-एन.के.सिंह
दिग्विजय सिंह मीडिया से नाराज हैं. उनका मानना है कि गलती उनकी शैली की नहीं बल्कि टी आर पी की होड़ में “बौराए” मीडिया की है. एक दिन पहले तो इतने नाराज थे कि मीडिया के खिलाफ मान-हानि का मुकदमा करने की धमकी दे डाली थी. विश्व के सभी भाषाओँ में किसी भी शब्द के मायने सन्दर्भ-सापेक्ष, स्थिति- सापेक्ष, काल-सापेक्ष और कई बार दिक्-सापेक्ष होते है. ब्रिटेन और अमरीका में कुछ सौ शब्दों के मायने हर छः महीने बाद बदल जाते हैं. कभी डिक्शनरी में जा कर देखे तो शब्दों के मायने को लेकर तीन वर्ग होते हैं— औपचारिक (फॉर्मल) जिसे लेखन में या औपचारिक अवसरों पर इस्तेमाल किया जाता है ; अनौपचारिक (इनफॉर्मल) जिसे बोलने में और खासकर अनौपचारिक अवसरों पर इस्तेमाल किया जाता है; प्राचीन (आरकेइक) जो किसी ज़माने में प्रयोग होता था पर अब केवल बुज़ुर्ग हीं इस्तेमाल करते हैं (और दिग्विजत सिंह अभी अपने को इतना बुजुर्ग तो नहीं हीं मानेंगे), स्लैंग, जिस बच्चे प्रयोग करते हैं या जिसे गैर-जिम्मेदाराना ढंग से प्रयोग में लाया जाता है और कूक्नी (देशज). उदाहरण के तौर पर कत्थक डांसर को नचनिया नहीं कहा जाता, ना हीं मनोरंजन की दुनिया में लगे लोगों को भांड या जोकर. “कटीली नचनिया” डकैतों की दुनिया में हीं चलता है. यह इस्तेमाल स्थिति- और सन्दर्भ-सापेक्षता का है. डकैत से हम “सुन्दर नृत्यांगना” कहने की अपेक्षा नहीं कर सकते. अंग्रेजी में कॉलेज के लड़के या सड़क के युवा लड़की को “चिक” या “ब्रॉड” कहते हैं लेकिन औपचारिक सन्दर्भ में इन दोनों के मायने अलग-अलग हैं.
दिग्विजय सिंह भी कॉलेज में पढ़े हैं. शायद विदेश में भी. “माल” शब्द का प्रयोग या तो व्यापारी करता है (मालगोदाम सभी जानते है) या बेलगाम लड़के किसी अन्य सन्दर्भ में. यही बात अगर शाम को आँखे नचाकर कोई अय्यास किसी महिला के बारे में कहे तो उसका मतलब वह नहीं होगा जो एक व्यापारी रेलवे यार्ड में वैगन न आने पर या दूकान में अपने ग्राहकों से कहेगा. दिग्विजत सिंह पढ़े –लिखे राजनीतिक व्यक्ति हैं. उनकी हिंदी और चिदंबरम की हिंदी में अंतर है. और शब्दों , वे हिंदी के हों या अंग्रेजी के, को लेकर उनके ज्ञान के बारे में कभी मीडिया को कोई भ्रम नहीं रहा है. बाटला हाउस एनकाउंटर को लेकर उनकी पूरी तक़रीर कभी भी टी आर पी का सबब नहीं बनी. उनकी भाषा को लेकर शालीनता इंतनी गहरी है कि वह बिन लादेन ऐसे खूंख्वार आतंकी को भी “ओसामा जी” हीं कहते हैं. और विपक्ष की नादानी और असंवेदनशीलता देखिये कि इस पर भी विवाद खड़ा कर देता है.
तर्क-शास्त्र में एक दोष का वर्णन है. “तर्क—वाक्य का बगैर कहे परोक्ष विस्तार”. जब “दिग्गी” (उनका यह उपनाम अब औपचारिक हो चुका है) संघ को बम बनाने वाला बताते हैं हालाँकि उन्हें व्यक्ति और संगठन में अंतर मालूम है, तो तर्क-वाक्य के विस्तार से इसका भाव यह होता है कि गुरु जी गोलवलकर से लेकर मोहन भागवत तक, वाजपेयी से लेकर आडवानी तक सभी इस काम में जुटे है सीधे या परोक्ष रूप से.यह कुछ उसी तरह है जिस तरह मिड-डे मील योजना का जहरीला खाना खाने से बिहार में हुई २३ बच्चो की मौत के एक हफ्ते बाद सरकार के मंत्री कहते हैं “विपक्ष की साजिश है”. भाव यह था कि “प्रिंसिपल का पति जो यादव है (पत्नी के नाम से जाना जा सकता है) और जो लालू की आर जे डी का कार्यकर्ता है (शिक्षा मंत्री ने पहले दिन हीं प्रेस कांफ्रेंस में ऐलान किया) लिहाज़ा विपक्ष माने या तो लालू या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सुशील मोदी तक इसमें शामिल हैं. और विस्तार किया जाये (जो समाज में अतार्किकता और जातिगत वैमनस्य के कारण संभव है) तो कुछ लोग यह भी मान सकते है कि इसमें आडवानी से लेकर मोदी तक सबका हाथ हो. क्या देश में राजनीतिक संवाद का स्तर इनता गिर जायेगा? शब्दों पर नियंत्रण राजनीतिक वर्ग को नहीं है, चालाकी भरा बयान वह देता है और जब मीडिया इसे एक्स्पोज करता है तो कहा जाता है कि टी आर पी के लिए बौराया मीडिया तथ्यों को तोड़-मरोड़ रहा है. मतलब अगर आप वोट के लिए “ओसामा जी” कहें या आतंकी जमात-उ-दावा के सरगना और भारत में वांछित को “हाफिज सईद जी” कहें तो ठीक या अदालत के फैसले के बावजूद आप बाटला हाउस एनकाउंटर की न्यायिक जांच की रट लगाये रखे ताकि अगले आम चुनाव तक मुद्दा गरम रहे तो ठीक लेकिन टीवी के ज़माने की मीडिया अगर आपकी बात यथावत रखे तो गलत. शायद कांग्रेसी नेता यह भूल गए हैं कि आज टीवी आपके हाव-भाव से लेकत आँखे नाचना, व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग करना उसी भाव में दर्शकों को परोस देता है. वह जमाना गया जब नेता कुछ का कुछ कह कर जब गड़बड़ होता था तो मीडिया के सर पर ठीकरे फोड़ देते थे.
दिग्विजय “जी” को एक बात और भी जाननी होगी. जैसे राजनीति करने वालों के लिए वोट हीं सबकुछ होता है और उसके लिए वे कुछ भी करते हैं उसी तरह मीडिया के लिए टी आर पी होता है. टी आर पी का मतलब होता है ज्यादा से ज्यादा लोग देखे. यह इस बात का द्योतक है कि मीडिया के उस कार्यक्रम की जन-स्वीकार्यता कितनी रही है. अगर स्वस्थ मीडिया है तो वह चाहेगा कि उसके जनोपदेय कार्यक्रमों को लोग स्वीकार करें. इसमें गलती क्या है? बाकि देश का मीडिया संविधान के अनुच्छेद १९(२) के सभी आठ प्रतिबंधों से और तज्जनित तीन दर्ज़न से ज्यादा कानूनों से बंधी है. दूसरा, दिग्विजय सिंह के इन कथनों पर जिनमें “सौ टंच माल” भी शामिल है, पूरे महिला समाज ने और राजनीतिक दलों ने उग्र प्रतिक्रिया दी. वरिष्ट कांग्रेस नेता को मालूम होगा कि द्वंदात्मक प्रजातंत्र या प्रतियोगी राजनीति में “ओसामा जी” कहने का अगर लाभ मिलता है (जो गलत आंकलन पर आधारित है और इससे कांग्रेस को नुकसान हीं हो रहां है ) तो “माल” कहने का खामियाजा भी विपक्ष देगा हीं.
फिर “ओसामा जी “ वाला विडिओ हो या “बाटला एनकाउंटर” पर प्रतिक्रिया या संघ को बम निर्माता बताने वाला ट्वीट मीडिया ने तो सब कुछ दिखाया. तब क्या टी आर के लिए मीडिया नहीं बौराया था? हर तीसरे दिन दिग्विजय सिंह एक विवाद पैदा कर रहे हैं और मीडिया इसे इसलिए दिखा रहा है कि जनता देखना चाहती है कि १३३ साल पुरानी गाँधी-नेहरु की यह पार्टी राजनीतिक संवाद को कहाँ तक ले जा सकती है. “सौ टंच माल” का जुमला , मंच की औपचारिक स्थिति, महिला युवा सांसद, संदर्भिता और अपने भाव को प्रगट करने के शालीन विकल्प जैसे “पार्टी की धरोहर हैं, पूंजी है” शायद राजनीतिक संवाद का स्तर ओर बेहतर करता.
(लेखक ब्रॉडकास्टर एडिटर्स एसोसियेशन के महासचिव हैं. लेख मूलतः भास्कर में प्रकाशित. उनके ब्लॉग ‘पोस्टकार्ड’ से साभार)