटने पर नहीं, प्रतिरोध की लगातार आवाज उठाते रहने के बावजूद कहीं कुछ न बदलने की हताशा में लोग आत्महत्या कर लेते थे( हालांकि ये भी हाइप ही है). क्या ऐसी घटनाओं की व्याख्या इस रुप में नहीं होनी चाहिए कि जेएनयू अपने आसपास के परिवेश के दवाब से छात्रों को जूझने की ट्रेनिंग देने में विफल हो रहा है, वो छात्रों के भीतर उन व्यापक संदर्भों का विस्तार देने में हार जा रहा है जिसके कारण उसकी ब्रांडिंग होती रही है ?

क्या इसकी एक व्याख्या भी हो सकती है कि यहां अगर लैंग्वेज कोर्स को छोड़ दें तो बाकी के कोर्स के लिए लोग सीधे एमए.एमफिल् या पीएचडी के लिए आते हैं और अधिकांश छोटे शहरों,कस्बों से आते हैं..जिनमे से कई पहले इस तरह लड़के-लड़की आपस में खुलकर बात तक नहीं किए होते हैं और यहां आकर उनके भीतर लगातार एक कुंठा का विस्तार होता है. वो संबंध में न आ पाने की स्थिति में,दोस्ती न हो पाने की स्थिति में हताशा होते हैं और धीरे-धीरे उनका व्यवहार देश के उन्हीं विश्वविद्यालयों के छात्रों की तरह होता चला जाता है, जिससे लगातार अलग होने और बेहतर होने के दावे जेएनयू करता आया है. खुलेपन के लिए विश्वविद्यालय ने कई प्रयोग किए है, ज्यादातर सराहनीय हैं लेकिन इनके बीच जो हताशा, जो कुंठा जो सेंसलेस एप्रोच पनप रहा है, उसे लेकर विश्वविद्यालय के क्या अध्ययन हैं..क्या मीडिया और चैनलों में इस सब पर बात नहीं होनी चाहिए ? माफ कीजिएगा, देश और दुनिया के मुद्दे पर मुठ्ठी तानकर खड़े होनेवाले यहां के छात्रों को इस पर गहराई से सोचने की जरुरत है कि क्रांति के जयघोष के बीच उनके बीच कुछ लोग क्यों इस परिवेश से इतने अलग-थलग पड़ जा रहे हैं कि जहर पीने और हत्या करने के इरादे के अलावे कुछ कहीं सूझता नहीं. तब जेएनयू के भीतर की सामूहिकता और उसका बोध कहां चला जाता है ? हर तरह के माइंड सेट के लोगों के बीच भी साझेदारी करने और भरोसा करने का यकीन क्यों तेजी से खत्म होता चला जा रहा है? जेएनयू के लिए चिंता एक छात्र के आत्महत्या करने और एक छात्रा की जान लेने की कोशिश भर तक नहीं है बल्कि उससे कहीं ज्यादा इसके भीतर इस सामूहिकता-बोध के खत्म होने और भीड़ में भी अकेले होने के एकाकीपन का है और संभव है कि ऐसे एक नहीं कई लोग हों.

रांझणा फिल्म जब आयी थी और जिस तरह से जेएनयू को जिस तरह से पेश किया गया, हममे से कई लोगों को उससे घोर आपत्ति हुई..इस पर लंबी चर्चाएं चली(वर्चुअल स्पेस पर) लेकिन करीब दो महीने बाद ही घटी ये घटना उस फिल्म को जस्टिफाय करती नजर आती है बल्कि हमारे कुछ फिल्मकारों, क्राइम पेट्रोल दस्तक, वारदात जैसे कार्यक्रमों के प्रोड्यूसरों के दिमाग तेजी से दौड़ने शुरु हो गए होंगे कि खासा पॉपुलर कच्ची सामग्री हाथ लगी. लेकिन ये वही नाजुक मौके हैं जब मीडिया में किसी भी दूसरी आपराधिक घटना को टीवी सीरियल की शक्ल में पेश किए जाने से अलग ठहरकर, संजीदा तरीके से उसके भीतर की खदबहादट को पकड़ने की जरुरत है. इस घटना को सुरक्षा में लापरवाही के बजाय लिटमस पेपर के रुप में ली जाने की सख्त जरुरत है.

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