मुकेश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार
एक झटके में ३५० लोगों की छुट्टी. बहुत ही ह्रदय विदारक खबर है दोस्तों. लेकिन ये केवल शोक और गुस्सा प्रकट करने या टांग खिचाई करके मज़ा लेने का समय नहीं है. हमें आत्मचिंतन करना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ, क्यों हो रहा है. इससे निपटने का रास्ता क्या है? ध्यान रहे ये पहली और आखिरी घटना नहीं है. कही हम छाती पीटकर फिर से खामोश बैठ गए तो कुछ नहीं होगा. बहुत जरूरी है कि हम एकजुट हो, संगठित होकर इस तरह की मुश्किलों का सामना करने का रास्ता तलाशें.
ये पत्रकारिता का भी संकट है…….
मीडियाकर्मी की कटनी-छँटनी को केवल पत्रकारों के जीवन-यापन के संकट में देखना ग़लत होगा। ये पूरी पत्रकारिता का संकट है। बड़ी छँटनियों के ज़रिए पत्रकारों के मनोबल को तोड़ा जा रहा है। उनमें असुरक्षा की भावना को बढ़ाया जा रहा है ताकि वे जन सरोकारों को भूलकर अपने स्वामियों/कार्पोरेट के प्रति और भी समर्पित भाव से काम करें। वे जितने कमज़ोर होंगे उतनी अच्छी ग़ुलामी करेंगे, ये निहितार्थ है पत्रकारों को कमज़ोर एवं असहाय बनाने के पीछे। इसलिए वे तमाम लोग जो पत्रकारिता को बाज़ार का पहरूआ नहीं लोकतंत्र का स्तंभ या लाइट हाऊस मानते हैं, उन्हें पत्रकारों की चिंता करना चाहिए। अच्छे पत्रकारों की नस्ल को बचाने के लिए क्या किया जा सकता है इसकी योजना बनानी चाहिए।
(स्रोत – एफबी)