हिंदी पत्रकारिता में जिस श्रद्धा और आदर से अपने नायकों को याद किया जाता है,अंग्रेजी पत्रकारिता में देखने को नहीं मिलता
राहुल देव,वरिष्ठ पत्रकार
आज स्वर्गीय सुरेन्द्र प्रताप सिंह की स्मृति में मीडिया खबर और उसके अनथक, जबर्दस्त संचालक पुष्कर पुष्प की नौवी परिचर्चा में इस बात को रेखांकित किया कि जो कई अन्तर हैं हिन्दी पत्रकारिता और अंग्रेजी पत्रकारिता में, और दोनों समाजों में भी, उनमें एक पर आज ही ध्यान गया और वह यह है कि हिन्दी में अपने बड़े संपादकों, पत्रकारों को जिस हार्दिकता से, श्रद्धा से, आदर से याद किया जाता है ऐसे कार्यक्रमों के जरिए वह अंग्रेजी पत्रकारिता में देखने को नहीं मिलता।
ऐसा नहीं कि अंग्रेजी में बहुत बड़े, महान पत्रकार-संपादक नहीं हुए। खूब हुए हैं। लेकिन हिन्दी समाज और पत्रकारिता से जुड़ी संस्थाएं और पत्रकार जिस प्यार, आस्था और उत्साह के साथ प्रभाष जोशी, राजेन्द्र माथुर, एस पी सिंह, राहुल बारपुते, कर्पूर चंद कुलिश आदि को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर जितने कार्यक्रमों के माध्यम से याद करते हैं वह अंग्रेजी के संपादकों को शायद नसीब नहीं होते।
इसका कारण दोनों समाजों की प्रकृति में अन्तर के साथ साथ दोनों भाषाओं की पत्रकारिता के चरित्र के अन्तर में भी है। हिन्दी समाज, और हर भारतीय भाषा का समाज, अंग्रेजी समाज की तुलना में ज्यादा भावुक, व्यक्तिसापेक्ष, और अपने नायकों से गहरे लगाव वाला समाज है। इसको यूं भी कह सकते है कि अंग्रेजी समाज भाषा-भाषी समाजों की तुलना में ज्यादा तर्कशीलता, तटस्थता और भावना की बजाए बुद्धि के साथ चीजों और व्यक्तियों को देखता और उनसे जुड़ता है।
भाषा-भाषी समाज इसके विपरीत पश्चिमी व्यावसायिकता यानी प्रोफेशनलिज़्म के दोटूकपन और कामकाजी संबंधों पर नहीं निजीपन, घरेलूपन और भावनात्मक संबंधों पर चलता है। इस अन्तर को हम भाषाई अखबारों, संस्थानों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की भीतरी कार्य संस्कृति और आपसी संबंधों में देख सकते हैं। इस अन्तर से कार्यकुशलता पर क्या प्रभाव पड़ता है वह एक अलग प्रश्न है लेकिन एक दूसरे से और,अपने नायकों से जुड़ाव की प्रकृति, उनको उनके जाने के बाद याद करने के तरीकों में प्रतिबिम्बित होती है।