दिल्ली के मुख्यमंत्री पद के लिए केजरीवाल बनाम बेदी स्पर्धा भारतीय राजनीति में एक दिलचस्प संभावना खोलती है। बहुत लंबे समय से भारतीय राजनीति पर पुराने शैली के दल हावी रहे हैं : कांग्रेस में इसके मजबूती से जमे वंश हैं, जो उन लोगों को जगह देने से इनकार करते हैं, जिनके पास मशहूर नामों का सहारा नहीं है। वहीं भाजपा में भी अपने नेता व कार्यकर्ता हैं, जो पूरी शिद्दत से अपना वर्चस्व कायम रखने में लगे रहते हैं। अब हमारे पास परंपरागत राजनीति के किले में घुस आने वाले दो ऐसे लोग हैं, जो अपनी तरह से खेल के परंपरागत नियमों को चुनौती दे रहे हैं। बेदी और केजरीवाल दोनों पेशेवर राजनेता नहीं हैं। वे तो मध्यवर्ग के सफल पेशेवर लोग हैं, जो हमारी राजनीति में गहराई से जमे संरक्षक-संरक्षित के रिश्तों वाले नेटवर्क से नहीं बल्कि सार्वजनिक जीवन में अपने रेकॉर्ड के बूते राजनीति में जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
केजरीवाल तो स्टार्ट-अप मॉडल रहे हैं, ऊर्जा और आत्म-प्रेरणा की उत्तेजना से उफनते। उन-पचास दिनों में ही सत्ता छोड़ने के उनके फैसले ने हो सकता है उनके कई समर्थकों का मोह-भंग कर दिया हो, लेकिन वे अब भी लड़ाई में जमे हुए हैं। यह तथ्य बताता है कि वे ‘एक चुनाव का अचंभा’ नहीं हैं। इस तरह उनकी प्रासंगिकता लगातार बनी रहना उन लोगों को प्रेरित कर सकती है, जो राजनीति को परंपरागत द्विदलीय व्यवस्था के परे खोजना चाहते हैं और राजनेता-कॉर्पोरेट के सुविधाजनक गठबंधन को झटका देना चाहते हैं।
दूसरी तरफ यदि भाजपा जीतती है और किरण बेदी मुख्यमंत्री बनती हैं तो इसका मतलब भाजपा नेताओं की एेसी दो पीढ़ियों का अंत होगा, जो शीर्ष पद के लिए लालायित थीं। आम दिनों में इससे भाजपा के भीतर व्यापक बेचैनी फैल जाती, लेकिन ये भाजपा के लिए आम दिन नहीं हैं। नरेंद्र मोदी का कद्दावर नेता के रूप में उदय का मतलब विरोध के लिए बहुत कम गुंजाइश है। यह सही है कि दिल्ली भाजपा के उत्तराधिकारी की घोषणा के बाद छुटपुट विरोध प्रदर्शन हुए हैं, लेकिन यह रोष बड़ी बगावत के रूप में नहीं फूटेगा। जैसे अभिनेत्री से नेत्री बनीं स्मृति ईरानी ने पाया कि यदि आपको शीर्ष नेता का आशीर्वाद हो तो एकाधिक प्रमोशन भी मिल सकते हैं। ऐसा नेता, जिसका चेहरा, किरण बेदी के चापलूसी भरे शब्दों में, ‘दुनिया में सबसे सुंदर’ है।
इस प्रक्रिया में पार्टी के भीतर परंपरागत पदानुक्रम क्रमश: हिल रहे हैं और ‘बाहरी’ लोगों को वहां पैर जमाने का मौका दिया जा रहा है, जिसे पहले बंद दुकान समझा जाता था। इसके पहले राजनीति में आने वाली सेलेब्रिटी को आइटम नंबर से ज्यादा नहीं समझा जाता था। वे भीड़ खींचने के लिए होते थे, लेकिन जब महत्वपूर्ण ओहदों की बात आती थी तो उन्हें राजनीतिक वरिष्ठों के आगे झुकना पड़ता था। अब जब सीधे वोटर से जोड़ने के लिए मध्यवर्ग के आइकन पुरस्कृत किए जा रहे हैं तो यह बदलाव का द्योतक है। ऐसा नहीं है कि इन सभी को चुनावी सफलता मिल जाएगी। बेंगलुरू लोकसभा चुनाव में अनंत कुमार जैसे वरिष्ठ नेता के हाथों नंदन नीलेकेणी की पराजय याद कीजिए। किंतु अब कम से कम ऐसे लोगों को हाशिए पर पड़े व्यक्तियों की तरह नहीं लिया जा सकता।