दीवाली के आसपास घरौंदे बनाने का चलन था. हमें इजाज़त नहीं थी. हम तरसते थे कि एक छोटा सा घरौंदा क्यों नहीं बना सकते? मेरी बड़ी बहने भी नहीं बनाती थीं और मुझे भी नहीं बनाने देती थीं. मेरी सहेलियाँ अपने घर की छत पर या नीचे सुंदर सुंदर घरौंदे बनाती थी. मैं उसमें अपने अरमान पूरे कर लेती. घरौंदे पर मिट्टी लगा कर या उसे सज़ा कर. बड़ी हसरत से देखा करती. जैसे मैं बहुत बौनी हो गई हूँ और उस घर में प्रवेश कर गई हूँ. मेरा क़द छोटा और छोटा…घर में घुसते हुए हम वही तो नहीं रहते जो बाहर होते हैं. घर का अपना आकार होता है जिसमें हमें एडजस्ट होकर ही घुसना पड़ता है. सहेलियों के घरौंदे के बाहर उन्हें निहारते हुए अंदर से पूरा घर घूम लेती. मेरा बड़ा मन होता कि अपने हाथों बनाऊँ उसे. हर दीवाली पर ज़िद करती और माँ मना कर देती. थोड़ी बड़ी हुई तो मैने कारण जानना चाहा.
कारण कोई गोपन कथा थी. मेरे घर में ही दीवाली से पहले कोई अशुभ घटना घटी थी, घरौंदे बनाए जा रहे थे कि किसी का असली घरौंदा बनने से पहले टूट गया. विस्तार से बहुत बाद में पता चला. बचपन में बस इतनी सी वजह बताई गई कि मनाही है घरौंदे बनाने की.
मनाही हो तो ललक बढ़ती जाती है. सहेलियों के संग ललक पूरी करती.
आज इस तस्वीर को देखा तो बचपन की तरस याद आई. आज लड़कियाँ पता नहीं घरौंदे बनाती हैं या नहीं . इसके पीछे कोई मिथ जरुर होगा. घरौंदा बनाने की प्रथा कब और कैसे शुरु हुई ?
घरौंदे ही तो बनाते हैं हम, घर के भीतर.
(वरिष्ठ पत्रकार गीताश्री के एफबी से साभार)