मनीषा प्रियम
अन्ना ने ठीक वैसे ही मुख्यधारा की राजनीति से परहेज किया, जिस तरह कभी जयप्रकाश नारायण ने किया था। जेपी की तरह ही वह राजनीति पर सवाल तो खड़े करते रहे हैं, पर सत्ता की गद्दी से दूर हैं। बेशक यह सच है कि वह राजनीतिक दलों से बात करते हैं और कई राजनीतिक नेता उनसे संपर्क में हैं, पर वह राजनीतिक प्रक्रिया से दूरी चाहते हैं। यह कहना ज्यादा उचित होगा कि कांग्रेस को छोड़कर कमोबेश सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों पर अन्ना के त्याग और उनके आमरण अनशन के हठ का बहुत बड़ा असर पड़ा। यद्यपि भारतीय लोकतंत्र में चुनाव को ही सबसे बड़ा पर्व माना गया है, मगर लोकतंत्र तभी स्थायी हो सकता है, जब लोगों की राजनीतिक चेतना बढ़े। दिल्ली की चुनावी फिजां बता रही है कि राजनीतिक चेतना अगर जागृत हो, तो राजनीतिक दल भी बदलने को मजबूर हो जाते हैं। इस लिहाज से कहें, तो लोगों के असली राजा अन्ना हैं और दिल्ली में उन्हीं की धरोहर के बंटवारे की होड़ भाजपा और आप में लगी है। हालांकि सच यह भी है कि यह धरोहर किसी राजनीतिक दल के पास नहीं, बल्कि रालेगण सिद्धि में पड़े रहने वाले एक मनुष्य के चिंतन और जीवन में निहित है।
(दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक एवं राजनीतिक विश्लेषक)