अमितेश कुमार ओझा
किशोर कलम से….
दहेज के दानव की समस्या भी कुछ एेसी ही है। देश की आजादी के बाद ही सरकार ने दहेज लेने – देने को अपराध घोषित कर दिया था। लेकिन क्या इससे दहेज की समस्या जरा भी कम हुई। स्थिति बिल्कुल विपरीत है। दहेज की समस्या कम होने के बजाय लगातार बढ़ती जा रही है। सामान्य स्थिति वाले वर पक्ष का दहेज में लाखों की मांग आम बात है। उत्तर भारत के गांवों में किसी युवक के सरकारी नौकरी से जुड़ते ही उसके परिवार वाले लाखों का दहेज और कम से कम एक चारपहिया वाहन की उम्मीद करने लगते हैं। उनकी उम्मीद बेकार भी नहीं जाती। क्योंकि देने वाले लाइन लगाए खड़े रहते हैं। वहीं शादियों पर होने वाला दिखावा और फिजूलखर्ची भी लगातार बढ़ रही है। एक शादी में जितनी राशि दहेज पर खर्च होती है, लगभग उतनी ही फिजूलखर्ची पर भी। इस तरह एक सामान्य शादी में लाखों का खर्च आम बात हो गई है। एेसे में उन अभिभावकों की स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है जिनके एक से अधिक बेटियां है। क्या बेटियों को बोझ समझने के पीछे यह एक बड़ा कारण नहीं है।
सवाल उठता है कि एेसी समस्याओं के रहते हुए हम समानता – भ्रष्टाचार पर रोक औऱ खुशहाली की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। यदि दहेज औऱ फिजूलखर्ची पर लाखों का खर्च आएगा तो आखिर कोई बेटी के जन्म पर कैसे खुशी मना सकता है। जबकि उसे पता है कि अब तत्काल उसे पाई – पाई जुटाने में लग जाना चाहिए, क्योंकि कुछ साल उसे बाद जन्मी बेटी का ब्याह करना है। यह भी विडंबना है कि देश व समाज में जिन जातियों को पिछड़ा कहा – समझा जाता है, उनमें दहेज का चलन कम या ना के बराबर है। वहीं प्रगतिशीलता व देशभक्ति का ढिंढोरा पीटने औऱ खुद को सामाजिक बताने वाला वर्ग दहेज के नाम पर कहीं चोरी – छिपे तो कहीं खुलेआम लाखों की रकम डकार जाता है। देश की खुशहाली के लिए दहेज के दानव के खात्मे की पक्की व्यवस्था सुनिश्चित होनी चाहिए। तभी हम बेटियों को बराबरी का हक दिला पाएंगे।
(लेखक बी.काम प्रथम वर्ष के छात्र हैं।)