भाषा को लेकर आईबीएन-7 के आशुतोष की कई बातें समझ के परे है लेकिन एक बात शायद उनकी ठीक ही है कि हिंदी भाषा के नाम पर स्यापा क्यों किया जाता है? बात ठीक इसलिए लगती है कि पिछले कुछेक महीने में हिंदी भाषा के नाम पर जो भी सेमिनार हुए हैं उसमें हिंदी भाषा का कैसे विकास किया जाए पर विमर्श होने की बजाए स्यापा और अंग्रेजी से तुलना ज्यादा होती रही है और इस तुलनात्मक अध्ययन में मूल मुद्दा गौण रहा.
स्वर्गीय आलोक तोमर की याद में आयोजित संगोष्ठी में भी कल ऐसा ही कुछ हुआ. गांधी शांति प्रतिष्ठान में कल उनके पुण्यतिथि के मौके पर उन्हें याद करने के अलावा ‘मीडिया की भाषा’ पर बातचीत भी हुई. बातचीत क्या हुई, दरअसल उन्हीं चीजों का दुहराव हुआ जो पिछले कई सेमिनारों में पहले भी हो चुका है. कह सकते हैं कि बातचीत का दायरा ठहर सा गया है. हिंदी और अंग्रेजी का द्वन्द जारी है और बिना अंग्रेजी के हिंदी भाषा पर विमर्श संभव नहीं.
बहरहाल वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने सूत्रधार की भूमिका निभाते हुए आलोक तोमर के बारे में कहा कि उनकी भाषा कभी हिंगलिश नहीं रही. उन्होंने कहा कि भाषा अंदाज और अभ्यास से सीखा जाता है. फिर शिकायती लहजे में कहा कि अंग्रेजी वाले अंग्रेजी का शब्दकोष रखते हैं मगर हिंदी वाले हिंदी का शब्दकोष नहीं खरीदते. यही वजह है कि हिंदी के कई शब्द जो कलतक आसान थे , आज नयी पीढ़ी के लिए कठिन हो गए.
बहरहाल बहस की शुरुआत इंडिया न्यूज़ के एडिटर-इन-चीफ दीपक चौरसिया के वक्तव्य से हुई. दीपक ने कहा कि भाषा के मामले में आलोक तोमर और प्रभाष जोशी मेरे आदर्श हैं. उन्होंने कहा कि जितनी बड़ी क्षमता हिंदी के अंदर है उतनी अंग्रेजी में नहीं. मुझे फक्र है कि मैं हिंदी का पत्रकार हूँ. हिंदी – अंग्रेजी की बहस की बजाए हिंदी की रचनात्मकता और उसके विकास पर बातचीत होनी चाहिए. हिंदी और अंग्रेजी भाषा की पत्रकारिता और पत्रकारों पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि अंग्रेजी के पत्रकारों का बड़ा – बड़ा प्रोफाइल छपता है. लेकिन हिंदी के पत्रकारों का नहीं. अंग्रेजी के पत्रकार एक – दूसरे को बढ़ाते हैं लेकिन हिंदी के पत्रकार एक – दूसरे को गिराते हैं. उन्होंने कहा कि आलोक तोमर जैसी महान शख्सियत की तुलना बरखा, राजदीप से या किसी से करना ठीक नहीं. दरअसल हिंदी वाले अंग्रेजी के हैंग ओवर से नहीं निकल पाए हैं.
न्यूज़ नेशन के सीईओ शैलेश ने कहा कि आज टेलीविजन की रिपोर्ट में विशेषणों का बहुत ज्यादा इस्तेमाल होता. सीधे – सीधे रिपोर्ट क्यों नहीं होती. हम विशेषण का प्रयोग करके कहीं उसे पूरे समाज पर थोप तो नहीं रहे और अपराधियों का हौसला तो नहीं बढ़ा रहे . उदाहरण – दिल्ली हुई शर्मसार.वहीं वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल ने कहा कि हरेक इंडस्ट्री की अपनी भाषा होती है. टेलीविजन इंडस्ट्री की जहाँ तक बात है तो उसने अपनी भाषा खो दी है. शायद ये मुनाफा कमाने की प्रवृति का असर है. इसके अलावा मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों में भाषा को लेकर प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं.
समारोह में हुई बातचीत को लेकर फेसबुक पर आयी कुछ टिप्पणियाँ :
Sanjay Tiwari : आलोक तोमर को याद करते हुए दीपक चौरसिया बो गये हैं कि हिन्दी के पत्रकार एक दूसरे की टांग खींचते हैं, जबकि अंग्रेजीवाले साथियों को कांधे पर उठाते हैं.
Sanjay Tiwari : यादों के आलोक बाहर निकालकर रख दिये गये. खाली मंच और पंचों के प्रपंच के बीच वह धाकड़ आदमी भी आदमकद शक्ल में पूरे समय मौजूद रहा जिसकी याद के नाम पर भाषा की फरियाद की जा रही थी. दूसरी पुण्यतिथि पूरी हुई.
Abhishek Srivastava : आलोक तोमर की याद में हुए कार्यक्रम में आज Qamar Waheed Naqvi ने जब मीडिया की भाषा पर बोलते हुए एक हिंग्लिश वाक्य का उदाहरण दिया, ”मैं मर्डर पर पॉलिटिक्स नहीं करता”, तो मुझे अचानक एक अवांतर संदर्भ में हंसी आ गई। पिछले दो साल से दरअसल आलोक जी की बरसी पर जो कुछ हो रहा है, वह ”मौत पर पॉलिटिक्स” नहीं तो और क्या है? आलोक जी क्या सिर्फ सुंदर भाषा का पर्याय हैं? उनके निजी-सार्वजनिक जीवन के वे तमाम श्वेत-श्याम प्रसंग जो किसी भी पत्रकार के लिए आदर्श या अनादर्श कहे जा सकते हैं, क्या उनसे नए लोगों को परिचित करवाना/चेताना उनके साथियों की जिम्मेदारी नहीं? किसी को भी भगवान बनाने की बाध्यता आखिर कहां से आती है?
इसका आंशिक जवाब Rahul Dev ने अंत में दिया, जब उन्होंने आलोक जी के नाम पर पत्रकारिता पुरस्कार और छात्रवृत्ति की घोषणा की। जब एक कार्यक्रम के वित्तपोषक का नाम दीपक चौरसिया हो सकता है, तो दूसरे का नाम छुपाने का क्या मतलब? हो सकता है आलोक जी के वे करीबी सज्जन अपना नाम उजागर न करना चाहते हों, तो फिर दीपक चौरसिया का नाम लेकर ही आप भाषा या पत्रकारिता के मामले में कौन सा आदर्श गढ़ दे रहे हैं? कल को किसी आलोक तोमर के नाम पर वजीफा कोई सुधीर चौधरी दे बैठेगा, तब आप क्या मुंह लेकर लोगों के सामने जाएंगे?
मुझे याद है कि आलोक जी ने गिरफ्तारी से बचाने के लिए पुलिस का छापा पड़ने से हफ्ते भर पहले मुझे सीनियर इंडिया से निकाल दिया था। वे मधुसूदन आनंद नहीं थे जो कहते कि भाई, मैं भी कॉन्ट्रैक्ट से बंधा हुआ हूं, इसलिए तुम्हें नहीं बचा सकता (नीरेंद्र नागर का चेहरा बरसों बाद देखकर यह बात याद आ गई, सो ठीक ही है)। Kripa Shankar जी ठीक कह रहे थे, कि आलोक जी के जाने से अंतिम छतरी चली गई। मुझे नहीं लगता कि आलोक जी जहां कहीं होंगे, वहां से कृपाजी की सफेद खिचड़ी दाढ़ी देखकर, कुम्हलाया चेहरा देखकर खुश हो रहे होंगे। गरिया ही रहे होंगे कि सालों, काट लो मेरे नाम पर जितना काट सकते हो।
बहरहाल, गुस्सा आ रहा है और सोच रहा हूं कि आज से दस साल बाद यह कार्यक्रम भी उदयन शर्मा परस्कार जैसे हितग्राहियों के किसी रैकेट में तब्दील हो जाएगा और मैं वहां कतई नहीं जाऊंगा। ज़ाहिर है, मेरे जाने या न जाने से किसी भी रैकेट पर कोई फर्क नहीं पड़ता। देते रहिए ”सरोकार वाले पत्रकार” को गुप्त स्रोत के धन से पुरस्कार, सिखाते रहिए भाषा का शऊर और बनाते रहिए आलोकों को भगवान। सब ठाठ धरा रह जाएगा… अपनी बला से!!!
Mukesh Kumar : alok tomar ji ki yaad me aaj media aur bhasha par jamkar charch hui..kuchh log vilap me lage hue the to kuchh ne alok ji ki ektarfa tasveer kheenchi….alok ji keval bhasha ke hi khiladi hote to unhe koi nahi ppchhta….unke paas samjh, sarokar aur sahas tha isliye ve patrakarita aur bhasha dono ki zameen todne me safal rahe…Aaj bhi agar bhasha ko upar uthana hai to content ko upar uthana hoga kyonki ghatiya content ke saath bhash bhi ghatiya hi rachi jayegi….achchha evam gambheer content ayega to bhasha ke jankaro ko mahatva aur avasar dono milenge……
इसमें कोई दो-राय नहीं कि दीपक चौरसिया की पहचान एक बिकाऊ और बाजारू पत्रकार के रूप में स्थापित हो चुकी है! पैसा लेकर ये शख्स किसी की भी ज़बान बोलने लगता है ! मगर जहां तक हिन्दी का नमक अदा करने की बात है , दीपक आशुतोष जैसों से लाख गुना बेहतर है ! यहाँ दीपक की वफादारी औरों पर भारी पड़ती है ! सबसे शर्मनाक स्थिति तो आशुतोष की है , जो खाते हिन्दी का हैं और वाह-वाही के साथ गुलामी अंगरेजी की करते हैं !