दिलीप मंडल
संपादक लोग सोशल मीडिया से डरते क्यों हैं?
दिल्ली से छपने वाला हिंदी मीडिया, जिसे न जाने क्यों राष्ट्रीय मीडिया कहते हैं, में मैं शायद अकेला (एकाध और भी होंगे) संपादक रहा, जो सोशल मीडिया पर खुलकर सक्रिय़ रहा, जिसके खुले प्रोफाइल पर जिसने जो चाहा कमेंट किया. फ्रैंडलिस्ट में होने की भी जरूरत कभी नहीं. लोगों ने मेरा पुर्जा-पुर्जा खोल दिया. मेरे नाम का गूगल कीजिए. सैकडो़, हजारों पन्ने मेरी आलोचना, निंदा के मिल जाएंगे. भरा पड़ा है कि दिलीप मंडल संपादक बनेंगे, तो मैं उनकी पत्रिका नहीं पढूंगा और ऐसी ही चीजों से.
इन आलोचनाओं से मुझे कौन सी दिक्कत हुई? मैं तो लगातार उनसे समृद्ध हुआ और पत्रिका भी समृद्ध हुई. दर्जनों विचार और आइडिया मैंने फेसबुक से लिए और पत्रिका में उन पर काम कराकर छापा. मुझे Facebook से सुभाष कुशवाहा जैसे कई लेखकों से परिचय हुआ, जिन्हें मैंने छापा. यहां मुझे पता चलता था कि कहां क्या हो रहा है और कौन क्या लिख रहा है. राकेश कायस्थ जैसे शानदार व्यंग्य लेखक का लेखन देखकर मैंने उन्हें अपने यहां लिखने को कहा.
मेरी टीम में हर किसी के लिए जरूरी था कि वह फेसबुक और सोशल मीडिया में रहे और सक्रिय रहे. अपनी खबर प्रोमोट करे. वहां से सूचनाएं ले.
डरते वे हैं,
जिनके पास डरने लायक कोई चीज हो,
या तर्क की क्षमता न हो,
या ज्ञान पर भरोसा न हो.
या न जानने पर उसे स्वीकार करने का दम न हो.
आखिरी बात सबसे महत्वपूर्ण है.
@fb
दिलीप साहब…राष्ट्रीय मीडिया के संपादकों का सोशल मीडिया से डरना लाजिमी है…पहले तो उनकी दादागीरी थी…दादागीरी आज भी है…लेकिन सोशल मीडिया उनके सच और झूठ को बिना पैसे खर्च किए बेनकाब कर देता है…ताजा उदाहरण….”द टाइम्स ऑफ इंडिया” और “डीएनए” में राज्यसभी टीवी को लेकर छपी खबर का है…जिसमें बीते 4 साल में हुए करीब 147 करोड़ रुपए के खर्च को 1700 करोड़ रुपए बना दिया गया…टीवी के किसी कंटेंट पर चर्चा किए बगैर ये बता दिया गया कि…पैसा पानी की तरह बहाया गया…मीडिया वालों का मीडिया के बारे में…ऐसी सतही और छिछोरी खबरें छापने वाले संपादकों की प्रतिभा को देखकर रोना आता है…वो अपने काबिल पत्रकार से ये भी पूछने की जहमत नहीं उठाते कि…भाई 1700 करोड़ की बात कर रहे हो…तो कोई सबूत है या नहीं…हवा में किसी के बारे में कुछ भी छापना…लगता है आजकल का चलन बन गया है…ऐसे में कल्पना कीजिए…अगर सोशल मीडिया नहीं होता…तो आप अपनी बात तक नहीं कह सकते थे…जाहिर है…सोशल मीडिया तथाकथित राष्ट्रीय चरित्र वाले मीडिया पर अंकुश लगाने का ही काम कर रहा है…लेकिन साथ ही ये भी सही है कि…जिस तरह की अनियंत्रित सोशल मीडिया पर कई बार विषवमन देखने को मिलता है…वो उसकी ताकत को कमजोर भी करता है…।।।